विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के विजेता चंद्रशेखर वेंकटरमन
Date : 07-Nov-2024
विज्ञान के क्षेत्र में देश को स्वावलंबन की राह पर आगे बढ़ाते हुए दुनियाभर में पहचान दिलाने में अनेकों विज्ञानियों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। चंद्रशेखर वेंकटरमन ऐसे विज्ञानी थे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए विज्ञान के क्षेत्र में देश का नाम रोशन किया। वे विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के विजेता और पहले भारतीय विज्ञानी थे। भारतीय ही नहीं, वे पहले एशियाई भी थे और इतना ही नहीं, पहले अश्वेत भी थे। उन्हें 1930 में भौतिक विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। भौतिक विज्ञान में प्रकाश के अध्ययन में ‘रमन प्रभाव’ का प्रमुखता से व्याख्या होता है। यह उन्हीं की खोज और नाम पर आधारित है |
“रमन प्रभाव” प्रकाश और पदार्थ के बीच ऊर्जा के आदान-प्रदान की एक मौलिक प्रक्रिया है । यह एक प्रकाशीय घटना है जिसमें प्रकाश की किरण किसी पदार्थ से होकर गुज़रने पर प्रकाश की तरंगदैर्घ्य में बदलाव होता है ।
28 फरवरी, 1928 को भौतिक विज्ञानी सी.वी. ने रमन प्रभाव की अभूतपूर्व खोज की। विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए उन्हें 1954 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
जीवन-अध्ययनों जैसे डीएनए/आरएनए विश्लेषण में, रोग निदान, एकल सेल विश्लेषण आदि में भी व्यापक पैमाने पर रमन प्रभाव उपयोग में लाया जा रहा है। दवा-पॉलिमर इंटरैक्शन, दवा निर्माण और क्रिस्टलीकरण प्रक्रियाओं की निगरानी, पर्यावरण विज्ञान: रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी आदि क्षेत्रो में उपयोग हो रहा है ।
दूसरों से थे अलग: विज्ञान के प्रति उनमें अगाध लगाव था और वे निरंतर शोध करते रहते थे। अपने जीवन के अंतिम काल में जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा, तो उन्होंने डाक्टर से कहा था कि मैं अंतिम समय तक सक्रिय जीवन जीना चाहता हूं। उन्होंने 18 साल की उम्र में अपना पहला रिसर्च पेपर लिखा, जो फिलासोफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुआ। पिता के कहने पर रमन ने 1907 में फाइनेंशियल सिविल सर्विसेज परीक्षा दी, जिसमें वे अव्वल आए। उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) में सहायक लेखापाल जनरल के वरिष्ठ पद पर नियुक्ति मिली। बहुत अच्छी वेतन के साथ पद होने के बावजूद रमन का मन उसमें नहीं रमता था।
नौकरी के साथ जारी रहा शोध: कोलकाता के इंडियन एसोसिएशन फार द कल्टीवेशन आफ साइंस में शाम के समय और छुट्टियों के दिनों में वे प्राय: अकेले ही शोध करते। शोध की गुणवत्ता ऐसी कि एक-एक कर उनके 27 शोध पत्र प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुए। भौतिकी और शोध के लिए उनका समर्पण इतना ज्यादा था कि उन्होंने आइएसीएस के पड़ोस में ही घर ले लिया। जब वे 29 साल के थे, तब 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर आने का प्रस्ताव दिया। अपनी मौजूदा नौकरी की तुलना में कम तनख्वाह होने के बावजूद उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया और पढ़ाने के साथ अनुसंधान में भी जुटे रहे। 1921 में उनकी इंग्लैंड यात्रा हुई। तब तक विज्ञान की दुनिया में उनकी चर्चा हो चुकी थी। वर्ष 1928 में उन्होंने ‘रमन प्रभाव’ की खोज की। 1933 से 1948 तक वे भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में प्रोफेसर रहे और उसके बाद रमन शोध संस्थान के निदेशक, जिसे उन्होंने खुद स्थापित किया था। उन्होंने 1926 में भारतीय भौतिकी जर्नल की स्थापना की और 1934 में भारतीय विज्ञान अकादमी शुरू की। वह देश के ऐसे प्रतिभाशाली विज्ञानी थे, जिनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।
डॉ. चंद्रशेखर वेंकट रमन (सी.वी. रमन): पुरस्कार और सम्मान
· डॉ. सी.वी. रमन ने अपने करियर के आरंभ में ही 1924 में उन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया तथा 1929 में नाइट की उपाधि दी गयी।
· उन्हें 1930 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1941 में फ्रैंकलिन मेडल से सम्मानित किया गया।
· उन्हें 1954 में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1957 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
· अमेरिकन केमिकल सोसाइटी और इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस ने 1998 में रमन की खोज को अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक रासायनिक मील का पत्थर माना।
· हर साल 28 फरवरी को भारत उनके सम्मान में 1928 में रमन प्रभाव की खोज की याद में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाता है
डॉ. सी.वी. रमन का जन्म 7 नवंबर, 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चंद्रशेखर रामनाथन और माता पार्वती अय्यर थी। वे विशाखापत्तनम के एक कॉलेज में गणित और भौतिकी के व्याख्याता थे। सी.वी. रमन बचपन से ही एक बुद्धिमान छात्र रहे हैं। उन्होंने उसी कॉलेज से भौतिकी में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए। 1970 में प्रयोगशाला में काम करते समय उन्हें दिल का दौरा पड़ा। 21 नवंबर 1970 को उन्होंने रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में अंतिम सांस ली।