नाट्य प्रस्तुति : क्रूर पूंजीवाद के हाथ हुआ “आवाज का नीलाम“ | The Voice TV

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नाट्य प्रस्तुति : क्रूर पूंजीवाद के हाथ हुआ “आवाज का नीलाम“

Date : 11-May-2025

 हालात इंसान को कभी कभी इतना लाचार बना देते है कि उसे अपनी निष्पक्ष और निर्भीक आवाज को नीलाम करने पर विवश होना पड़ता है। सांस्कृतिक संस्था आस्था समिति द्वारा शनिवार को जगत तारन गोल्डन जुबली स्कूल के रवींद्रालय प्रेक्षागृह में धर्मवीर भारती के लिखे नाटक “आवाज का नीलाम“ में ऐसा ही मार्मिक दृश्य देखने को मिला। युवा रंगकर्मी निखिलेश कुमार मौर्या के निर्देशन में मंचित इस नाटक में 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद की घटना को दिखाया गया है। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से नाटक “आवाज का नीलाम“ एक ऐसा तीखा व्यंग्य है जो आजाद भारत की उन परतों को खोलता है, जहां स्वतंत्रता के बाद भी नैतिकता की बेड़ियां टूटी नहीं बल्कि सत्ता और पूंजी के नए गठजोड़ ने उन्हें और मजबूत बना दिया। मंच पर केवल दो पात्र होते हैं। नाटक का आरंभ “आवाज“ अखबार के संपादक दिवाकर से होता है। नाटक के पात्र, घटनाएं, परिस्थितियां सब अखबार से सम्बंधित होती हैं और अंत भी।“आवाज़“ सत्य, त्याग, तपस्या, साधना और जनसाधारण का प्रतीक है। दिवाकर एक निडर स्वतंत्र पत्रकार है जो जनता की सही आवाज अपने अखबार में लाने का प्रयास करता है। किंतु पत्नी की लम्बी बीमारी और आर्थिक तंगी के कारण वह अपनी “आवाज“ को बेच देता है। लेकिन दूसरे ही पल पत्नी के मौत की खबर सुन कर अपनी बेची हुई “आवाज“ को सेठ से वापस लेना चाहता है। किंतु सेठ वापस करने को तैयार नहीं होता। दिवाकर सेठ से कहता है कि मेरी पत्नी मर चुकी है अब मुझे अपनी “आवाज़“ बेचने की जरूरत नहीं। सेठ दिवाकर की बदहवासी पर हंसता है और बोलता है तुम तो अपनी “आवाज“ बेंच चुके हो, बिकी आवाज वापस नहीं होती। दरअसल, नाटक का शीर्षक “आवाज का नीलाम“ दोहरा अर्थ रखता है। एक तो आवाज अखबार है जिसको विवशता में वह बेच देता है। दूसरा हर व्यक्ति की आवाज खरीदी जा सकती है, भले ही विशेष दुविधामय परिस्थिति में हो। पर जब व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करता है तो उसको अपनी आवाज की हकीकत का पता चलता है। यही स्थिति दिवाकर की होती है। वह जिस सेठ को उसके गलत कार्यों के कारण धिक्कारता, फटकारता है अपनी जरूरत पर देवता की तरह मानने लगता है। यहां मूल्यों एवं मानदंडों की टकराहट को दिखाया गया है।नाटक में सेठ बाजोरिया के माध्यम से ऐसे लोगों की वास्तविक स्थिति को दिखाने का प्रयास किया गया जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी भी स्तर तक जा सकता है। दूसरी ओर सच्चे, ईमानदार पत्रकारों को सच की आवाज के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। पत्रकार तो जनता की आवाज होता है अगर वही अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेचने के लिए मजबूर हो जाए तो इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है। वर्तमान समय में पत्रकारिता एवं मीडिया जगत की यही वास्तविकता है। नाटक में जिज्ञासा और रोचकता अंत तक बनी रहती है।नाटक के दोनों पात्रों दिवाकर (पत्रकार) की भूमिका में राहुल चावला एवं बाजोरिया (पूंजीपति) की भूमिका में आकाश अग्रवाल “चर्चित“ ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों को अंत तक बांधे रखा। ध्वनि व्यवस्था प्रशांत वर्मा, प्रकाश संचालन निखिलेश कुमार मौर्य, रूप सज्जा हामिद अंसारी, पार्श्व स्वर राहुल चावला, नाटक के कलाकार श्रिया सिंह, मंच सामग्री अमन सिंह, पृथ्वी शर्मा, प्रस्तुति नियंत्रक पंकज गौड़ एवं सम्पूर्ण व्यवस्था अनूप गुप्ता की थी। अतिथियों का स्वागत एवं संस्था का ब्यौरा महासचिव मनोज गुप्ता ने प्रस्तुत किया। जबकि धन्यवाद ज्ञापित संस्था के अध्यक्ष बृजराज तिवारी ने किया।

 

 
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