शिक्षाप्रद कहानी:- नरेश का न्याय Date : 23-Nov-2024 विक्रमीय दशवीं शताब्दी की बात है | एक दिन कश्मीर नरेश महाराज यशस्करदेव अपने कक्ष में बैठकर किसी गंभीर विषय का चिंतन कर रहे थे कि उनके एक अधिकारी ने सूचना दी- “महाराज! कोई व्यक्ति राजद्वार पर प्राणत्याग करने के लिए प्रस्तुत है |” महाराज यह सुनकर विस्मित हो गये | क्योकि उनके राज्य में प्रजा सुखी, संपन्न और स्वस्थ थी| जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्यपरक आचरण होता था | महाराज ने तत्क्षण उस व्यक्ति को सभा भवन में बुलवाया और उससे पूछा-“किसी दस्यु अथवा अनार्य ने तुम्हारे यज्ञ कर्म में विघ्न तो नहीं किया है? ऐसा तो नहीं कि किसी राजकर्मचारी ने अनजान में तुम्हारे प्रति अनागरिकता का बर्ताव किया हो ?” “भगवती वितस्ता की पवित्र जलधारा से ललित आपके विशाल राज्य में मुझे किसी से भय नहीं है | मेरे साथ राज्य के न्यायाधीशों ने अन्याय का व्यवहार किया है | मैंने उनसे सबकुछ सत्य कहाँ, पर उन्होंने मेरे धनी शत्रु पक्ष में ही निर्णय दिया | यही मेरे प्राण त्याग का कारण है |” “महाराज! मैं पहले आपकी ही राजधानी में रहता था | मेरे पास अपार संपत्ति थी | पर अलक्ष्मी के प्रकोप से दरिद्र होकर उसे बेच दिया | घर तक बेच डाला | पत्नी की जीविका के लिए मकान के पास कूप छोड़ दिया था, गर्मी में उसकी मुंडेर पर बैठकर माली फूल बेचा करते थे तथा कुछ पैसे मेरी पत्नी को भी मिल जाया करते थे | मैं रुपया कमाने विदेश चला गया, तो मकान खरीदने वाले ने मेरी पत्नी को बलपूर्वक कूप से हटा दिया | वह मजदूरी करने लगी | लौटने पर मैंने न्यायालय का दरवाजा ख़ट- खटाया, किन्तु न्यायालय ने मेरे सत्य की उपेक्षा कर दी |” नागरिक ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए बताया | जब न्यायाधीश को अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए कहा गया तो वे कहने लगे- “हमने सोच-समझकर निर्णय किया है महाराज” सभा भवन में वहाँ के श्रेष्ठ नागरिक विराजमान थे | जिसने मकान खरीदा था वह भी था | महाराज धर्म सिंहासन पर विराजमान थे | नागरिक मूल्यवान अँगूठी पहने हुए थे | महाराज कौतूहल से उनकी अंगूठियाँ हाथ में लेकर परिक्षण कर रहे थे | मकान खरीदने वाले व्यक्ति की अँगूठी हाथ में आटे ही महाराज लोगों को बैठे रहने का आदेश देकर भवन से बाहर आ गये | उस मुद्रिका को सेठ के घर भेजकर महाराज ने सेवक से उसके बदले में वह वही मंगवाई, जिसमें मकान के विक्रय पत्र का विवरण लिखा था | महाराज ने बही आने पर उसको पढ़ा और फिर अपने धर्म सिंहासन पर बैठ गये | उन्होंने न्यायाधीश से कहा- “विक्रय पत्र के अधिकरण शुल्क में सेठ ने राजलेखक को एक हजार मुद्राएँ दी हैं | यह बात समझ में नहीं आती कि मुझे ऐसा लगता है की लेखक ने उत्कोच (रिश्वत ) पाकर ‘सोपान कूप-रहित मकान’ के स्थान पर ‘सोपान कुप-सहित मकान’ लिखा दिया है | “ सभा में सन्नटा छा गया | महाराज यशस्करदेव के आदेश से न्यायालय के लेखक को सभा भवन में बुलाया गया | लेखक उपस्थित हुआ | वह लज्जित था | “ महाराज! न्याय का खून मैंने किया है| ‘रहित ‘ के स्थान पर ‘सहित’ मैंने ही लिखा है | मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ |” उसने प्रमाणित किया | ‘’सोपान, कूप, मकान सब कुछ नागरिक का है | “ महाराज ने न्याय को धोखा देने के अपराध में मकान खरीदने वाले को आजीवन देश निर्वासन का दंड दिया और राज लेखक को भी उत्कोच के लिए दण्डित किया | नागरिक के सत्याग्रह ने विजय प्राप्त की | न्याय ने सत्य की पहचान की |