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किसी भी व्यक्ति की वास्तविक स्थिति का ज्ञान उसके आचरण से होता हैं।

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भारतीय नृत्य कला का इतिहास

Date : 24-Sep-2022
भारत में नृत्य की कला हडप्पा संस्कृति से प्रचलित मानी जाती है। हडप्पा संस्कृति की खुदाई के वक्त नृत्य करती महिला की मूर्ति के कुछ अवशेष मिले है, साबित होता है। हजारो साल पहले भी नृत्य कला प्रचलित होगी इनका वर्णन वेदों में भी मिलता है। जिस से यह मालूम पड़ता है, की प्राचीन काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस खोज के कुछ अवशेषों से यह मालूम पड़ा की मानव वन में स्वतंत्र घूमता था। मानव ने धीरे धीरे सामूहिक रहना और पानी के स्त्रोत एवं शिकार करने का आरंभ किया उस समय में उनकी मुख्य समस्या भोजन थी। भोजन मिलने के बाद खुश होकर उछल कूद करने लगते थे, और चारो दिशा में नृत्य किया करते थे। उस समय मानव जब प्रकृति विपत्ति से भयभीत हो जाते थे। उन्हों आपत्ति ओ से बचने के लिए वे किसी अद्रश्य शक्ति अनुमान किया होगा, और उन्हें खुश करने के लिए बहुत सारे  उपाय किये होंगे। जिनमे से एक नृत्य भी था। मानव ने देव देवता को खुश करने के ली नृत्य को अपना मुख्य साधन बनाया था। इस का प्रमाण अजंता इलोरा की गुफाओ में एवं हडप्पा और मोहेंजोदड़ो की खुदाई के समय मिला है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का ग्रंथ सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है, एवं उन्हें पंचवेद भी कहा गया है। इस ग्रंथ में सभी तरह के भारतीय शास्त्री नृत्य है।
भारतीय नृत्य कला का अर्थ-
भारतीय नृत्य को दो विभागों में विभाजित किया जाता है। पहला है शास्त्रीय नृत्य और दूसरा है, लोकनृत्य भारत में अलग अलग राज्य होने के कारन शास्त्रीय नृत्य भी अलग अलग तरह के होते  है शास्त्रीय नृत्य में नियम होते है। जिनका पालन नृतक को करना होता है
लोक नृत्य शास्त्रीय नृत्य से  एकदम अलग है। लोक नृत्य में नियम नही होते है, और यह नृत्य स्थानीय है। भारतीय लोक नृत्य में कई अलग अलग प्रकार के स्वरूप एवं ताल है। यह नृत्य धर्म व्यवसाय और जाती के आधार पर अलग होते है। लोक नृत्य के प्रकार निम्रलिखित है
भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला का इतिहास-
भारतीय शास्त्री नृत्य प्राचीन काल से ही प्राचीन कला एवं लोक प्रिय कला रही है। हडप्पा और मोहेंजोदड़ो की खुदाई में, शिलालेख, ऐतिहासिक वर्णन, राजाओं के वंश की परंपरा एवं कलाकारों, साहित्यक स्त्रोत मूर्ती कला, चित्रकला में शास्त्रीय नृत्य कला उपलब्ध होती है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य प्राचीन कला पर आधारित नृत्य है। शास्त्रीय नृत्य कला नृत्य सिखने वाले को परंपरा से जोडती है। अधिक शास्त्रीय नृत्य की उत्पति मंदिर में से हुई है। शास्त्रीय नृत्य का मुख्य उदेश भक्ति और आराधना था, इसके बाद इस नृत्य को दरबार में मनोरंजन के लिए उपयोग किया जाने लगा था। शास्त्रीय नृत्य को 18वि सदी से लेकर 19 सदी तक  ब्रिटिश सरकार  इस संस्कृति को रोकने की मांग की और 1892 की साल में एक नृत्य विरोध आंदोलन शरु किया  लेकिन शास्त्रीय नृत्य कला को स्थान नही मला था। 20वि सदी में कई लोगो ने फिर से प्रयास किया और आखिर में शास्त्रीय नृत्य कला को उचित स्थान मिल पाया एवं मंदिर नृत्य की परंपरा को फिर से प्रसिद्धी मिल थी। हर एक शास्त्रीय नृत्य कला की उत्पति का स्थान विभिन है लेकिन उनकी जड़ एक ही है।भारतीय शास्त्रीय नृत्य हिंदी धर्म के ग्रंथ के सिद्धांत पर आधारित है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य क्या है? 
शास्त्रीय नृत्य पौराणिक कहानी से जुदा हुआ ।नृत्य है। शास्त्रीय नृत्य में सख्ती से नियमो का पालन होता है। शास्त्रीय नृत्य कला में नर्तक अलग अलग भाव के माध्यम से कथा को प्रस्तुत करता है। किसी एक विशेष स्थान का शास्त्रीय नृत्य प्रतिनिधित्व करता है,जिससे वह सबंध रखता है। शास्त्रीय नृत्य के तिन प्रमुख घटक है। नाट्य, नृत्ता और नृत्य है।
नाट्य : नृत्य का नाटिका तत्व पर अलोक किया जाता है, कथकली नृत्य नाटक के अतिरिक्त आज ज्यादातर नृत्य रूपों में इस घटक को व्यवहार में कम लाया जाता है।
नृत्य : नर्तक के हाथो के हावभाव और पेरो की स्थिति के माध्यम से मनोदशा का चित्र किया जाता है।
नृत्ता : एक शुद्ध नृत्य है,जहाँ शरीर की गतिविधि किसी भी हव भाव वर्णन नही करती है, और नहीं किसी अर्थ को प्रतिपादित करती है।
 भारतीय शास्त्रीय नृत्य कला के प्रकार-
भारत में शास्त्रीय नृत्य के 8 प्रकार है। इन से अधिक भी हो सकते है। लेकिन फ़िलहाल सिफ 8 भारतीय शास्त्रीय नृत्य को मान्यता मिली है। भरतनाट्यम, कथक, कथकली, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम, ओडिसी,सत्त्रिया, मणिपुरी यह भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य है। विद्वान् द्रविड़ विलियम्स भारत के 8 प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य की सूचि में छऊ, यक्षगान और भागवत मेले को भी शामिल किया गया है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य पूरी दुनिया में प्रख्यात है
भरतनाट्य शास्त्रीय नृत्य कला-
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में भरतनाट्य शास्त्रीय नृत्य कला की जानकारी प्राप्त होती है। भरतनाट्य नृत्य कला शैली का विकास तमिलनाडू राज्य में हुआ है। इस का नाम करण भरतमुनि एवं नाट्य शब्द से मिल कर बना है। तमिल में नाट्य शब्द का अर्थ नृत्य होता है। भरतनाट्य तमिलनाडू में तंजोर जिले के एक हिन्दू मंदिर उत्पतित हुआ था, एवं इस देवदासी ने विकसित किया था। यह नृत्य मुख्य रूप से महिला द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। नन्दिकेश्वर द्वारा रचित भरतनाट्य नृत्य में शरीर की गतिविधि के व्यकरण और तकनिकी अध्ययन के लिए ग्रंथिय का एक मुख्य स्त्रोत अभिनय दर्पण है। भरतनाट्य को एकहरी कहते है, क्योकि यह नृत्य दौरान एक ही नर्तकी ऐनक भूमिकाए प्रस्तुत करती है।
देवदासियो द्वारा भरतनाट्य नृत्य की शैली कोआज भी जीवित रखा गया है। देवदासी का अर्थ वास्तव में युवती होता है ,वह युवती जो अपने माता पिता द्वारा मंदिर को दान में दी गई हो एवं उनका विवाह देवताओ से होता है।
भरतनाट्य को भारत के अन्य शास्र्तीय नृत्य की जननी कहा जाता है। भरतनाट्य के शब्द का अर्थ भा: भाव  यानि भावना/अभिव्यक्ति  रा का अर्थ राग यानि धुन ता का अर्थ ताल एवं नाट्यम का अर्थ नृत्य/नाटक होता है। भरतनाट्य नृत्य किये जाने वाले परिवार को नटटुवन के नाम से पसिद्ध है।
 भरतनाट्यम की महत्वपूर्ण विशेषता-
अलारिपू : इस का अर्थ यह होता फुलोकी सजावट । इसमें झांझ और तबेला का उपयोग किया उपयोग किया जाता है। यह प्रदर्शन का आह्नाकारी भाग है। जिनमे आधारभूत नृत्यु मुद्राए शामिल होती है। अलारिपू में कविता का प्रयोग भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
जाती स्वरम : इस के कला में ज्ञान के बारे में बताया जाता है। जिनमें अलग अलग प्रकार की मुद्राए और हरकतों को शामिल किया गया। मालिक और नर्तक कला से सबंधित ज्ञान भी पाया जाता है। इस से कर्नाटक संगीत के किसी राग संगीतात्मक स्वरों में पेश किया जाता है। इस में साहित्य या शब्द नही होती है। लेकिन अडपू की रचना की जाती है। जातीस्वरम में शुद्ध नृत्य क्रम नृत्य होते है। यह भरतनाट्यम नृत्य  अभियास मुलभुत प्रकार है।
शब्दम : यह तत्व बहुत ही आकर्षित एवं सुंदर है। यह संगीत में अभिनय को समाविष्ट करने वाला नाटकीय तत्व है। इस में नृत्य रस को लावण्या के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। शब्दम का प्रयोग भगावान की आराधना करने के लिए किया जाता है।
वर्णन : इस में कथा को भाव, ताल एवं राग के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। यह एक घटक होने के साथ ही चुनौतीपूर्ण अंश है, इस घटक को रंगपटल की बहुत ही महत्वपूर्ण रचना मानी गई है।
पद्म :  इस घटक में प्रेम और बहुधा दैविक पुष्ठभूमि पर आधारित है। इस अभिनय पर नर्तक की महारथा को प्रस्तुत किया जाता है। इस में सप्त पंक्तियुक्त की आराधना होती है।
ज्वाली : यह अभिनय प्रेम पर आधारित होता है। इसमें तेज गति वाले संगीत के प्रेम कविता को प्रदशित किया जाता है।
तिल्लना : यह सबसे आखरी घटक होता है, इस घटक के द्वारा समापन किया जाता है। इस घटक के माध्यम से महिला की सुन्दरता को चित्रित किया जाता है। यह बहुत ही आकर्षित अंग होता है। यह एक गुजायमान नृत्य है। जो साहित्य एवं संगीत के कुछ अक्षरों के साथ प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रस्तुती का अंत भगवान् के आशीर्वाद मांगने के साथ ही होता है।
कथकली नृत्य कला-
कथकली नृत्य दक्षिण भारत के केरल से सबंधित नृत्य है। यह शास्त्रीय नृत्य का मुख्य नृत्य माना जाता है।कथकली शब्द अर्थ है, “नृत्य/नाटक होता है। कथकली शब्द दो शब्द से बना है। कथ का अर्थ कहानी होता है एवं कलि का अर्थ प्र्दशन एवं कला होता है।कथकली अपने शृंगार और वेशभूषा के कारण ही एक अलग पहचान बनी है। इस नृत्य में ज्यादातर महाभारत, रामायण और पुराणिक कथाओ को नृत्य के र्रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कथकली नृत्य समान्यतोर पर पुरुषो द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। महिला का पात्र भी पुरुष महिला की वेशभूषा को पहन कर नृत्य करते है। लेकिन कुछ सालो से महिलाओ ने कथकली नृत्य करना आरंभ किया है।
कथकली में कर्णाटक के रगों का प्रयोग  होता है। कथकली एक द्द्रश्यत्माक कला है। जिनका शृंगार एवं वेशभूषा नाट्य शास्त्र के नियम पर आधारित होता है। नर्तक को कुछ स्पष्ट रूप से परिभाषित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है, जैसे की पच्चा यानि हराद, कुत्ती काठी यानि चाक़ू ताढ़ी (थोड़ी) का अर्थ तिन रूप में -लाल सफेद कलि, करी या मिनुक्क का अर्थ कलि पोलिश होता है। कलाकारों के चारे को कुछ इस प्रकार के रंग लगाये जाते की वह मुखोटे का आभास देता है, होठो पलकों एवं मुह को उभार कर दिखाया जाता है। कथकली नृत्य मुख्यत व्याख्यात्मक होता है। इसके प्र्स्तुतिकर्ण में नर्तक को ज्यादातर सात्विक, राजसिक और तामसिक वर्गों में विभाजित किया गया है। जो निम्रलिखित है।
सात्विक : इसमें चरित्र कुलीन, वीरोचित, दानशील और परिष्कृत होते है। प्च्चा में हरा रंग मुख्य होता है, एवं सभी नर्तक मुकुट धारण करते है। राम एवं कृष्ण के पात्र मोर पंख से अंकित मुकुट पहनते है।
राजसिक : इस वर्ग में कई प्रकार के खलनायक (असुर) पात्र होते है। यह राजसिक के अधीन आते है। कई बार तो रावण, कनंस और श्शुपाल जैसे असुर और विद्वान् भी होते है।
ताढी: के अंदर अलग अलग तरह के रंग आते है। जैसे की चुवत्रा ताढ़ीका अर्थ लाल दाढ़ी होता है, वेल्लताढ़ी का अर्थ सफेद दाढ़ी होता है, एवं करुत्ता ताढ़ीका अर्थ कलि दाढ़ी होता है।
कथक नृत्य कला -
कथक नृत्य उत्तर भारत का बहुत ही प्रसिद्ध नृत्य माना जाता है। मुग़ल शासन युग में कथक बहुत ही प्रसिद्ध नृत्य हुआ करता था। हिंदी फिम्लो के नृत्य ज्यादातर इस नृत्य शैली पर आधारित होते है। क्स्थस्क कस नृत्य रूप 100 से अधिक घुंघरू को पहर कर तालबद्ध पचाप विहंगम चक्कर द्वारा पहचान जाता है। कथक में हिन्दू धार्मिक कथाओ के अलावा पर्श्याँ और उर्दू कविता से नाट्य प्रस्तुत होता है। कथक का जन्म उतर में हुआ था लेकिन पर्शयन एवं मुस्लिम प्रभाव से यह कला मंदिर की रित से दरबारी मनोरंजन तक पहुच गई थी।
कथक शब्द की उत्पति कथा से हुई है, जिसका अर्थ कहानी होता है। ब्रजभूमि की रासलीला से उत्पंत उत्तर प्रदेश की परंपरागत विद्या है।इस में दंतकथाओं, पौराणिक कथाओं एवं महाकाव्यों की उपकथाओ को विस्तृत आधार पर कहानी का विवरण किया जाता है। कथक की शैली का जन्म ब्राह्मण द्वारा हिंडो की परंपरा की पुन गणना में निहित है। जिन्हें कथक कहा जाता है।
कथक नृत्य कला के प्रसिद्ध घराने
इस नृत्य की परंपरा की तिन मुख्य घराने है। यह तिन घराने उतर भारत के शेहरो के नाम पर नाम दिया गया है। इनमे से तिन क्षेत्र राजाओं के संरक्षण में विस्तृत हुआ है। लखनऊ, जयपुर, बनारस, रायगढ़ प्रसिद्ध है।
लखनऊ घराना : 19वि सदी में अवध के अंतिम नवाब वाजिद आली शाह के रक्षा के तहत भारतीय नृत्य कला के अतिरिक्त कथक का स्वर्णिम युग देख्नने को मिलता है। नवाब ने लखनऊ घराने को व्यंजक और भाव पर उसके प्रभावशाली रूप से निर्माण किया गया है। इस घराने पर मुग़ल प्रभाव के कारण नृत्य की शृंगार के साथ ही अभिनय पक्ष पर विशेष ध्यान दिया है।
जयपुर घराना  : यह घराना अपनी लाय्त्मका प्रणाली के ली प्रसिद्ध है। जयपुर घराने पेरो की तैयारी संग संचालन एवं नृत्य की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
बनारस घराना : बनारसी घराने में प्राचीन शैली पर ज्यादा ध्यान दिया है। यह माहिती प्रसाद के संरक्षण में विकसित की गई है। इस घराने के प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी एवं उनकी पुत्री जय्न्तिमाला ने इसकी छवि को बनाये रखा है।
रायगढ़ घराना : अन्य सभी घराने नया माना जाता है। इस घराने का निर्माण रायगढ़ के रजा चक्रधर सिंह के आश्रय से पंडित जयलाल, पंडित सीताराम, हनुमान प्रसाद आदि के द्वारा किया गया है।
 कुचिपुड़ी नृत्य कला-
आन्ध्र प्रदेश का सुप्रसिद्ध नृत्य कुचिपुड़ी है। यह नृत्य पुरे दक्षिण भारत में प्रख्यात है। कुचिपुड़ी का जन्म आधुनिक आंध्रप्रदेश के कृष्ण जुले में हुआ था। कुचिपुड़ी नर्तक पुरुष ही होते है। प्रस्तुती के समय में पुरुष ही स्त्री का रूप धारण करता है। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहे जाते थे।
कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का प्रथम समूह 1502 वर्ष ए. डी. का निर्माण किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे, तथा उन्होंने कार्यक्रम में स्त्रियों को प्रवेश नही है।
लेकिन अब ऐसा नही है ,इस नृत्य को महिला भी करती है।लक्ष्मीनारायण शास्त्री इस नृत्य के अभिनय या अभिव्यक्ति के महान कलाकार हैं। उनके शिष्य वेम्पति चिन्ना सत्यम ने भी इस परंपरा के लिए अच्छा कार्य किया है।
कुचिपुड़ी में पानी भरे मटके को सर पर रखकर पीतल की थाली में नृत्य करना बेहद लोकप्रिय है। यह आधुनिक भारत के सबसे लोकप्रिय नृत्य नाटिका के रूप में जाना नाटक है, जिसे भामाकल्पम कहते हैं।
अन्य लोकप्रिय कुचिपुड़ी नाटकों उषा परिणयम, प्रहलाद चरित्रम, और गोला कलापम हैं। इसमें हर एक नर्तक के प्रवेश के लिए एक गीत होता है, जिसके द्वारा वहस्वयं का परिचय कराता है। यह परंपरा आज भी जीवित है, और कुचिपुड़ी गांव में समाज के सदस्य प्रतिवर्ष इसे प्रस्तुत करते हैं। कुचिपुड़ी नृत्य की एक विशेषता है, जिसे “तार्गामम“ कहा जाता है, जिसमें नर्तक कास्य की थाली में खड़ा होकर नृत्य करता है
मोहिनीअट्टम नृत्य कला-
मोहिनीअट्टम शब्द मोहिनी से लिया गया है,ऐसा कहा जाता है। की मोहिनी शब्द हिन्दू धर्म के देवता विष्णु के अवतार का एक बहुत ही प्रसिद्ध नाम है। भगवान् विष्णु ने मोहिनी रूप को तब धारण किया था जब असुर अमृत पर अधिकार कर लिया था मोहिनी का रूप धान करके विष्णुदेव ने असुरो से अमृत लेकर देवता को देदिया था।
एक बार भगवन शिव राक्षस भस्मासुर की तपस्या से प्रसंत हुए उन्हों ने राक्षस को वरदान दिया की वे जिस किसी पर भी हाथ रखेगा वे भस्म हो जाएगा उस असुर ने इस वरदान का इस्तेपाम भगवान् शिव को भस्म करने का प्रयास किया तब भगवान् विष्णुदेव ने मोहिनी का रूप धारण करके मोहक नृत्य से भस्मसुर को खत्म कर दिया था।
मोहिनीअट्टम नृत्य दक्षिण भारत के केरला राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध है। मोहिनी शब्द का अर्थ मन को मोहने वाला होता है। मोहिनी का अर्थ जादूगरनी का नृत्य भी होता है। यह नृत्य कथकली से अधिक प्राचीन माना जाता है। इस नृत्य में भरतनाट्यम और कथकली दोनों तत्व शामिल होते है।
मोहिनीअट्टम महिला नर्तकियों द्वारा प्रस्तुत केरल का एकल नृत्य रूप है। मोहिनीअट्टम नृत्य की उत्पत्ति केरल के मंदिरों में हुई। भरतनाट्यम, ओडिसी के समान, मोहिनीअट्टम नृत्य की उत्पत्ति मंदिरों में देवदासियों के द्वारा हुई ।
ओडिसी नृत्य कला-
ओडिसी शास्त्रीय नृत्य सबसे प्राचीन नृत्य में से एक माना जाता है। यह ओड़िसा राज्य का बहुत प्रसिद्धि नृत्य है। यह नृत्य प्राचीनकाल में स्त्रियों द्वारा किआ गया है। इस नृत्य का जन्म देवदासी के नृत्य से हुआ माना जाता है। यह नृत्य हिन्दू मंदिर में हुआ था। ब्रह्मेश्वर के शिलालेख में ओड़िसा के नृत्य का वर्णन किया गया है। ओडिसी नृत्य के ऐतिहासिक प्रमाण कोर्णाक, पूरी एवं भवनेश्वर मंदिर जैसे प्राचीन स्थल पर पाए गए है। किसी अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप के समान ओड़िसी के दो प्रमुख पक्ष हैं: नृत्य या गैर निरुपण नृत्य, जहां अंतरिक्ष और समय में शरीर की भंगिमाओं का उपयोग करते हुए सजावटी पैटर्न सृजित किए जाते हैं।
इस नृत्य में  त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है, शरीर को तीन भागों में बांटना, सिर, शरीर और पैर; मुद्राएं और अभिव्यक्तियां भरत नाट्यम के समान होती है। इस नृत्य में विष्णु भगवान् के 8 वे अवतार के बारे जानकारी दी जाती है। इस में भगवान् जगन्नाथ की कथा कही जाती है।
महेश्वर महापात्रा द्वारा रचित पंद्रहवीं सदी के अभिनय पाठ चंद्रिका, ओडिसी नृत्य की विशेषताओं को उल्लिखित करता है। ओडिसी नृत्य में एक उल्लेखनीय मूर्तिकला की गुणवत्ता पाई जाती है।
मणिपुरी नृत्य कला-
मानपुर नृत्य बहुत ही प्राचीन परंपरा है। यह नृत्य मणिपुर राज्य का शास्त्रीय नृत्य है। इस नृत्य की उत्पति पाणीपुर में हुई है। इस लिए इसे मणिपुरी नृत्य कहा जाता है। मणिपुरी नृत्य जगोई के नाम से भी जाना जाता है। मणिपुरी नृत्य मुख्य रूपसे राधा कृष्ण के प्रेम पर आधारित है।इस नृत्य में भगवन विष्णु की जवान कथा को प्रस्तुत किया जाता है।
इस नृत्य को कोमल एवं शक्तिशाली रूप में व्यक्त किया जाता है। मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्य से अलग है, क्योकि इस नृत्य रूप में शरीर की गति धीमी होती है। जब यह नृत्य नर्तक द्वारा किया जाता है। तब वे तेजी से नही किन्तु कोमलता के साथ अपने पेरो को निचे जमीन पर रखते है।इसमें प्रयुक्त वाद्य यंत्र करताल, मजीरा और दोमुखी ढोल या मणिपुरी मृदंग होते हैं।
मणिपुरी नृत्य मंदिर प्रांगणों में पूरी रात चलने वाला नृत्य होता है। संकीर्तन कान छेदने, विवाह समारोह, बच्चे के जन्म के समय या बच्चे को पहली बार भोजन देने, के अवसरों पर किया जाता है। मणिपुरी नृत्य के गुरुओं ने अपने स्वयं के ताल को विकसित करके इसके संगीत को और समृद्ध और आकर्षक बनाया है।
लोकप्रिय धारणा यह है, कि कृष्ण अपनी प्रिय राधा के साथ मणिपुरी नृत्य के प्रवर्तक थे। मणिपुरी नर्तक कढ़ाई वाले घाघरा, हल्के मलमल के कपड़े, सिर पर सफेद घूंघट और पारंपरिक मणिपुरी गहने पहनकर इस नृत्य को करते हैं।
सत्त्रिय नृत्य कला-
यह नृत्य असम का एक शास्त्रीय नृत्य है, इस नृत्य का निर्माण महान संत श्रीमंत शंकरदेव थे। यह नृत्य असम के वैष्णव मठो में होता था, इस लिए इस नृत्य को स्त्रोत के नाम से जाना जाता है। पहले यह नृत्य पुरुष ही करते थे लेकिन अब यह नृत्य महिला नर्तकी द्वारा भी किया जाता है। सत्त्रिय नृत्य को भारत के शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता मिल है।सत्त्रिय शब्द का अर्थ सत्तर शब्द स्तर से लिया गया है, जिसका अर्थ मठ और नृत्य का अर्थ है, तरीका।
 
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