15 अगस्त या 26 जनवरी को हर स्कूल कॉलेज या टीवी रेडियो पर एक गीत जरूर बजता है, "जहां डाल - डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वह भारत देश है मेरा " या फिर 2 अक्टूबर को गांधी जयंती पर, "सुनो- सुनो ए दुनिया वालो, बापू की ये अमर कहानी" । इन दोनों अमर गीतों के रचनाकार हैं राजेन्द्र क्रिशन दुग्गल जिन्हें फिल्मी दुनिया राजेंद्र कृष्ण के नाम से जानती है । उनका जन्म 6 जून 1919 को जलालपुर जट्टा नामक गांव में हुआ जो उस समय के पंजाब ( अब पाकिस्तान) प्रांत में था। प्रचार - प्रसार से हमेशा दूर रहे राजेंद्र कृष्ण पर कहीं कुछ ज्यादा लिखा - पढ़ा गया हो ऐसा नजर नहीं आता है, जबकि उन्होंने लगभग 260 फिल्मों के लिए सोलह सौ से ज्यादा गीतों की रचना की ।
उनके गीतों में केवल प्यार के चुलबुले गीत ही नहीं बल्कि देश भक्ति और भजन की अच्छी- खासी तथा मजाकिया गीतों की भी एक लंबी रेंज है । वह केवल गीतकार ही नहीं बल्कि अच्छे संवाद लेखक भी थे। उन्होंने उन 60 फिल्मों के संवाद भी लिखे जिनके लिए वे गीत भी लिख रहे थे । हाल ही में कथाकार और पत्रकार गीताश्री द्वारा संपादित पुस्तक " वो भूली दास्तां" प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित हुई है जो उन पर आई पहली पुस्तक है। पुस्तक पढ़ कर राजेंद्र कृष्ण के बारे में कई रोचक जानकारियां सामने आती हैं।
शायरी का चस्का उनको अपने बचपन में ही लग गया था। स्कूल की कॉपी- किताबों में वह गीत लिखते रहते थे । पढ़ने में मन नहीं लगता था तो शिमला पहुंच गए अपने बड़े भाई के पास जो वहां नौकरी करते थे। कई छोटी - मोटी नौकरी के बाद बिजली विभाग में क्लर्क हो गए। फिर तो जब भी मौका मिलता कविताओं और शेरो शायरी की महफिल में भी चले जाते , कभी सुनते और कभी कुछ सुनाते। एक बार शिमला में एक बड़ा मुशायरा हुआ जिसमें बड़े-बड़े कवियों और शायरों को बुलाया गया था । उनके दोस्तों ने उनसे पूछा कि क्या तुम्हें इसमें नहीं बुलाया गया, तब राजेंद्र कृष्ण का जवाब था "देखना बुलावा आएगा"। वे अपने दोस्तों के साथ बैठे रहे और कुछ देर बाद सचमुच उन्हें वहां अपना कलाम पेश करने के लिए बुलाया गया। उनका सुनाया गया शेर था -
कुछ इस तरह वो मेरे पास आए बैठे हैं,
कि जैसे आग से दामन बचाए बैठे हैं।
इसी मुशायरे में जिगर मुरादाबादी भी कुछ देर से पहुंचे , उन्होंने जब इस नौजवान शायर की तारीफ सुनी तो उन्हें मंच पर दोबारा पढ़ने के लिए बुलाया ...। बस यहीं से उनकी किस्मत बदल गई। वे बंबई जा पहुंचे ।1947 में उन्होंने सबसे पहले जनता फिल्म का स्क्रीनप्ले और गीत लिखे । जंजीर , पगड़ी ,आज की रात फिल्मों के गीत भी इसी वर्ष लिखे लेकिन उन्हें पहचान मिली फिल्म बड़ी बहन (1949) के गाने "चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है" से । इसका संगीत पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल भगतराम ने दिया था। 1951 में भगवान दादा की फिल्म अलबेला से तो वे घर घर पहुंच गए। सी. रामचंद्र के संगीत से सजे इस फिल्म के सभी गाने सुपरहिट साबित हुए। "शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के", "शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो", "मेरे दिल की घड़ी कहे टिक टिक टिक " या फिर लोरी "धीरे से आजा री अखियन में निदिया "।
उनके बेहद सहज और सरल गीतों का जादू चल निकला। उनके गीतों में प्यार कभी संतुलित,तो कभी चुलबुला हो उठता । इतना ही नहीं उनके पास देशभक्ति, सुंदर भजनों , गजलों एवं मजाकिया गीतों का भी खजाना था। निरर्थक लगने वाले शब्दों की पैरोडी से उन्होंने कई ऐसे गीत दिए जो आज भी जगह-जगह गुनगुनाए जाते हैं। वह चाहें इना मीना डीका हो या अपलम चपलम चपलाई या बाबडी बूबडी बम बम या जंबो ची कोला जंबो ची कोला।
यूं तो उन्होंने अपने समय के लिए सभी संगीतकारों के साथ काम किया लेकिन उनके सर्वश्रेष्ठ गीत सी. रामचंद्र और मदन मोहन के संगीत निर्देशन में संगीत प्रेमियों के सामने आए। तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो, बड़ी देर भई नंदलाला , वृंदावन का कृष्ण कन्हैया सबकी आंखों का तारा जैसे भजन, यूं हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए, ऐ दिल मुझे बता दे तू किस पर आ गया है, इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा कि मैं एक बादल आवारा ,पल पल दिल के पास जैसे गहरे रोमांटिक गीत, चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है, मेरे सामने वाली खिड़की मैं एक चांद का टुकड़ा रहता है, या फिर राफ्ता राफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है जैसे चुलबुले प्रेम गीतों की दुनिया रचने वाले राजेंद्र कृष्ण के हास्य गीतों की भी लंबी दुनिया है - मेरा गधा गधों का लीडर, आए बैठे खाया पिया खिसके, जेंटलमैन जेंटलमैन, आओ मिला लो मुझसे नैन, जरूरत है जरूरत है एक श्रीमती की आदि। 70 के दशक के अंत तक उनको मिलने वाली फिल्मों की संख्या काफी कम हो गई थी, हालांकि 1981 में आई फिल्मों सिलसिला के गीत "लड़की है या शोला" और प्रोफेसर प्यारेलाल के गीत "गाए जा गाए जा और मुस्कराए जा" कुछ लोकप्रियता मिली पर 80 के दशक की अल्लारक्खा,आग का दरिया जैसी उनकी फिल्में चली नहीं । किसी भी तरह की गुटबाजी से दूर रहकर ,दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ के मूलमंत्र को मानने वाला यह अनोखा गीतकार 23 सितंबर 1987 को हमारे बीच नहीं रहा।
चलते-चलते
राजेंद्र कृष्ण को अपने समय का सबसे पैसे वाला गीतकार कहा जाता था। इसके पीछे किस्सा यह है कि उन्हें घोड़ों पर दांव लगाने का बड़ा शौक था और ऐसी ही एक दौड़ में उनका जैकपॉट लग गया था जो 46 लाख 74 हजार छह सौ रुपये का था। उस समय यह जीता हुआ पैसा टैक्स फ्री हुआ करता था। उन्होंने इसमें से एक लाख रुपए प्रधानमंत्री राहत कोष में दान दे दिए। उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थी । उनको जब यह पता चला तो उन्होंने इस पर 33 प्रतिशत टैक्स लगवा दिया। काफी लोगों ने इसके लिए राजेंद्र कृष्ण को जिम्मेदार ठहराते हुए काफी उल्टा सीधा कहा और हमेशा के लिए उनसे खफा हो गए...।