अपने किरदारों को यादगार तथा फिल्म इंडस्ट्री में लंबे समय तक अपनी मांग और लोकप्रियता बनाए रखने के लिए प्राण ने अपने मेकअप ( रूप सज्जा ), गेटअप (वस्त्र सज्जा) और बोलने के ढंग (लहजे) पर विशेष मेहनत तो की ही, यह भी ध्यान रखा कि इनमें दोहराव न हो । इन सब की प्रेरणा वे अपने आसपास के लोगों से लेते या पत्र-पत्रिकाओं में छपी तस्वीरों और उसके विवरण से बोलने के खास लहजे या "तकिया कलाम" की बात करें तो फिल्म 'पत्थर के सनम (1960) में उनके द्वारा इस्तेमाल किया गया तकिया कलाम था- क्यों? ठीक है ना ठीक ?" यह तकिया कलाम उन्होंने लाहौर में फिल्में करते समय रूप के शौरी के मामाजी से लिया था जो उनके स्टूडियो की देखभाल किया करते थे। फिल्म दस लाख (1966) में उन्होंने अपनी हर बात को दुबारा गलत अंग्रेजी में बोलकर हास्य का पुट भरा तो फिल्म 'कश्मीर की कली' (1964) में 'स' को श बोलकर -"शताले, शताले शम्पा कभी तो मेरा शमय भी आएगा' ने भी दर्शकों को खूब हंसाया। फिल्म कसौटी (1974) में की गई नेपाली गोरखे की भूमिका में नेपाली लहजे में बोला गया तकिया कलाम हम बोलेगा तो बोलेंगे कि बोलता है " भी काफी लोकप्रिय हुआ था।
अपनी खलनायकी को खूंखार और डरावना बनाने के लिए उन्होंने कई फिल्मों में सिगरेट या बीड़ी पीने तथा पान खाने के अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया। फिल्म मर्यादा (1971) में उन्होंने जलती हुई सिगरेट को जीभ द्वारा मुंह के अंदर ले जाकर जीभ या होठ जलाए बिना दोबारा उसी तरह होठों पर लाने का करिश्मा किया (आमिर बान ने इस तरीके की नकल फिल्म गुलाम में की)। फिल्म 'दिल तेरा दीवाना' (1962) फिल्म में वह अपने मुंह में दबाई बीड़ी को बोलते समय जीभ के निचले होठ से एक सिरे से दूसरे सिरे तक घुमाते रहते थे।
अपनी बेटी के डांस टीचर जो कि विकलांग थे और खास तरीके से चलते थे की नकल उन्होंने 'हीर-रांझा' (1970) में लंगड़े की भूमिका करते हुए की। फिल्म 'चोर के घर चोर (1978) में एक पागल के किरदार के लिए उन्होंने उस पागल का गेटअप लिया जिसे वे बांद्रा में अक्सर देखा करते थे और जो मिलिट्री की पोशाक और उस पर मेडल लगाकर सीटी बजाता रहता था।
उनके विग और गेटअप हमेशा कुछ अलग होते थे और दर्शकों को बेहद पसंद आते थे। विश्व प्रसिद्ध हस्तियों के प्रति विशेष आकर्षण के चलते उन्होंने खानदान (1966) फिल्म में हिटलर की तरह छोटी मूछें और बाल रखे। अमर अकबर एंथोनी में उनकी दाड़ी और कपड़े अब्राहम लिंकन जैसे थे। फिल्म जुगनू (1973) में प्रोफेसर की भूमिका के लिए उन्होंने शेख मुजीबुरहमान जैसा मेकअप और गेटअप किया था। यानी उन्हीं के जैसी कुर्ता, विग, मोटे फ्रेम का चश्मा और मूंछें। बाद की फिल्मों निगाहें (1989) में उन्होंने सैम पित्रोदा की तरह दाड़ी और फिल्म जोशीले (1973) में शशि कपूर के ससुर ज्योफ्री कैंडल की तरह दाढ़ी रखी।
वेशभूषा की सत्यता के लिए प्राण जिस धर्म का किरदार निभा रहे होते तो उसी समुदाय के किसी भी व्यक्ति से सहयोग लेने में नहीं हिचकते थे। फिल्म 'कसौटी' में उन्होंने एक नेपाली गोरखे की भूमिका के लिए अपने मित्र से गोरखाओं जैसे कपड़े तो मंगाए ही साथ ही उनके द्वारा साथ रखी जाने वाली खुखरी तक मंगाई और उसे शूटिंग में भी ले गए। फिल्म आंसू बन गए फूल (1969) में उन्होंने मोहल्ले के दादा का मराठी किरदार निभाया था। इसके लिए उन्होंने अपने मराठी इलेक्ट्रिशियन से कुछ चुने हुए मराठी शब्द याद कर अपने संवादों में शामिल किए।
चलते-चलते-
जिस देश में गंगा बहती है (1960) फिल्म में प्राण ने एक क्रूर डाकू 'राका' की उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। चंबल के डाकुओं द्वारा हथियार डालने की कहानी पर आधारित इस फिल्म को राजकपूर ने बनाया था। प्राण ने इसका गेटअप टाइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए एक डाकू के चित्र से लिया था। जब राका की कोई विचित्र आदत या व्यवहार (मैनरिज्म) तय करने की बात आई जो उसकी मनोदशा और डर को पर्दे पर साकार कर सके, तो राजकपूर ने यह जिम्मेदारी प्राण पर छोड़ दी।
फिल्म में राका बात-बात में अपनी गर्दन पर उंगली घुमाता रहता था। दर्शकों/ समीक्षकों को उनका यह अंदाज बेहद पसंद आया। लेकिन वह ऐसा क्यों करता था कोई समझ नहीं पाया। बहुत बाद में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने इसका राज खोलते हुए बताया था कि जब मैंने यह करेक्टर किया तो उसके अंदर चलने वाली कशमकश की गहराई में गया तो मुझे लगा एक डर तो उसे भी अंदर ही अंदर सताता ही रहता होगा, किसी भी क्षण मौत सामने आने का डर...। मतलब यह कि पकड़े गए तो फांसी, वरना गरदन कट सकती है। अपने अंदर के इसी डर की वजह से उसे बात-बात पर गर्दन पर उंगली फिराने की आदत पड़ गई होगी।
अजय कुमार शर्मा
(लेखक, वरिष्ठ संस्कृति-कला समीक्षक हैं)
