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"खुद वो बदलाव बनें जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं " - महात्मा गांधी

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चुनावी जीत के सियासी मायने

Date : 09-Dec-2022

 दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाने वाले भारत के दो राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के परिणामों ने मतदाताओं की जनतांत्रिक और राजनीतिक परिपक्वता को एक बार फिर जगजाहिर किया है। मतदाताओं ने देश की सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को गुजरात और प्रमुख विपक्षी कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश में स्पष्ट बहुमत देकर खुश होने की वजह दे दी है। यह बात अलग है कि हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की हार और गुजरात में कांग्रेस की शर्मनाक हार दोनों दलों के रणनीतिकारों के जेहन को कुरेदते रहेंगे कि आखिर ऐसा कैसे हुआ, क्यों हुआ और अब आगे क्या करना चाहिए? 

इसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात अब भारतीय जनता पार्टी का गढ़ बन चुका है। वहां पर पिछले 27 वर्षों से भारतीय जनता पार्टी काबिज है। उसके मतों में हर चुनाव में इजाफा हो रहा है। इसे लोग मोदी मैजिक यानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्मा करार दे रहे हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पहले वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे और अपने गुजरात मॉडल के लिए देश-दुनिया में जाने जाते हैं। वहीं, हिमाचल प्रदेश में हरेक पांच साल में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होती रही सूबाई सत्ता की अदलाबदली के तहत इस बार मौका फिर से कांग्रेस को मिला है, क्योंकि जनता ने उसे स्पष्ट जनादेश दिया है। पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी की मेहनत और राज्य नेतृत्व द्वारा भारतीय जनता पार्टी की घेराबंदी करते हुए जनता को फ्री में कुछ कुछ देने के वादे यहां कारगर साबित हुए हैं।

सच कहा जाए तो मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को अपनी-अपनी नीतियों में कतिपय जनहितकारी बदलाव करने, करते रहने की स्पष्ट नसीहत दी है, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहने का संकेत दे दिया है। देखा जाए तो हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की हार अधिक विस्मय पैदा करती है। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा इसी प्रदेश के मूल निवासी हैं। वहीं, केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी इसी राज्य से हैं। यहां के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भले ही चुनाव जीत गए हों, लेकिन अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं दिला पाए। यहां भाजपा की कांग्रेस से सीधी टक्कर रही। यदि आम आदमी पार्टी (आप) यहां मजबूत हुई होती तो पक्का है वह कांग्रेस का नुकसान करती और इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को होता।

लेकिन कांग्रेस ने तो गुजरात में हद ही कर दी। उसके बड़े नेताओं यानी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने चुनाव पूर्व ही हथियार डाल दिये और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ तगड़ी घेराबंदी नहीं कर सके। इससे कांग्रेस अपना 2017 वाला प्रदर्शन भी बरकरार नहीं रख पाई। उल्टे इसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिला और उसने राज्य में अपना जनाधार बढ़ा लिया। गुजरात में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से अधिक सीटें तब हासिल हुईं, जब उसके दिग्गज नेताओं ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। अन्यथा चुनाव परिणाम एकतरफा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में नहीं जाता और न ही आम आदमी पार्टी को वहां उछलने का कोई खास मौका मिलता।

इन चुनावों ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब पिछली त्रिशंकु सरकारों का हश्र देख स्पष्ट जनादेश देने लगी है। वह किसी एक पार्टी पर फिदा होने की जगह गुण-दोष के आधार पर मौका दे रही है। इसका बड़ा उदाहरण एमसीडी चुनाव है। जनता का मूड बता रहा है कि भविष्य का चुनावी महाभारत भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच न होकर भारतीय जनता पार्टी और आप जैसी क्षेत्रीय ताकतों के बीच होगा। इसका सीधा आशय है कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले में खड़ा होने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों का सहारा लेना होगा। 

बिहार में राजद और जदयू, उत्तर प्रदेश में सपा, रालोद और बसपा, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और माकपा, ओडिसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इनेलो, महाराष्ट्र में राकांपा और शिवसेना, आंध्र प्रदेश में वाईसीआर कांग्रेस और टीडीपी, तेलंगाना में टीआरएस, कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर, तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी, केरल में माकपा और मुस्लिम लीग आदि दो दर्जन ऐसे दल हैं जो कभी भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए तो कभी कांग्रेस नीत यूपीए का अंग बनकर खुद तो मजबूत हो रहे हैं, लेकिन अपने इलाके में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को पनपने नहीं दे रहे हैं।जानकारों का कहना है कि बड़े दलों ने हमेशा पूंजीवाद का समर्थन किया है। इससे आम आदमी आहत है। इसलिए वह क्षेत्रीय दलों से उम्मीद पाल रहा है। हालांकि यह दल बहुमत मिलते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं। आम आदमी पार्टी तो फ्री में सत्ता की रेवड़ी बांटकर जनता के करीब जाने लगी है। अन्य बड़े दल भी अब इस राह की तरफ बढ़ रहे हैं। 

 

 

कमलेश पांडेय

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

 
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