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छुआछूत और जातिवाद मुक्त समाज रचना केलिये समर्पित जीवन

Date : 02-Oct-2024

सत्य और अहिंसा के आधार पर राष्ट्र रचना केलिये गाँधीजी ने राम राज्य स्थापित करने की कल्पना की थी  वे एक ऐसी समाज व्यवस्था के पक्षधर थे जो जातिवाद, वर्ग भेद और ऊँच नीच के भेदभाव मुक्त हो । गाँधी जी का पूरा जीवन इन्हीं मूल्यों की स्थापना केलिये समर्पित रहा । एक स्वस्थ्य और स्वस्थ्य समाज केलिये वे स्वयं झाड़ू लेकर निकले और जातिभेद से ऊपर समरस समाज रचना केलिये हरिजन बस्तियों में गये और स्वदेशी एवं आत्मनिर्भरता केलिये हाथ में चरखा उठाया ।

आज भारत अपने स्वच्छ, स्वस्थ्य, समृद्ध, समरस और आत्मनिर्भर आकार लेने केलिये नई करवट ले रहा है । भारत राष्ट्र के इस स्वरूप की कल्पना लगभग सवा सौ वर्ष पहले गाँधीजी ने की थी । वे मानते थे कि देश की स्वतंत्रता प्राप्त करना जितना संघर्षमय है उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ उस स्वतंत्रता को बनाये रखने केलिये करना होगा । इसीलिए उन्होने स्वतंत्रतासंग्राम केसाथ सामाजिक जाग्रति के उन अधारभूत विन्दुओं की ओर समाज को जागरुक करने का अभियान छेड़ा जो स्वतंत्रता के बाद भारत को सशक्त और संगठित रखने के लिये आवश्यक थे । गाँधीजी कहते थे कि किसी भी वयक्ति समाज परिवार या राष्ट्र की पहली आवश्यकता स्वास्थ्य है और उसके लिये पहली सीढ़ी स्वच्छता है । तन और मन का तभी संभव है जब व्यक्ति की आधालभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से हो और आसपास का वातावरण स्वच्छ हो, समरस हो। इसीलिये गाँधीजी ने स्वतंत्रता आँदोलन के साथ स्वच्छता, स्वदेशी, आर्थिक आत्म निर्भरता, सामाजिक समरसता जैसे अभियान छेड़े । इन आधारभूत आवश्यकता पर गाँधीजी ने तब भी काम किया था जब वे अपनी पढ़ाई पूरी करके लंदन से लौटे थे । वे स्वयं बस्तियों में सफाई करने और सामाजिक समरसता केलिये विभिन्न बस्तियों में गये थे । कुछ दिन रुककर वकालत करने दक्षिण अफ्रीका चले गये । गाँधी जी जब 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में रहे और लौटकर भारत आये तब भारत महामारी से जूझ रहा था । उन्होंनेपहले भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा की । अपनी भारत यात्रा में गाँधी जी ने देखा कि एक ओर भारत गरीबी अभाव से पीड़ित है और दूसरी ओर अंग्रेजों का शोषण एवं अमानुषिक व्यवहार । इसके महामारी। वे यह देखकर बहुत व्यथित हुये कि इतनी विपत्तियों के साथ भारत उन आंतरिक विसंगतियों में उलझा है जो भारतीय समाज रचना का मौलिक चिंतन नहीं है । इनमें छुआछूत थी, जातिवाद था  ऊँच नीच की चर्चा थी । गाँव के गाँव खाली हो रहे थे जो भारत कभी अन्न और धन से कभी इतना संपन्न था कि "सोने की चिड़िया" कहा जाता था, उस भारत में दो समय का भोजन मुश्किल हो रहा था । लोग भूख से मर रहे थे । यह सब देखकर गाँधी जी ने भारत को इस दयनीय अवस्था से मुक्त करने का संकल्प लिया और स्वतंत्रता आँदोलन के साथ इन आधारभूत प्राथमिकताओं के प्रति जन जागरण आरंभ किया । 
गाँधीजी सामाजिक समानता और समरसता के पक्षधर थे । वे वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को अलग-अलग मानते थे उनका मानना था कि जातिवाद भारत की मौलिक अवधारणा नहीं है । यह समय की विसंगतियों से हावी हो गई है । वे कहते कि जातिवाद का  वर्ण व्यवस्था से कोई संबंध नहीं । वर्ण व्यवस्था गुण कर्म आधारित थी, जन्म आधारित नहीं। उन्होंने इन विषय पर आलेख भी लिखे और सभा संगोष्ठियों में अपने विचार भी रखे । गांधी जी का मानना था कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जातिगत मतभेद और छुआछूत भी भारत की अनेक समस्याओं का कारण है इसे मिटाना होगा । उनकी राजराज की कल्पना में वही समाज रचना थी जिसमें रामजी शबरी के झूठे बेर काते हैं और निषादराज को गले लगाते हैं । गाँधीजी ने अपने संबोधनों में भारतीय वाड्मय की वर्ण व्यवस्था की व्याख्या की और स्पष्ट किया कि इसमें छूआछूत को कोई स्थान नहीं है । वे  कहते थे कि छुआछूत  मानवीय मूल्यों और भारतीय अवधारणाओं के विरुद्ध है । गांधीजी का सार्वजानिक जीवन सामाजिक समानता और समाज जीवन की समरसता केलिये ही समर्पित रहा । जिन बस्तियों को अछूत समाज की बस्तियाँ माना जाने लगा था, गाँधीजी ने उन बस्तियों को "हरिजन बस्ती" नाम दिया । गाँधी जी का मानना था कि इन बस्तियों में जो लोग रहते हैं वे जीवन के ऐसे सेवा कार्यों से जुड़े हैं जिनके बिना जीवन चलना संभव नहीं। यदि गली मोहल्लों की सफाई न हो, घरों से गंदगी न उठाई जाय, पशुओं की मृत देह को न उठाया जाय तो जीवन कैसे चल पायेगा । जीवन वर्धक कार्य करने वाले इस समाज को गाँधी जी ने हरिजन नाम दिया और इनकी बस्तियोंको हरिजन बस्ती । गाँधीजी ने इन बस्तियों में स्वयं जाकर छुआछूत के विरुद्ध अभियान चलाया । समाज में एक समूह ऐसा भी हो गया था जो छूआछूत को मानने लगा था । गाँधी जी ने इस समूह में जाकर भी मानवीय सत्य से अवगत कराया उनके अभियान का प्रभाव पड़ा।  इस दिशा में काम करने केलिये अनेक कार्यकर्ता तैयार हुये । गाँधी जी सबको साथ लेकर मंदिरों में भी गये और एकरूपता की भावना को जाग्रत की ।
आत्मनिर्भर भारत केलिये गाँधीजी की स्वराज की अवधारणा केवल शासन व्यवस्था तक सीमित नहीं थी । इसमें आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता के विषय भी शामिल थे । गाँधीजी के चिंतन में केन्द्रीय स्वराज व्यवस्था के अंतर्गत ऐसी शासन व्यवस्था क कल्पना की थी जिसमें कोई दुखी न हो । सबको सब प्रकार की सुविधा हो और व्यक्ति परिवार एवं समाज आत्मनिर्भर हो । ऐसी शासन व्यवस्था को गाँधी जी रामराज्य की संज्ञा दी थी । और इसकी न्यूनतम इकाई ग्राम को माना और ग्राम स्वराज्य की अवधारणा प्रस्तुत की । उस समय भारत की नब्बे प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी । जीवन की लगभग सभी आवश्यकताएँ वन और ग्राम संपदा से पूरी होतीं थीं। वन संपदा के नगरों तक आने का मार्ग भी ग्राम थे । इसलिए गाँधी जी गाँवों में ऐसी व्यवस्था चाहते थे जो पूरी तरह आत्मनिर्भर हो । केवल और केवल नमक की आवश्यकता की आपूर्ति बाहर से हो और अन्य सभी उत्पादन गाँव में स्थानीय ही हों। इसी प्रकार गाँव की शासन व्यवस्था भी ग्रामीण स्तर पर ही हो । सबको अपने गाँव में न्याय मिले । गाँधी जी ने दो प्रकार की व्यवस्था प्रस्तुत की थी एक ग्राम पंचायत जो प्रशासनिक कार्य करे दूसरी न्याय पंचायत जो गाँव के विवादों का समाधान गाँव में ही कर दे । इस संयुक्त व्यवस्था को ही ग्राम स्वराज्य का नाम दिया था । 
गाँधीजी ग्राम को देश और समाज जीवन की न्यूनतम इकाई बनाना चाहते थे । और कहते थे कि ग्राम किसी केन्द्रीय सत्ता के आधीन न होगा । प्रत्येक ग्राम आत्मनिर्भर होगा । गांधी जी का मानना था कि पंचायती राज्य लोकतंत्र की प्रतिनिधि है और इससे समाज का सशक्तिकरण होगा । गाँधीजी ने अपनी स्वराज की अवधारणा में ऐसे स्वशासन की कल्पना प्रस्तुत की जो आदर्श जीवन शैली और आत्म संयम से युक्त हो । वह सभी प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्त हो और पूरी तरह आदर्श एवं आत्म अनुशासित । सभी गाँव और उनके निवासी सद्गुणों से युक्त हों । गाँधीजी की कल्पना के गाँव पूरी तरह अपराध और नशा दोनों से मुक्त है । गाँधी जी दृष्टि में यही स्वरूप राम राज्य का है । वे ऐसी शासन व्यवस्था के पक्षधर थे जो पूरी तरह विकेंद्रीकृत हो ।  जिसमें जनता का अधिकार जनता के पास हों । प्रत्येक गाँव के प्रत्येक निवासी के पास अपना घर हों । कोई आवास ही न रहे और प्रत्येक अपनी योग्यतानुसार रोजगार करे। गाँव की सभी आधारभूत आवश्यकता की पूर्ति गाँव स्वयं करे । गाँव के सभी घर पूर्ण स्वच्छता, पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था और वायु संचार युक्त हों। घर में ऐसे आँगन हों, जहाँ परिवार अपने उपयोग के लिए फल सब्जी लगा सकें, आवश्यकतानुसार पशु पालन कर सके । गाँव की गलियाँ और रास्ते गंदगी और धूल से मुक्त हों। गाँव के बाहर ऐसी खुली जगह हो जहाँ पशुधन विचरण कर सकें, बच्चे खेल सकें। गाँव में ऐसे विद्यालय हों, जिसमें सामान्य शिक्षा केसाथ साथ औद्योगिक शिक्षा भी प्रबंध हो । व्यक्ति और समाज का यह सशक्तीकरण ही लोकतंत्र का सशक्तीकरण होगा ।
इसी प्रकार महिला सशक्तिकरण और जागरुकताको के लिये गाँधी जी ने अपने आंदोलनों में महिलाओं की सहभागिता पर जोर दिया । गाँधी जी ने भारतीय दर्शन के समर्थक थे जिसमें महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानित माना गया था । गाँधी जी का यह दर्शन और व्यवहार घर में अपनी पत्नि कस्तूरबा गाँधी को प्राथमिकता देने तथा आँदोलन में महिलाओं की सहभागिता दोनों प्रकार से झलकता है । उन्होंने अपने आलेखों में स्पष्ट लिखा कि महिलाओं को समाज में अद्वितीय योगदान देने वाली रचनात्मक शक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।  उन्होंने महिलाओं को राजनीति में भाग लेने और स्वतंत्र सोच विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। गांधीजी ने महिलाओं के लिए शिक्षा के महत्व पर जोर दिया । और बाल विवाह को अव्यावहारिक बताया।
गाँधी जी पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था । उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 गुजरात के नगर पोरबंदर नगर में हुआ । उनके पिता करमचन्द गाँधी काठियावाड़ रियासत के दीवान थे । माता पुतलीबाई घरेलू लेकिन सनातन परंपराओं के अंतर्गत धार्मिक विचारों की थीं। भाता के भक्तिभाव का प्रभाव बालक मोहन दास पर बचपन से पड़ा । जो उनके आचार विचार और व्यवहार में पूरे जीवन भर रहा । उनकी प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर में ही हुई । जब वे तेरह वर्ष के हुये तब ही मई 1883 में उनका विवाह कस्तूरबा जी हो गया था । आयु में  कस्तूरबा गाँधी उनसे एक वर्ष बड़ीं थीं। 1885 में जब गाँधी जी 15 वर्ष के हुये तब पहली सन्तान ने जन्म लिया। किन्तु वह जीवित न रही। इसी वर्ष  पिता करमचन्द गांधी का भी निधन हो गया। आगे चलकर गाँधी जी को चार पुत्र हुये । सबसे बड़े हरीलाल गाँधी का जन्म 1888 में, मणिलाल गाँधी का जन्म 1892 में, रामदास गाँधी का जन्म 1897  में और देवदास गाँधी का जन्म 1900 में हुआ । 
पोरबंदर से मिडिल परीक्षा और राजकोट से हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। मैट्रिक के बाद आगे की पढ़ाई केलिये भावनगर के शामलदास कॉलेज में प्रवेश लिया ।  गाँधी जी 4 सितम्बर 1888 को वकालत पास करने लंदन चले गये । जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई की । लंदन जाते समय माँ ने लंदन में मांसाहार न करने और शराब आदि बुराइयों से दूर रहने की शपथ दिलाई जिसका गाँधी जी ने जीवन भर पालन किया । लंदन में रह रहे भारतीयों को गाँधी जी के शाकाहारी होने की बात ने बहुत प्रभावित किया जिससे गाँधी जी कम समय में ही लोकप्रिय हो गये और लंदन में सक्रिय थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य बन गये। यह सोसायटी उन भारतीयों की थी जो विषमता के बीच अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते थे । श्रीमद्भगवतगीता का पाठ इस संस्था के सदस्यों का महत्वपूर्ण काम था । वकालत पास करके भारत लौटे और मुम्बई में वकालत आरंभ की । किन्तु वकालत में उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। और राजको आ गये जहाँ वकालत के साथ एक हाई स्कूल में अंशकालिक शिक्षक की नौकरी भी करने लगे । तभी अफ्रीका में वकालत करने का एक अवसर आया । एक भारतीय फर्म से नेटाल से 1893 में यह करार हुआ और  दक्षिण अफ्रीका चले गये । इस कंपनी ने उन्हें एक वर्ष केलिये अपना वकील नियुक्त कर अफ्रीका भेजा था ।लेकिन गाँधी जी लगभग बीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहे । दक्षिण अफ्रीका भी उन दिनों अंग्रेजों के आधीन था । गाँधीजी ने वहाँ भारतीयों के अधिकारों केलिये संघर्ष आरंभ किया और भारतीयों के साथ किये जाने वाले भेदभाव का विरोध किया । गाँधी जी पै दक्षिण अफ्रीका में जन जागरण केलिये एक समाचार पत्र का प्रकाशन भी आरंभ किया । 1914 में गोपाल कृष्ण गोखले के आग्रह पर भारत लौटे और फिर 1915 से काँग्रेस में सक्रिय हुये ।
गाँधीजी जी चाहते थे कि समाज में चैतन्यता और एकजुटता हो इसके लिये उन्होंने किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों की समस्याओं के निराकरण की आवाज उठाई और देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों, धार्मिक एवं जातीय एकता, आत्मनिर्भरता एवं अस्पृश्‍यता निवारण अभियान चलाया । 1921 में नागरिक सम्मान केलिये असहयोग आँदोलन का आव्हान किया । 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन आरंभ किया । इन तीनों आँदोलनों में गाँधी जी की गिरफ्तारी हुई और उन्हे जेल में भी रहना पड़ा । उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन बिताया और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। 
 
 
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