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'जल'वायु की आग, भारत और धुआं-धुआं दुनिया

Date : 08-Nov-2022

इस समय मिस्र के शर्म-अल-शेख में संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों पर चर्चा कर रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने संसार को चेताया है। उनके आगाह करने में भविष्य की पीड़ा है। वो जब यह कहते हैं- जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया नरक के हाइवे और पैर एक्सेलरेटर पर हैं, तो सहसा यकीन नहीं होता पर जिस्म थर्रा जाता है। क्योंकि इस पर अब तक के अध्ययन और निष्कर्ष भयावह हैं। उन्होंने कहा-अपनी जिंदगी की जंग हम तेजी से हार रहे हैं। हमारे पास यह आखिरी मौका है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए इस संकट से बचा सकें। अब कोई विकल्प शेष नहीं है। या तो सहयोग करें या नरक में जलें।

अब यह साफ हो चुका है कि दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देश चीन और अमेरिका हैं। उन्होंने इस दोनों देशों से कहा है कि वे उत्सर्जन में कमी लाएं और मिलकर मानवता को नष्ट होने से बचाएं। हम जलवायु के लिए एकजुट होकर समझौता करें और एक-दूसरे को बचाएं, वर्ना एक साथ आत्मविनाश के रास्ते पर तो बढ़ ही चुके हैं। उन्होंने मनुष्यता की रक्षा के लिए सभी देशों से अपील की है कि किसी भी तरह से 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल किया जाए। हर हाल में दुनिया को 2040 तक कोयला के इस्तेमाल से मुक्त किया जाए। दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब देशों के बीच एक समझौता हो। गुटेरस की अपील से इस सम्मेलन के मेजबान मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतेह अल सीसी इत्तेफाक करते हैं। उन्होंने कहा है- जलवायु परिवर्तन बिना मानवीय प्रयासों के रुकने वाला नहीं। दुनिया के पास अब बहुत कम वक्त बचा है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु प्रमुख सिमोन स्टील ने दुनियाभर के कई बड़े देशों के नेताओं के नहीं आने पर निराशा जताई है। उन्होंने कहा कि ऐसे रवैये से तो समस्या टलने वाली नहीं है।

इस संबंध में आंकड़ों पर गौर करना होगा। महत्वपूर्ण है कि दुनिया को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से गर्म कर तबाही की तरफ ले जाने वालों में 15 गीगा टन के साथ सबसे ऊपर चीन है। वह अकेला भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ के 27 देशों से ज्यादा उत्सर्जन करता है। 3.5 गीगा टन के साथ भारत तीसरे स्थान पर है। हालांकि, उत्सर्जन को प्रति व्यक्ति के हिसाब से आंका जाए तो भारत वैश्विक औसत 6.3 टन प्रति व्यक्ति के औसत से आधे से भी कम 2.4 टन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कर रहा है। अमेरिका 15 टन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के साथ सबसे ऊपर है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टालिना जॉर्जियेवा मानती हैं कि दुनिया फिलहाल कार्बन क्रेडिट व्यवस्था से लक्ष्यों से काफी पीछे है। 2030 तक प्रति टन कार्बन की कीमत कम से कम 75 डॉलर होनी चाहिए। फिलहाल यह 2 डॉलर प्रति टन है।

इस हालात पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की इमिशन गैप रिपोर्ट कहती है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन मौजूदा स्तर रहा तो सदी के अंत में धरती का तापमान 2.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा। जीवन बचाए रखने के लिए इसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए। अब यहां पेरिस समझौता को जानना जरूरी है। यह जलवायु परिवर्तन के विषय पर कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता है। इसे 12 दिसंबर, 2015 को पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 196 देशों और संगठनों ने स्वीकार किया था। मगर हालात जस के तस हैं। एक अध्ययन में साफ हुआ है कि मौजूदा सूरत-ए-हाल के लिए अमीर देश ज्यादा जवाबदेह हैं। हाल ही में आक्सफैम ने ‘कार्बन बिलियनायर: द इन्वेस्टमेंट इमीशन आफ द वर्ल्ड्स रिचेस्ट पीपुल’ रिपोर्ट में दुनिया के सर्वाधिक अमीर लोगों के निवेश से होने वाले उत्सर्जन का आकलन किया है। आक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नीतियां बनाते समय दुनिया में हो रहे कुल उत्सर्जन में अमीरों की भूमिका पर बहुत कम ही चर्चा होती है। इसे बदलना होगा। इन अरबपतियों ने ऐसी कंपनियों में निवेश किया हुआ है, जो बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदार हैं।

आक्सफैम इंटरनेशनल के जलवायु परिवर्तन प्रमुख नेफकोट डाबी ने कहा है- ‘इन अमीरों को छिपे रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सरकारों को इन अमीरों के निवेश से होने वाले उत्सर्जन के आंकड़े छापने चाहिए और निवेशकों एवं कंपनियों पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का नीतिगत दबाव बनाना चाहिए। प्रदूषण का कारण बनने वाले इनके निवेश पर टैक्स लगाया जाना चाहिए।’ आक्सफैम का कहना है कि अमीरों पर टैक्स लगाकर मिला पैसा जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में बहुत सहायक हो सकता है। टैक्स लगाने से अमीर ऐसे निवेश से दूर भी होंगे, जो पर्यावरण के लिए सही होगा। 40 लाख लोग वीगन बनेंगे, तब एक अरबपति के उत्सर्जन की भरपाई होगी। वीगन ऐसे शाकाहारी होते हैं, जो पशुओं से मिलने वाले उत्पाद जैसे दूध और शहद आदि भी नहीं खाते।

आक्सफैम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि समय के साथ शीर्ष कार्बन उत्सर्जक अमेरिका ने 1990 से 2014 तक अन्य देशों की जलवायु को लेकर 1.9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान पहुंचाया है। इसमें सबसे ज्यादा ब्राजील को 310 अरब डॉलर और भारत को 257 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। साथ ही अमेरिका के अपने कार्बन प्रदूषण ने उसे 183 अरब डॉलर से अधिक का लाभ पहुंचाया। डार्टमाउथ कॉलेज के जलवायु वैज्ञानिक और सह-अध्ययनकर्ता जस्टिन मैनकिन ने कहा कि हो सकता है सभी देश पुनर्स्थापन के लिए अमेरिका की ओर देख रहे हों। अमेरिका ने अपने उत्सर्जन से भारी मात्रा में आर्थिक नुकसान किया है। प्रमुख अध्ययनकर्ता क्रिस्टोफर कैलाहन ने कहा कि विकासशील देशों ने अमीर देशों को भविष्य के लिए कार्बन उत्सर्जन को कम करने में आर्थिक रूप से मदद करने का वादा करने के लिए आश्वस्त किया है। लेकिन वैश्विक जलवायु वार्ता में क्षतिपूर्ति के बारे में कोई बात नहीं होती है। उन वार्ताओं में अमेरिका और चीन जैसे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक पर्दे के पीछे से मना कर रहे होते हैं। कैलाहन डार्टमाउथ में जलवायु प्रभाव शोधकर्ता हैं।

इस मसले पर भारत का पक्ष और उसकी चिंता महत्वपूर्ण है। पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ग्लासगो के स्कॉटिश प्रदर्शनी केंद्र में कहा था कि 2070 तक भारत ‘शुद्ध शून्य’ के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। मोदी ने कहा था कि दुनिया की पूरी आबादी से ज्यादा यात्री हर साल भारतीय रेलवे से यात्रा करते हैं। इस विशाल रेलवे प्रणाली ने 2030 तक खुद को ‘नेट जीरो’ बनाने का लक्ष्य रखा है। इस पहल से अकेले उत्सर्जन में 60 मिलियन टन प्रति वर्ष की कमी आएगी। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की हालिया प्रकाशित रिपोर्ट भी इस बारे में आगाह करती है। इसमें कहा गया है कि इंसानों ने वातावरण को गर्मी रोकने वाली गैसों से इतना भर दिया है कि पृथ्वी के स्वास्थ्य के चार महत्वपूर्ण उपायों ने पिछले साल रिकॉर्ड तोड़ दिया। जंगलों को उजाड़ने और जीवाश्म ईंधन को जलाने की वजह से जलवायु पहले से ही ऐसी अनिश्चित स्थिति में चली गई है जो मानव सभ्यता के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई।


मुकुंद

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

 
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