लोक नायक व आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी-बिरसा मुंडा | The Voice TV

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लोक नायक व आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी-बिरसा मुंडा

Date : 15-Nov-2022

एक लोक नायक और मुंडा जनजाति के एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे। वह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने तब के ब्रिटिश शासन से भी लोहा लिया था। उनके योगदान के चलते ही उनकी तस्वीर भारतीय संसद के संग्रहालय में लगी हुई है  ‘धरती माँया पृथ्वी पिता के रूप में जाने जाने वाले, बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अपने धर्म का अध्ययन करने और अपनी सांस्कृतिक जड़ों को भूलने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने अपने लोगों को अपनी जमीन के मालिक होने और उन पर अपना अधिकार जताने के महत्व को महसूस करने के लिए प्रभावित किया।

जीवन परिचय

बिरसा मुंडा का जन्म 1875 में झारखंड राज्य के रांची में हुआ था। बिरसा के पिता सुगना मुंडा, लकरी मुंडा की दूसरी संतान थे। सुगना के पांच पुत्र हुए। उनके पिता, चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। बिरसा के पिता ‘सुगना मुंडा’ जर्मन प्रचारकों के सहयोगी थे। बिरसा का बचपन एक साधारण आदिवासी किसान की भांति चलखद में बीता। वह भी भेड़ बकरियां चराने लगे, किंतु मां बाप ने गरीबी के कारण बालक को पांच वर्ष की आयु में ननिहाल भेज दिया। बाद में जब उनकी छोटी मौसी की शादी हो गई, तो वह बिरसा को भी अपने साथ ससुराल ले गई, जहां वह बकरी चराने लगे। बाद में, उन्होंने कुछ दिनों के लिए चाईबासा में जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ाई की। लेकिन स्कूलों में अपनी आदिवासी संस्कृति का उपहास बिरसा ने बर्दाश्त नहीं किया। इस पर वे पुजारियों और उनके धर्म का मजाक भी उड़ाने लगे। फिर क्या था , ईसाई प्रचारकों ने उसे स्कूल से निकाल दिया।

बिरसा मुंडा की शिक्षा

बिरसा के पास स्लेट या किताब न थी। वह बकरियां चराने के समय जमीन पर अक्षर लिखने में तन्मय हो जाते। बकरियां दूसरे के खेतों में जाकर खड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती और खेत के मालिक बिरसा की पिटाई करते। बिरसा को बांसुरी बजाने का बहुत शौक था। एक बार बांसुरी बजाने में इतने लीन हो गए कि, उनके मौसा की कई बकरियां खो गई। मौसा ने उनको बुरी तरह पीटा। वह भागकर अपने बड़े भाई के पास कुंदी गांव में चले गए। बाद में वह बुर्जु के जर्मन मिशन स्कूल भरती हो गए। वहां से वह चाईबासा में दूसरे जम्मन मिशन स्कूल में पढ़ने भेजे गए। स्कूल का वातावरण उन्हें पसंद नहीं था, क्योंकि वहां उनके धर्म और संस्कृति पर कीचड़ उछाली जाती, जो उनकी बर्दाश्त के बाहर था। किंतु फिर भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह सब कुछ बर्दाश्त करते रहे।

बिरसा ने भी स्कूल में पादरियों और उनके धर्म का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। इसलिए ईसाई धर्म प्रचारकों ने 1890 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया। इस स्कूल में बिरसा ने मिडिल तक की शिक्षा पाई।

बिरसा मुंडा पर हिन्दू धर्म का प्रभाव

बिरसा के विचारों का विकास सन् 1891 से 1894 के बीच हुआ, जब वह स्वामी आनंद पांडे के संपर्क में आए। उन्होंने बड़ी भक्ति से उनकी सेवा की और उनसे हिंदू धर्म के बारे में ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें महाभारत के पात्रों की कथा से बड़ी प्रेरणा मिली। इसी बीच एक होकर वह अहिंसा और जीवों के प्रति दया की बात करने लगे। इस प्रकार उन पर एक प्रभाव ईसाई धर्म प्रचारकों का था, दुसरा समुदाय के उन जागरूक व्यक्तियों का जो प्राचीन मुंडा राज्य के गौरव से प्रेरणा लेकर न्याय पर आधारित भूमि व्यवस्था के लिए संघर्षशील थे और तीसरा प्रभाव हिंदू धर्म का था।

बिरसा मुंडा को दिव्य ज्योति प्राप्त होना

सन् 1895 में कुछ ऐसी घटनाएं हुई कि बिरसा एक मसीहा बन गए। कहते हैं कि एक दिन जब बिरसा एक मित्र के साथ जंगल में जा रहे थे, उन पर बिजली गिरी और बिरसा के शरीर में समा गई। उनके मित्र ने तत्काल गांव लौटकर घोषणा की किं बिरसा कोदिव्य ज्योतिमिल गई है।

गांव वालों ने बिरसा को भगवान का अवतार मान लिया। उसी समय एक मुंडा मां ने अपने बीमार पुत्र को गोद में लेकर बिरसा के पैर छुए। कुछ समय बाद बच्चा ठीक हो गया। ऐसी घटनाएं और घटी, जिससे लोगों में यह विश्वास फैल गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से रोग दुर हो जाएगा। लेकिन जब गांव में चेचक फैली तो वृद्धजन कहने लगे कि बिरसा के कारण ग्राम देवी रुष्ट हो गई है। बिरसा गांव छोड़कर चले गए, किंतु फिर भी महामारी का प्रकोप कम नहीं हुआ। बिरसा लौटे और उन्होंने अपनी जाति की दिन रात सेवा कर सबका मन मोह लिया।

बिरसा की लोकप्रियता बढ़ती गई। वह आंगन में खाट पर बैठकर बातचीत करते, किंतु श्रोताओं के बढ़ने पर उनकी सभाएं खेतों में नीम की छाया में होने लगीं। वह छोटे-छोटे दृष्टांतों से अपने विचारों को बड़े ही सरल ढंग से समझाते। वह पुरानी रूढ़ियों और अंधविश्वासों की आलोचना करते। वह चाहते थे कि शिक्षा का प्रसार हो। लोग केवल एक देवता सिंहवांगा की पूजा करें और समाज की सेवा का व्रत लें। वह लोगों से हिंसा और नशीली वस्तुओं के त्याग का आग्रह करते। बिरसा की इन सभाओं ने जादू का काम किया और ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती गई। साथ ही ईसाई मुंडा अपना प्राचीन धर्म फिर से स्वीकार करने लगे।

बिरसा मुंडा की अन्याय के खिलाफ लड़ाई एवं गिरप्तारी 

साल 1856 में लगभग 600 जागीर थे, और वे एक गाँव से लेकर 150 गाँवों तक फैले हुए थे। लेकिन 1874 तक कुछ जमींदारों द्वारा पेश गए नए अधिकारों के मुताबिक किसानों के सारे अधिकार को समाप्त कर दिया गया था और जबरदस्ती किसानो की ज्यादातर जमीन हड़प ली थी।

कुछ गांवों के किसान तो अपना मालिकाना अधिकार पूरी तरह से खो चुके थे और खेतिहर मजदूरों की स्थिति में सिमट गए थे।

बिरसा मुंडा ने भी लोगों को किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। यह देख ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भीड़ जमा करने से रोक दिया। बिरसा ने कहा कि मैं अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं।

पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया, लेकिन ग्रामीणों ने उन्हें बचा लिया। जल्द ही उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल के लिए हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ दिया गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे।

बिरसा मुंडा द्वारा आदिवासियो के संगठन का निर्माण

लेकिन बिरसा के मानने वाले कहाँ थे, जाने के बाद, उन्होंने अपने अनुयायियों की दो टीमों का गठन किया। एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा तो दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा। नए युवाओं को भी भर्ती किया गया है। इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकाला, लेकिन बिरसा मुंडा पकड़े नहीं गए.

इस बार सत्ता पर हावी होने के उद्देश्य से आंदोलन आगे बढ़ा। यूरोपीय अधिकारियों और पुजारियों को हटा दिया गया और बिरसा के नेतृत्व में एक नया राज्य स्थापित करने का निर्णय लिया गया।

बिरसा मुंडा की मृत्यु 

यह आंदोलन 24 दिसंबर 1899 को शुरू हुआ। पुलिस थानों पर तीरों से हमला किया गया और आग लगा दी गई। सेना की भी सीधी मुठभेड़ हुई, लेकिन तीर कमान गोलियों का सामना नहीं कर पाई। बिरसा मुंडा के साथी बड़ी संख्या में मारे गए।

3 मार्च, 1900 को, उन्हें उनकी आदिवासी गुरिल्ला सेना के साथ, जमकोपाई जंगल, चक्रधरपुर में ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था।

पैसे के लालच में उसकी जाति के दो लोगों ने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया।बिरसा सहित उसके सौ से अधिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी।

9 जून 1900 को 25 वर्ष की आयु में रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई, जहां उन्हें कैद किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि वह हैजा से मर गया, हालांकि उसने बीमारी के कोई लक्षण नहीं दिखाए, अफवाहों को हवा दी कि उसे जहर दिया गया हो सकता है।

गिरफ्तार किए गए अन्य दो को फाँसी पर लटका दिया गया, 12 लोगो को बरी कर दिया गया और 63 लोगो को लंबी उम्र जेल की सजा दी गई।

 
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