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सफलता एक योग्य लक्ष्य या आदर्श की प्रगतिशील प्राप्ति है - अर्ल नाइटिंगेल

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5 सितंबर : शिक्षक दिवस सतत अध्ययन, मनन, पढ़ने, पढ़ाने, सीखने, समझने और समझाने का प्रेरणा दिवस

Date : 05-Sep-2024

मनुष्य का जीवन चुनौतियों से भरा है । हर चुनौती के समाधान का अपना मार्ग होता है । जीवन  को सफल और समुन्नत बनाने केलिये स्वयं को योग्य बनाने का मार्ग बताने वाला शिक्षक ही होता है । इसलिये पूरा संसार किसी न किसी दिन शिक्षकों का आयोजन करता है । 

 मनुष्य जन्म के साथ ही जिज्ञासु होता है । सीखना, समझना समझाना उसके स्वभाव में होता है । यह दिशा सकारात्मक हो, निर्माणात्मक हो, गलत दिशा में जाकर मनुष्य विध्वंसक न बन जाये इसके लिये शिक्षण परंपरा आरंभ हुई । यह दो प्रकार की थी । एक निर्धारित विषय और उसके क्रमानुसार । और दूसरी बालक की प्रतिभा, क्षमता, और रुचि के अनुसार व्यक्तित्व का विकास करना । आरंभिक शिक्षण के बाद  गुणों और प्रतिभा की दिशा का आकलन करके अध्यापन आरंभ करने वाले को गुरु कहा जाता था । समय के साथ गुरुकुल परंपरा का स्थान पर अब विद्यालय स्थापित किये गये । इन विद्यालयों में शिक्षक आने वाली पीढ़ी का भविष्य संवारने हैं। उनके सम्मान के लिये शिक्षक दिवस आयोजित होता है । यह उभय पक्षीय होता है । बच्चे भी सम्मान करें और शिक्षक भी समय की जरूरत के अनुरूप स्वयं का विस्तार करें। 
शिक्षा और शिक्षक की महत्ता स्थापित करने के लिये प्रत्येक देश अपने प्रयास हैं । इसके निरंतर शोध और अनुसंधान के साथ शिक्षण व्यवस्था तो हो ही रही है । साथ शिक्षा और शिक्षण की महत्ता स्थापित करने केलिये लगभग सभी देशों में शिक्षक दिवस के आयोजन होते हैं । सबकी अपनी तिथियाँ हैं और सबके अपने आदर्श हैं। जैसे चीन में महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस की स्मृति में 8 सितंबर को शिक्षक मनाया जाता है । इसी प्रकार थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों में शिक्षक दिवस मनाने की अपनी तिथियाँ हैं। फिर विश्व स्तर पर भी शिक्षक दिवस माने का पहल आरंभ हुई। संसार की विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने वर्ष 1960 में इस विषय पर विमर्श किया  और शिक्षक दिवस मनाने की पहल की । विश्व स्तर पर "विश्व शिक्षक दिवस" मनाने का आयोजन 1966 से आरंभ हुआ । "विश्व शिक्षक दिवस" की तिथि 5 अक्टूबर है । यह पहल यूनीसेफ ने की और संसार के विभिन्न देशों में बैठकें करके सरकारों को सहमत किया । 1994 तक इस अभियान में सौ से अधिक देश सम्मलित हो गये जो पाँच अक्टूबर को विश्व शिक्षक दिवस मनाते हैं।
ज्ञान परंपरा को सर्वोच्च सम्मान देने की परंपरा भारत में अति प्राचीन है । अतीत में जहाँ तक दृष्टि जाती है यह परंपरा मिलती है । तब भारत में विद्यालय को गुरुकुल कहा जाता था । इसमें आचार्य द्वारा शिक्षा एवं गुरु द्वारा दीक्षा देने की परंपरा रही है । भारत में गुरु को सर्वोच्च स्थान रहा है । और गुरु पूजन केलिये तिथि आषाढ़ की पूर्णिमा रही है । जिसे गुरु पूर्णिमा कहते थे । आज भी गुरुपूर्णिमा पर गुरू पूजन होती है। वर्तमान में आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने वाली पीढ़ी पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाती है । प्रति वर्ष पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाना 1962 में आरंभ हुआ। पाँच सितम्बर की तिथि भारत के द्वितीय राष्ट्रपति और महान शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन है। एक बार राधा कृष्णन जी के कुछ शिष्यों ने मिलकर उनका जन्मदिन मनाने का विचार बनाया । जब वे डा राधाकृष्णन जी से अनुमति लेने पहुंचे तो राधाकृष्णन ने सहमति नहीं दी । डाक्टर राधाकृष्णन जी जब ने इंकार किया तो शिष्यों ने उनके जन्मदिन पर उन्हें एक शिक्षक के रूप सम्मानित करने की अनुमति माँगी । जिस पर डाक्टर राधाकृष्णन जी सहमत हो गये । 1962 के इस प्रथम आयोजन में डाक्टर राधाकृष्णन जी उपस्थित हुये और उन्होंने कहा था कि पूरी दुनिया एक विद्यालय है जहां प्रतिक्षण कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। कार्यक्रम में उन्होंने अपने जीवन की उपलब्धियों का श्रेय अपने शिक्षकों को दिया और कहा कि जीवन में शिक्षक हमें केवल पढ़ाते ही नहीं है बल्कि जीवन के अनुभवों से गुजरने के दौरान अच्छे-बुरे के बीच फर्क करना भी सिखाते हैं जो जीवन पथ पर आगे बढ़ने का संबल होते हैं। आगे चलकर भारत सरकार ने पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाने की अधिकृत घोषणा कर दी । इस प्रकार भारत में 1962 से पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा आरंभ हुई । 
भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और सनातन परंपरा के आस्थावान विचारक सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेन्सी के चित्तूर जिले के तिरूत्तनी ग्राम में हुआ था। यह तिरुत्तनी ग्राम चेन्नई से लगभग 84 किलोमीटर दूर है । तब यह ग्राम आंध्रप्रदेश के अंतर्गत था लेकिन अब तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले के अंतर्गत है। उनके पूर्वजों की परंपरा अति विद्वान और सम्मान की रही है ।  है।उनके पिता 'सर्वपल्ली वीरासमियाह संत प्रकृति के एक आध्यात्मिक पुरुष थे और माता 'सीताम्मा' भारतीय संस्कृति और परंपराओं के लिये समर्पित गृहणीं। पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। राधाकृष्णन जी पाँच भाई बहन थे । एक भाई बड़े और तीन उनसे छोटे थे । उनका बाल्य जीवन अपने जन्म ग्राम तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्थानों में बीता । पिता आध्यात्मिक जीवन के साथ  आधुनिक शिक्षा के भी समर्थक थे । इसलिए उन्होंने राधाकृष्णन जी  को प्रारंभिक शिक्षा के लिये क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल तिरूपति पढ़ने के लिये भेजा । आगे की शिक्षा वेल्लूर में हुई। महाविद्यालयीन शिक्षा चैन्नई के क्रिश्चियन कॉलेज में हुई । वे पढ़ने और  विषयों को समझने में बहुत कुशाग्र थे । उन्होंने अपनी सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं और छात्रवृत्ति भी प्राप्त की । वे अपना पाठ्यक्रम तो स्मरण करते ही थे, आसपास घटी घटनाओं का भी अनूठा विश्लेषण करते थे । इससे वे अपने साथियों और शिक्षकों दोनों में लोकप्रिय थे । उन्होंने श्रीमद्भगवत गीता और रामायण का अध्ययन किया और बाइबिल के भी अनेक महत्त्वपूर्ण अंश कंठस्थ किये । इसके लिये उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान मिला । अपने शिक्षण काल में उन्हें एक विषय ने बहुत कचौटा। वह था कुछ ईसाई परंपरा के कट्टरपंथी शिक्षक और छात्रों का भारतीय परंपराओं का परिहास करना और उसके अनुरूप जीवन जीने वालों का अपमान करना । इस कारण उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही भारतीय दर्शन और परंपराओं का अध्ययन आरंभ कर दिया था । उन्होंने दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द जैसे विचारकों का तो अध्ययन किया ही साथ ही आदि शंकराचार्य एवं वेदों के भाष्य का भी अध्ययन किया । उन्होंने मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता प्राप्त की । दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर होने के बाद वे 1918 में मैसूर महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। फिर उसी कॉलेज में प्राध्यापक बने । अपने महाविद्यालयीन दायित्वों के साथ अध्ययन और लेखन कार्य भी निरंतर रहा। उनके लेखों और संगोष्ठियों में दिये गये भाषणों में प्रमुख विषय भारतीय दर्शन और संस्कृति होता था। वे हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते थे । जिसकी प्रशंसा विश्व भर के बुद्धिजीवियों में होती थी । उनका जीवन विभिन्न विशेषताओं और दायित्वों से भरा था । उन्हें अपने जीवन में संसार भर से अनेक सम्मान प्राप्त हुये । स्वतंत्रता से पहले अंग्रेज सरकार ने यदि ",सर" की उपाधि से सम्मानित किया तो स्वतंत्रता के बाद उन्हे "भारत रत्न" से भी सम्मानित किया गया । 
वे 1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर, 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे।  स्वतन्त्रता के बाद उन्हे संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। यह निर्णय संविधान सभा ने लिया कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति हैं इसलिये स्वतंत्रता की मध्यरात्रि को उनका ही संभाषण होना चाहिए अतएव 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को राधाकृष्णन जी का ऐतिहासिक संबोधन हुआ जो ठीक बारह बजे तक चला और इसके बाद ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद की शपथ ली । स्वतंत्रता के बाद 1952 में वे देश के पहले उपराष्ट्रपति बने और  दस वर्ष तक इस पद पर रहे । 1962 में देश के राष्ट्रपति बने और 1967 तक रहे । उनका निधन 1975 में चैन्नई में हुआ ।
भारत में शिक्षक दिवस का आयोजन केवल एक पक्षीय नहीं है । यह विद्यार्थियों द्वारा अपने शिक्षक के प्रति सम्मान करने का दिवस तो है ही । साथ शिक्षक को भी सतत अध्ययन शील रहने और आदर्श जीवन का संदेश भी है । यूँ तो जीवन में प्रगति के लिये सतत सीखने समझने और अध्ययन की आवश्यकता होती है । पर शिक्षक  पर यह दोहरा दायित्व होता है । अध्ययन तो अपेक्षाकृत अधिक करना ही चाहिए । इसके साथ जीवन शैली और व्यवहार में भी आदर्शवाद आवश्यक है । विद्यार्थियों के मन में अनेक ऐसी जिज्ञासाएँ उठतीं हैं जो पाठ्यक्रम के बाहर से हो सकती हैं एक आदर्श शिक्षक वही है जो उनका उचित समाधान कर सके । शिक्षक में यह क्षमता सतत अध्ययन से ही आती है । राधाकृष्णन जी सतत अध्ययनशील रहे । विद्यार्थी जीवन में उन्होंने अध्ययन किया ही पर जब वे अध्यापक बने तब भी लेखन अध्ययन निरंतर रहा और अध्ययन तब भी न छूटा जब वे राष्ट्रपति रहे । शिक्षक दिवस पर शिक्षकों के लिये दूसरा संदेश शिक्षक के एक आदर्श व्यवहार और जीवन शैली जीने के लिये है । विद्यार्थी शिक्षक की शैली से प्रेरणा लेते हैं। एक आदर्श शिक्षक ही विद्यार्थी में आदर्श गुणों का विकास कर सकता है । यह बात अनेक बार डाक्टर राधाकृष्णन जी ने शिक्षक दिवस पर अपने संदेश में कही । उन्होंने जहाँ शिक्षकों से सतत अध्ययनशील रहने और जीवन की आदर्श शैली अपनाने का आव्हान किया था वहीं विद्यार्थियों से अपने विद्यार्थी जीवन में अपने नैसर्गिक गुणों का विकास करके भारत के श्रेष्ठ नागरिक बनने का आव्हान किया था । शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिये यह संदेश आज भी महत्वपूर्ण है ।

 
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