23 नवम्बर 1912 सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी क्राँतिकारी लेखक और पत्रकार सखाराम गणेश देउस्कर का निधन | The Voice TV

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23 नवम्बर 1912 सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी क्राँतिकारी लेखक और पत्रकार सखाराम गणेश देउस्कर का निधन

Date : 23-Nov-2024

स्वत्व जागरण और अंग्रेजों के षड्यंत्र के विरुद्ध निरंतर लेखन

भारत में पराधीनता की गहरी काली और लंबी रात के घोर अंधकार के बीच यदि भारतीय संस्कृति सजीव रही तो यह उन महान विभूतियों के कारण संभव हुआ जिन्होंने अपना पूरा जीवन और भविष्य समाजिक जागरण केलिये समर्पित कर दिया । सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार और लेखक सखाराम गणेश देउस्कर ऐसे व्यक्तित्व थे जिनकी एक पुस्तक "देश की बात" ने अंग्रेजी सत्ता की नींद ही उड़ा दी थी । 
ऐसे जीवन दानी सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास ‘करौं’ नामक गाँव में हुआ था । यह क्षेत्र अब झारखंड प्राँत में है । लेकिन जब देउस्कर जी का जन्म हुआ था तब यह बंगाल प्राँत का अंग था । देउस्कर जी के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिला अंतर्गत देउस गाँव के मूल निवासी थे । और अपने समय के सुप्रसिद्ध सेनापति बाजीराव पेशवा के राष्ट्र जागरण में सहभागी रहे हैं उन्ही संदर्भ में बंगाल आये और यहीं वस गये । इसी से उनके परिवार परंपरा की पहचान देउस गाँव के नाम से "देउस्कर" के रूप में बनी और यही उनका उपनाम बना । पिता गणेश देउस्कर वैदिक विद्वान थे लेकिन जब सखाराम पाँच वर्ष के थे तब माता का निधन हो गया । इनका पालन पोषण बुआ ने किया । पिता के संस्कार और बुआ की शिक्षा से सखाराम की रूचि बालवय में ही मराठी साहित्य, संस्कृत, भारतीय ग्रंथों और विशेषकर वेदों के अध्ययन में बढ़ गई थी । इसके साथ ही उन्होने बंगाली सीखी । एक प्रश्न उन्हे सदैव तंग करता था कि जब भारत की संस्कृति इतनी समृद्ध है तो देश परतंत्र क्यों हुआ । इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिये उनकी रुचि इतिहास पढ़ने में बढ़ी  । वे इतिहास का अध्ययन करते और उसकी विशेषताओं और चूक से अपने सहपाठियों को अवगत कराते । इसके साथ वै किशोर वय से ही समाज जागरण अभियान में भी सक्रिय हुये वे शिवाजी महाराज और पेशवाओं के संघर्ष जुड़ी छोटी छोटी कहानियाँ बनाकर सुनाने लगे । अपनी समाज सेवा और सामाजिक जागरण के चलते वे तिलक जी के संपर्क में आये और उन्होंने तिलक जी को राजनीति में अपना गुरु माना । आजीविका के लिये 1893 में शिक्षक बने । लेकिन शिक्षकीय कार्य  के साथ उनका लेखन और सामाजिक जागरण कार्य यथावत रहा । वे बच्चों को शिक्षण कार्य के साथ  स्वत्व और स्वाभिमान जागरण की कहानियाँ भी सुनाते । उनका लेखन बंगाली और मराठी भाषा में होता था । जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा । उनके लेखन के प्रमुख रूप से  तीन विषय होते थे । एक भारतीय संस्कृति की महत्ता, दूसरा स्वाभिमान युक्त जीवन के सूत्र और तीसरा विदेशी सत्ताओं द्वारा भारत का शोषण करने के संदर्भ। उनके लेखन और सामाजिक जागरण कार्य के चलते उन्हें ‘बंगाल का तिलक’ भी कहा जाने लगा ।
 1894 में हार्ड नामक एक नये मजिस्ट्रेट की नियुक्ति हुई । हार्ड को जनसमस्या से कोई मतलब न था वह अंग्रेजी सत्ता को मजबूत करने और भारतीयों से बसूली करने में बहुत सख्ती करता था। भारतीयों के साथ उसका व्यवहार  बहुत अपमानजनक और क्रूरता से भरा होता था । हार्ड के अत्याचार के विरुद्ध देउस्कर जी ने लेख लिखा जो कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘हितवादी’ नामक समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ । इससे चिढ़कर हार्ड ने उनको शिक्षक की नौकरी से निकाल दिया और गिरफ्तारी का आदेश दे दिया । 
देउस्कर जी बांग्ला के साथ हिंदी, संस्कृत और मराठी भाषा में भी सिद्धहस्त थे । उनके प्रयास ‘हितवादी’ का हिंदी संस्करण ‘हितवार्ता’ का प्रकाशन भी आरंभ हो गया । इन दोनों समाचारपत्रों के साथ उनकी रचनाएँ प्रदीप, साहित्य संहिता, बंग दर्शन, आर्यावर्त्त, वेद व्यास, प्रतिभा आदि पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होने लगीं । उनकी रचनाओं का उद्देश्य भारतीय समाज को अपने अतीत और वर्तमान का ज्ञान कराकर स्वत्व जागरण करना होता था । लेखन कार्य के साथ देउस्कर जी ने समान विचार के बुद्धिजीवियों से संपर्क कर कलकत्ता में ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ नामक एक संस्था का गठन किया । इसकी अध्यक्षता उन्होंने स्वीकार की । इस संस्था द्वारा समाज जीवन में स्वभाषा और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का अभियान चलाया जाने लगा । इसके साथ देउस्करजी ने बंगाली भाषा में एक ग्रन्थ ‘देशेर कथा’ की रचना की । इस ग्रंथ का मूल भाव भारत की पराधीनता का दर्द था जिसकी बंगाल के क्राँतिकारी आँदोलन में भूमिका महत्वपूर्ण रही । ‘स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग पहली बार इसी ग्रंथ ‘देशेर कथा’ में हुआ जो स्वतंत्रता आँदोलन का मंत्र बना । श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद "देश की बात" नाम से किया । यह ग्रंथ जब्त हुआ और देउस्कर जी गिरफ्तार भी हुये पर इससे न उनका मनोबल गिरा और न लेखन रुका । 
 1905 में जब अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया तब इसका विरोध करने केलिये जो समूह सबसे पहले सामने आया उनमें सबसे प्रमुख देउस्कर जी प्रमुख थे । इस आँदोलन में भी गिरफ्तार हुये । रिहाई के बाद उनका लेखन कार्य पुनः प्रारंभ किया । वर्ष 1910 में देउस्कर अपने गाँव लौट आए और वहीं शिक्षण कार्य आरंभ किया । इसके साथ उन्होंने भारतीय परंपराओं पर प्रवचन देना भी आरंभ किये । पर वे राष्ट्र जागरण के अपने संकल्प को पूरा न कर सके । गाँव लौटे उन्हे मुश्किल से दो वर्ष ही हुये थे कि मात्र 43 वर्ष की आयु में 23 नवंबर 1912 को उनका निधन हो गया । वे भले अल्पायु में संसार से विदा हो गये हों पर उनका साहित्य बंगाली और मराठी भाषी क्षेत्रों में मानों मार्ग दर्शन का मूल मंत्र बना रहा ।  उनकी रचनाएँ स्वाधीनता संग्राम सेनानियों केलिये ही नहीं स्वाधीनता के बाद भी समाज जागरण का एक आदर्श रहीं। अंग्रेजी काल में उनकी कुछ रचनाओं पर प्रतिबंध लगा रहा जो  स्वाधीनता के बाद ही हट सका ।

 

 
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