संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला,‘ नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है ! हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती | आप ऐसा कोई उपाय बतावें कि हमें लोभ, मोह, मद, मत्सर इत्यादि दुर्गुण न सता पावें और हम जीवन में आनन्द की प्राप्ति करें |’
‘तुझे वह उपाय तो बता सकता था, किन्तु तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर |’’
उस मनुष्य ने ज्योंही सुना कि वह अब अधिक दिनों तक जिवित न रहेगा, तो वह उदास हो गया और तुरन्त ही अपने घर लौट गया | घर में वह पत्नी से जाकर बोला,“मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है | मुझे क्षमा करो |’’ फिर बच्चों से बोला,“बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ़ करो |’’ मित्रों के पास जाकर भी उसने क्षमा माँगी | इस तरह जिस-जिस व्यक्ति के साथ उसने दुर्व्यवहार किया था, उन सबके पास जा-जाकर उसने माँफी माँगी | इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुँचा और बोला, “नाथ, आठ दिन तो बीत गए | मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है ?’’
“तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है| किन्तु मुझे यह तो बता कि ये आठ दिन तेरे कैसे व्यतीत हुए ? भोग-विलास में मस्त होकर तूने आनन्द तो प्राप्त किया होगा ?’’
“क्या बताऊँ, नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी | इसीलिए मुझे अपने द्वारा किये हुए सरे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गयी |’’
“तो मित्र, तूने जिस बात को ध्यान में रखकर ये आठ दिन बिताये हैं, हम साधु लोग इसी बात को अपने सामने रखकर सरे काम किया करते हैं | ध्यान रखो, यह अपनी देह क्षणभंगुर है और अंततः इसे मिट्टी में मिलना ही है, अतः इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम होना ही श्रेयस्कर है | प्रत्येक के साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है और यही कारण है कि जीवन हमें मधुर मालूम होता है, जबकि तुम्हें असहनीय |’’