मूक फिल्मों में सक्रिय रहे बहुत कम सितारे सवाक फिल्मों में अपना जलवा कायम रख पाए। इसमें सबसे बड़ा नाम रूबी मायर्स उर्फ सुलोचना का है। तीस और चालीस के दशक में जब हॉलीवुड में मर्लिन डेट्रिच और ग्रेटा गार्बो की धूम थी तो भारतीय सिनेमा में सुलोचना की धूम थी। उन्हें पहली सितारा नायिका कहलाने का गौरव हासिल है। उनकी फिल्मों का इंतजार हजारों भारतीयों को रहता था। पुणे में सन् 1907 में जन्मी रूबी मायर्स असल में किसी कंपनी में टेलीफोन ऑपरेटर थी। वहीं उनकी खूबसूरती को देखकर कोहिनूर फिल्म कंपनी के निर्देशक मोहन भावनानी ने अपनी फिल्म वीरबाला (1925) में उन्हें नायिका के रूप में पेश किया। उस समय उनको इसके लिए ₹1000 की बड़ी राशि दी गई थी। उनकी भूरी आंखें होने के कारण मोहन भावनानी ने उनका नाम सुलोचना कर दिया था। यह वह दौर था जब अमूमन सिनेमा में स्त्री चरित्र तवायफ, एंग्लो इंडियन गर्ल्स या यूरेशियन लड़कियां निभाया करती थीं और उनके असली नाम इसलिए भी बदले जाते थे क्योंकि उस समय बनने वाली बहुत सी सामाजिक और धार्मिक फिल्मों में उनके असली नामों से दर्शकों को ऐतराज होता था।
इसके बाद इंपीरियल फिल्म कंपनी ने उनको ₹5000 के वेतन पर अपने यहां रख लिया जो कि उस समय किसी अभिनेत्री को दी जाने वाली सबसे ज्यादा राशि थी। उस समय बंबई के गवर्नर का वेतन भी उनसे कम था। सुलोचना के चेहरे में लाजवाब कशिश और अभिनय में बिंदासपन था।1926 में उन्होंने सिनेमा क्वीन, गर्ल फ्रेंड, मुमताज महल, सम्राट शिलादित्य, टेलिफोन गर्ल, टायपिस्ट गर्ल, वांडरिंग फॅटम जैसी मूक फिल्मों में काम किया तो 1927 में अलीबाबा और 40 चोर, किक्स ऑफ किस्मत, सेक्रीफाइस, द डांसिंग गर्ल, द मिशन गर्ल, द नर्स, विलेज गर्ल, वाइल्ड केट ऑफ बाम्बे, 1928 में अनारकली, सेलेस्टियल लोटस, माधुरी, वेजिएस और 1929 में इंदिरा बीए, ज्वेल ऑफ राजपूताना, मैजिक फ्लूट, पंजाब मेल. स्वर्ड टू स्वर्ड आदि में काम किया। उनकी पहली बोलती फिल्म माधुरी 1932 में परदे पर आई और सुपरहिट रही। उन्होंने अपनी अधिकतर फिल्में दिनशा बिल्मोरिया के साथ की और उस समय फिल्म अनारकली और हीर रांझा में लंबे चुंबन तथा गहरे आलिंगन दृश्य देकर दर्शकों को अचंभित और रोमांचित किया।
लोकप्रियता का आलम यह था कि अखबारों में जब भी उनकी फिल्मों के विज्ञापन निकलते तो उनका नाम बड़े टाइप में अलग से छापा जाता था। सन 1925 से 1947 के बीच उनकी 53 फिल्में प्रदर्शित हुई। इनमें से प्रमुख सवाक फिल्में थी, 1933 की डाकू की लड़की, सौभाग्य सुंदरी, 1934 की गुल सनोवर, इंदिरा एमए, मैजिक फ्लूट, पिया प्यारे ,1935 की अनारकली, दो घड़ी की मौज, पुजारिन, 1936 की बम्बई की बिल्ली, जंगल क्वीन, शान-ए-हिन्द ,1937 की जगत केसरी, न्यू सर्व लाइट, वाह री दुनिया,1939 की प्रेम की ज्योति, 1942 की आंख मिचौली,1943 की विष कन्या, शंकर पार्वती और 1946 की चमकती बिजली। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हिंदी सिनेमा का परिदृश्य बदला तो उनकी चमक फीकी पड़ गई ।
लेकिन इससे पहले सुलोचना की लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी अधिकतर मूक फिल्मों के सवाक युग में री-मेक बने और खूब चले। जैसे इंदिरा बीए (1929) इंदिरा एमए (1934) बनकर आई। अनारकली (1928) मूक थी। (1935 ) में नाचती गाती चली।
वाइल्ड केट ऑफ बॉम्बे (1927) बम्बई की बिल्ली नाम से 1936 में रिलीज की गई। इस फिल्म में सुलोचना ने आठ विभिन्न किरदार निभाए। इम्पीरियल की इस फिल्म में सुलोचना बहादुर और दयालु लड़की के भेष में अमीरों से छीनकर गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करती हैं। सुलोचना ने अपने होम प्रोडक्शन रूबी पिक्चर्स की स्थापना भी की और इसके बैनर तले 1938 में प्रेम की ज्योति फिल्म भी बनाई । 1933 में सुलोचना नाम से भी फिल्म बनी थी। फिल्मिस्तान की लोकप्रिय फिल्म अनारकली में उन्होंने जोधाबाई का किरदार किया। सुलोचना जब रणजीत फिल्म कंपनी से रिटायर हुईं तो उनका वेतन ₹7500 था।
1960 के बाद बढ़ती उम्र और बदलते परिदृश्य के कारण उन्होंने कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए। इस्माइल मर्चेंट की महात्मा एंड द मेड बॉय (1974) में वह आखिरी बार दिखाई दी। फिल्म इंडस्ट्री में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए सुलोचना को 1974 में दादा साहेब फालके सम्मान दिया गया, तो एक लाख का चेक देखकर उनकी आखों में आसूं आ गए थे क्योंकि उस समय वे गुमनामी और अभाव भरा जीवन जी रहीं थीं । 1983 में सुलोचना दूसरी दुनिया का सितारा बन गईं ।
चलते-चलते
इंपीरियल कंपनी की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के लिए आर्देशिर ईरानी ने पहले सुलोचना को ही नायिका बनाया था लेकिन उनके अशुद्ध हिंदी और उर्दू उच्चारण को देखते हुए बाद में यह रोल जुबैदा को दिया गया। इस बात से आहत सुलोचना ने पूरे एक साल फिल्मों से दूर रहकर हिंदी और उर्दू सीखी और बाद में अपनी आवाज के जादू से सबको सम्मोहित किया।
