सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेक: परमापदां पदम् |
वृणुते हि विमृश्यकारिनं गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पद : | |
उक्त श्लोक भारवि की पत्नी को बेहद भाया तथा वह उसे लेकर राजा के पास गयी |
राजा ने उसे पढ़कर बदले में एक सौ मुहरें दीं तथा उस भोजपत्र को उसने अपने शयन कक्षा में लगा दिया |