प्रभु ईसा अपने शिष्यों के साथ धर्म-प्रचार के लिए भ्रमण कर रहे थे । रास्ते में रेगिस्तान पड़ा। कोई भी घर न दिखाई देने पर भोजन की समस्या उत्पन्न हुई। ईसा बोले, "जो कुछ तुम लोगों के पास है, उसे इकट्ठा कर लो और सब मिलकर खा लो।" शिष्यों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटियाँ थीं और सब्जी के मात्र दो टुकड़े निकले। शिष्यों ने उसे भरपेट खाया और जो भूखे भिखारी उधर से निकले, उन्हें भी उसमें से कुछ हिस्सा दिया। वे सारे उससे तृप्त हो गये।
तब सोलोमन नामक एक शिष्य ने पूछा, "गुरुवर! इतनी कम सामग्री में लोगों की तृप्ति का रहस्य क्या है ?" ईसा ने कहा, "शिष्यो ! धर्मात्मा वही है, जो स्वयं की नहीं, सबकी सोचता है। अपनी बचत सबके काम आये, इसी विचार से तुम्हारी पाँच रोटियाँ और थोड़ी-सी तरकारी अक्षय अन्नपूर्णा हो गयी। जो जोड़ते रहेंगे, वे हमेशा भूखे रहेंगे। जिन्होंने देना सीखा है, उनके लिए तृप्ति के साधन आप ही आप जुट जाते हैं।