रिन्यूएबल एनर्जी: आइसलैंड और भारत के रास्ते पर बढ़ेगी दुनिया?
आज सारी दुनिया ऊर्जा संकट से जूझ रही है. यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से ईंधन की कीमतों में जबरस्त उछाल आया है.
कीमतें कम करने के लिए कई देशों ने कोयले और तेल का उत्पादन बढ़ा दिया. इसके चलते पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंता बढ़ गई हैं.इसी दौरान ये माथापच्ची भी की जा रही है कि तमाम देश सस्टेनेबल सोर्सेज़ यानी अक्षय स्रोतों से हासिल ऊर्जा की मात्रा कैसे बढ़ा सकते हैं. ग्रीन एनर्जी के इस्तेमाल से जीवाश्म ईंधन और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर उनकी निर्भरता कम हो सकती है.दुनिया के सामने आइसलैंड का उदाहरण है. भारत जैसे देश भी इस दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ा रहे हैं. लेकिन सवाल है कि क्या रिन्यूएबल एनर्जी को लेकर दुनिया आइसलैंड और भारत के रास्ते पर आगे बढ़ेगी?
रिन्यूएबल एनर्जी क्या है?
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया की प्रोफ़ेसर और सौर ऊर्जा की एक्सपर्ट सारा कर्त्ज़ कहती हैं, “रिन्यूएबल एनर्जी का स्रोत अक्षय होता है यानी कभी ख़त्म नहीं होता है. हमारे मामले में ये स्रोत है सूर्य जो लगातार ऊर्जा देता है. सूर्य की ऊर्जा जब ज़मीन तक पहुंचती है तब इससे सीधे बिजली बनाई जा सकती है या ताप हासिल किया जा सकता है.” पूरी दुनिया के बिजली उत्पादन का दसवां हिस्सा ही सौर और पवन यानी हवा से हासिल होता है. अभी दुनिया भर में रिन्यूएबल एनर्जी का सबसे बड़ा स्रोत हाइड्रो पावर है. इस प्रक्रिया में पानी से बिजली तैयार होती है. पवनचक्की, पनचक्की और सोलर पैनल के जरिए बीते करीब डेढ़ सौ साल से बिजली बनाई जा रही है. हाल के बरसों में ज़्यादा बेहतर और सस्ती तकनीक हासिल हो गई हैं.सारा बताती हैं कि फिलहाल एक पैनल की प्रति वर्ग मीटर कीमत लगभग उतनी ही है, जितनी आप अपने घर की रंगाई पुताई करने वाले को देते हैं. तकनीक बेहतर होने से सौर और पवन ऊर्जा की क्षमता और कुल उत्पादन में भी हिस्सेदारी भी बढ़ रही है. लेकिन अभी सारे अवरोध ख़त्म नहीं हुए हैं. सारा कर्त्ज़ कहती हैं, “जब सूरज छुप जाता है, उस वक़्त हमें ये तलाश करनी होती है कि रात में बिजली जलाने के लिए सौर ऊर्जा का कैसे इस्तेमाल करें. इसके लिए हमारे पास एक ऐसा सिस्टम होना चाहिए जो स्वचालित हो और ये तय कर सके कि कब हमें रिन्यूएबल स्रोत से बिजली मिले और कब इकट्ठा की हुई बिजली का इस्तेमाल किया जाए.” बिजली बैटरी में स्टोर की जाती है. सारा कहती हैं कि अभी हमारे पास ज़्यादा ऊर्जा स्टोर करने की क्षमता नहीं है. फिलहाल ये सबसे बड़ा अवरोध है. दिक्कतें और भी हैं.रिन्यूएबल एनर्जी यानी अक्षय ऊर्जा के लिए सोलर पैनल, हाइड्रो प्लांट और विंड टर्बाइन उस जगह लगाए जाने चाहिए जहां ये सबसे अच्छी तरह से काम कर सकें. जबकि जीवाश्म ईंधन को जहां भी ज़रूरत हो, वहां जलाकर ऊर्जा हासिल की जा सकती है. सारा कर्त्ज़ कहती हैं, “गैस से चलने वाली कार में आप बहुत तेज़ी से ईंधन भर सकते हैं. लेकिन सोलर पैनल के जरिए सूरज की रोशनी जुटाने की रफ़्तार बहुत धीमी होती है.” अनुमान है कि 2020 से 2026 के बीच दुनिया की रिन्यूएबल एनर्जी उत्पादन की कुल क्षमता 60 प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ जाएगी. लेकिन ये ध्यान रखना होगा कि दुनिया भर में आबादी और बिजली की मांग भी बढ़ रही है.सारा कर्त्ज़ कहती हैं, “बढ़ती मांग के मुताबिक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने में समय लग सकता है. अभी जो ग्रिड है, उसे और उससे जुड़े तारों को शहरों और गांवों तक ले जाने में कई दशक का वक़्त लगा. हमें समझना होगा कि रिन्यूएबल एनर्जी को उसी स्तर तक ले जाने के लिए मूलभूत ढांचा बनाने में भी दशकों का समय लग सकता है.” कोयले और गैस के प्लांट के मुक़ाबले रिन्यूएबल एनर्जी पैदा करने का ढांचा तैयार करना सस्ता है. लेकिन फिर भी इसमें पैसे तो लगते हैं. सारा कहती हैं कि जिस चीज को पूरा समुदाय इस्तेमाल करता हो, उसके लिए बड़े पैमाने पर विस्तार करना होगा. तब ये तय करना मुश्किल हो सकता है कि उसमें पैसे कौन लगाएगा.
आइसलैंड मॉडल - आइसलैंड की नेशनल एनर्जी अथॉरिटी की डायरेक्टर जनरल हत्ला लोगाडॉटिर कहती हैं, “अगर आप सही इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करते हैं और अगर ये रिन्यूएबल और हरित ऊर्जा का ढांचा हो तो लोगों को उसके फायदे एक दो दिन या कुछ साल में पता नहीं चल पाते. लेकिन ऐसा ढांचा कई पीढ़ियों और कई दशकों के लिए मददगार हो सकता है.”
आइसलैंड छोटा देश है. इसकी आबादी तीन लाख से कुछ ज़्यादा है. कुदरत ने इस देश को कुछ ख़ास तोहफे दिए हैं. आइसलैंड का दसवां हिस्सा ग्लेशियर से ढका है. ये देश दो टेक्टोनिक प्लेटों की सीमा पर टिका है. ऐसे में गर्मी धरती की सतह तक पहुंच जाती है. इसकी वजह से यहां बड़े ज्वालामुखी और गर्म पानी के सैंकड़ों झरने हैं. हत्ला बताती हैं कि साल 1908 से आइसलैंड के लोग घरों को गर्म रखने के लिए गर्मपानी के झरने से ताप हासिल करने लगे. इसकी शुरुआत एक किसान ने की. वो बताती हैं कि 1928 में रेक्याविक में नगरपालिका स्तर पर ऐसी कोशिश की गई. इसके बाद अस्पताल और प्रमुख स्कूलों को जियोथर्मल पावर से गर्म किया जाता था. 1960 का दशक आते आते राजधानी रेक्याविक ने ऐसे प्रयासों को वित्तीय मजबूती मुहैया कराई. हत्ला बताती हैं, “उस वक़्त सरकार ने आइसलैंड के एनर्जी फंड को लेकर एक बेहतरीन फैसला किया. इस फंड के जरिए नगरपालिकाओं को ज़मीन के अंदर जियोथर्मल तलाशने के लिए पैसे दिए जाते थे.”“अगर खुदाई कामयाब होती तो उस वो रकम ऋण में बदल जाती जिसे चुकाने के लिए लंबा समय मिलता लेकिन अभियान नाकाम होता तो खर्च के एक हिस्से को माफ कर दिया जाता था. ऐसा इसलिए किया जाता था कि नगरपालिकाएं जोखिम लें. तब उन्हें पता होता था कि अगर ड्रिलिंग क़ामयाब नहीं हुई तो पूरी लागत का बोझ उनके कंधे पर नहीं आएगा.”