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" लक्ष्य निर्धारण एक सम्मोहक भविष्य का रहस्य है " -टोनी रॉबिंस

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महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी -सुभाषचन्द्र बोस

Date : 23-Jan-2023

 सुभाष चन्द्र बोस:-

भारतीय इतिहास में सुभाषचन्द्र बोस एक महान् व्यक्ति एवं बहादुर स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में विख्यात हैं। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उनका योगदान अविस्मरणीय है। उनके द्वारा दिया गया नारा “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा” उनकी क्रान्तिकारी सोच को दर्शाता है। सुभाषचन्द्र बोस के अतिरिक्त भारतीय इतिहास में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एक साथ महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर कूटनीति तथा चर्चा करने वाला हो। महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह को 'नेपोलियन की पेरिस यात्रा' की संज्ञा देने वाले सुभाषचन्द्र बोस एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनके पाँव लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे तथा उन्होंने जो स्वप्न देखा उसे पूरा किया।
 
जन्म:-
 
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हिन्दू कायस्थ परिवार में हुआ था[8]। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद चन्द्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थे। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
 
शिक्षादीक्षा से लेकर आईसीएस तक का सफर:-
 
कटक के प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व सम्हाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।
पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।
 
इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र[9] लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो महर्षि दयानंद सरस्वती और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रक्खा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।
 
नेताजी का राजनीतिक जीवन:-
 
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस 1927 में जेल से बाहर आ गए इसके बाद उन्होनें अपने राजनैतिक करियर एक आधार देकर विकसित किया। सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस पार्टी के महासचिव के पद को सुरक्षित कर लिया और गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराने की लड़ाई में भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम करना शुरू कर दिया।
सुभाषचंद्र बोस अपने कामों से लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ रहे थे इसलिए इसके 3 साल बाद उन्हें कलकत्ता का मेयर के रूप में चुना गया। 1930 के दशक के मध्य में, नेता जी ने बेनिटो मुसोलिनी समेत पूरे यूरोप की यात्रा की।
अपने कामों से नेता जी ने कुछ ही सालों में लोगों के बीच अपनी एक अलग छवि बना ली थी इसके साथ ही वे एक नौजवान सोच लेकर आए थे जिसके चलते वे यूथ लीडर के रूप में लोगों के प्रिय और राष्ट्रीय नेता भी बन गए।
 
महात्मा गांधी से मेल नहीं खाती थी नेता जी की विचारधारा:-
 
कांग्रेस की एक बैठक के दौरान कुछ नए और पुरानी विचारधारा के लोगों के बीच मतभेद हुआ जिनमें युवा नेता किसी भी नियम पर चलना नहीं चाहते थे जबकि वे खुद के हिसाब से चलना चाहते थे, वहीं पुराने नेता ब्रिटिश सरकार के बनाए नियम के साथ आगे बढ़ना चाहते थे।
वहीं सुभाष चन्द्र बोस और गांधी जी के विचार भी बिल्कुल अलग थे वे नेता जी महात्मा गांधी जी की अहिंसावादी विचारधारा से सहमत नहीं थे उनकी सोच नौजवानों वाली थी जो हिंसा में भी भरोसा रखते थे। दोनों की विचारधारा अलग थी लेकिन मकसद गुलाम भारत को आजाद कराने का ही था। 
आपको बता दें जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नामांकन जीता था उस समय उनके नामांकन से महात्मा गांधी खुश नहीं थे यहां तक कि उन्होनें बोस के प्रेसीडेंसी के लिए भी विरोध किया था जबकि ये पूर्ण स्वराज प्राप्त करने के लिए ही था।
बोस ने अपना कैबिनेट बनाने के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में मतभेदों का भी संघर्ष किया। 1939 के कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनावों में बोस ने पट्टाभी सीताराय्या (गांधीजी के चुने हुए उम्मीदवार) को भी हराया था, लेकिन लंबे समय तक उनकी प्रेसीडेंसी जारी नहीं रह सकी क्योंकि उनकी विश्वास प्रणाली कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के विपरीत थी।
 
नेताजी का कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा, फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन:-
 
1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन में बीमारी की वजह से वह शामिल नहीं हो सके। इसके बाद 29 अप्रैल 1939 को सुभाष चन्द्र बोसने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने 22 जून, 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया, हालांकि बोस ने ब्रिटिश शासकों का विरोध किया, लेकिन सुभाषचन्द्र बोस ब्रिटिश सरकार के सुव्यवस्थित और अनुशासित रवैया से बेहद प्रभावित थे।
 
जेल में नेता जी को काटनी पड़ी सजा:-
 
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस नेतृत्व से बिना सलाह लिए बिना भारत की तरफ से युद्ध करने के लिए वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो के फैसले के विरोध में सामूहिक नागरिक अवज्ञा की वकालत की। उनके इस फैसले की वजह से उन्हें 7 दिन की जेल की सजा काटनी पड़ी और 40 दिन तक गृह गिरफ्तारी झेलनी पड़ी थी।
 
गृह गिरफ्तारी के 41 वें दिन जर्मनी जाने के लिए सुभाष चन्द्र बोस मौलवी का वेष धारण कर अपने घर से निकले और इटेलियन पासपोर्ट में ऑरलैंडो मैज़ोटा नाम से अफगानिस्तान, सोवियत संघ, मॉस्को और रोम से होते हुए जर्मनी पहुंचे।
 
जर्मनी से नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का संबंध:-
 
एडम वॉन ट्रॉट ज़ू सोल्ज़ के मार्गदर्शन में, सुभाष चन्द्र बोस ने भारत के विशेष ब्यूरो की स्थापना की, जिसने जर्मन प्रायोजित आज़ाद हिंद रेडियो पर प्रसारण किया। सुभाषचन्द्र बोस ने इस तथ्य पर भरोसा किया कि दुश्मन का दुश्मन एक दोस्त होता है और इस तरह उन्होनें ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जर्मनी और जापान के सहयोग की मांग की।
 
बोस ने बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की वहीं फ्री इंडिया लीजियन के लिए लगभग 3000 भारतीय कैदी ने साइन अप किया था।
जर्मनी का युद्ध में पतन और जर्मन सेना की आखिरी वापसी से सुभाष चन्द्र बोस ने इस बात का अंदाजा लगा लिया कि अब जर्मन सेना भारत से अंग्रेजों को बाहर निकालने में मद्द नहीं कर पाएगी।
 
आजाद हिंद फौज का गठन :-
 
इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस जुलाई 1943 में जर्मनी से सिंगापुर चले गए जहां उन्होनें भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन की उम्मीद फिर से जगाई आपको बता दें कि भारतीय राष्ट्रीय सेना को सबसे पहले कप्तान जनरल मोहन सिंह ने 1942 में स्थापित किया था इसके बाद राष्ट्रवादी नेता राश बिहारी बोस ने इसकी अध्यक्षता की थी।
बाद में रास बिहारी बोस ने इस संगठन की पूरी जिम्मेदारी सुभाष चन्द्र बोस को सौंप दी थी। वहीं इसके बाद INA को आजाद हिंद फौज और सुभाष चन्द्र बोस को नेता जी के नाम से जाने जाना लगा।
 
नेताजी ने न केवल सैनिकों को फिर से संगठित किया उन्होनें दक्षिणपूर्व एशिया में आप्रवासी भारतीयों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा। वहीं लोगों में फौज में भर्ती होने के अलावा, वित्तीय सहायता भी देना शुरू कर दिया।
 
आपको बता दें कि इसके बाद आज़ाद हिंद फौज एक अलग महिला इकाई के साथ भी उभर कर सामने आई, एशिया में इस तरह की पहला संगठन था।
आजाद हिंद फौज ने काफी विस्तार किया और इस संगठन ने अजाद हिंद सरकार के एक अस्थायी सरकार के तहत काम करना शुरू कर दिया। उनके पास अपनी डाक टिकट, मुद्रा, अदालतें और नागरिक कोड थे और नौ एक्सिस राज्यों द्वारा स्वीकृत थी।
 
नेताजी ने अपने भाषण से लोगों को किया प्रेरित :-
 
1944 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस अपने भाषण से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया इसके साथ ही उनके इस भाषण ने उस समय काफी सुर्खियां भी बटोरी थी आपको बता दें कि नेता जी ने अपने इस प्रेरक भाषण में लोगों से कहा कि –
 
”तुम मुझे खून दो, मै तुम्हें आजादी दूंगा”
 
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का भाषण का लोगों पर इतना प्रभाव पड़ा कि काफी तादाद में लोग बिट्रिश शासकों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
सेना, आजाद हिंद फौज के मुख्य कमांडर नेताजी के साथ, ब्रिटिश राज से देश को मुक्त करने के लिए भारत की तरफ बढ़ी।
रास्ते में अंडमान और निकोबार द्वीपों को स्वतंत्र किया गया इसके बाद इन दो द्वीपों का स्वराज और शहीद का नाम दिया गया। इसके साथ सेना के लिए रंगून नया आधार शिविर बन गया।
बर्मा मोर्चे पर अपनी पहली प्रतिबद्धता के साथ, सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिस्पर्धी लड़ाई लड़ी और आखिरकार इम्फाल, मणिपुर के मैदान पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने में कामयाब रहे।
हालांकि, राष्ट्रमंडल बलों के अचानक हमले में  जापानी और जर्मन सेना को आश्चर्यचकित कर लिया। रंगून बेस शिविर के पीछे हटने से सुभाष चन्द्र बोस का राजनीतिक हिन्द फौज का को प्रभावी राजनीतिक इकाई बनने के सपने को चूर-चूर कर दिया।
 
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु :-
 
आजाद हिंद फौज की हार से निराश, नेताजी ने सहायता मांगने के लिए रूस यात्रा करने की योजना बनाई। लेकिन 18 अगस्त 1945 को सुभाष चन्द्र बोस जी के विमान का ताईवान में क्रेश हो गया, जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई।
फिलहाल नेता जी की लाश नहीं मिली थी साथ ही उस दुर्घटना का कोई सबूत भी नहीं मिला था इसलिए सुभाष चन्द्र बोस की मौत आज भी विवाद का विषय है और भारतीय इतिहास में सबसे बड़ी संशय है।
 
नेताजी का व्यक्तिगत जीवन और विरासत :-
 
फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्यों की अवहेलना के बाद, बोस ने 1937 में ऑस्ट्रेलिया के पशुचिकित्सक की बेटी एमिली शेंकल के साथ विवाह कर लिया। दोनों की शादी हिन्दू रीति-रिवाजों से की गई थी इसके काफी समय बाद इन दोनों से एक बेटी अनीता बोस फाफ का जन्म हुआ था।
18 अगस्त, 1945 को रूस जाते समय रास्ते में दुर्भाग्यपूर्ण उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिससे उनकी मौत हो गई। बताया जाता है कि जापानी सेना वायुसेना मित्सुबिशी की -21 बॉम्बर, जिस पर वे यात्रा कर रहे थे उस विमान में इंजन में परेशानी होने की वजह से विमान ताइवान में दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
इस दुर्घटना में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के पूरे शरीर में घाव थे और ये पूरी तरह जल चुके थे हालांकि इलाज के लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया लेकिन बच नहीं सके और इसके चार घंटे बाद वे सदा के लिए सो गए ।
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का अंतिम संस्कार किया गया था और ताइहोकू में निशी हांगानजी मंदिर में बौद्ध स्मारक सेवा आयोजित की गई थी। बाद में, टोक्यो, जापान में रेन्कोजी मंदिर में उनकी अस्थियों को दफन कर दिया गया थ।
 
नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिले हुये पुरस्कार और उपलब्धियां :-
 
नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, भारत रत्न पुरस्कार से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। हालांकि, बाद में इसे पीआईएल के बाद वापस ले लिया गया, जिसे अदालत में पुरस्कार की ‘मरणोपरांत’ प्रकृति के खिलाफ दायर किया गया था।
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की एक प्रतिमा पश्चिम बंगाल विधान सभा के सामने बनाई गई है, जबकि उनकी तस्वीर की झलक भारतीय संसद की दीवारों में भी देखने को मिलती है।
कुछ दिनों पहले ही नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को लोकप्रिय संस्कृतियों में चित्रित किया गया है। हालांकि वह कई लेखकों के विचारों के साथ धोखाधड़ी कर रहा है, जिन्होंने उन पर कई किताबें लिखी हैं, वहीं ऐसी कई फिल्में हैं जो इस भारतीय राष्ट्रवाद नायक को चित्रित करती हैं।
 
सुभाषचंद्र बोस की जयंती :-
 
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी तथा आजाद हिंद सेना के कार्यवाहक के रूप मे सुभाषचंद्र बोस खासे पहचाने जाते है। उनके स्वतंत्रता संग्राम मे दिये हुये निडर और प्रेरणादायी योगदान की वजह से उनका जन्मदिन यानि के 23जनवरी को ‘पराक्रम दिवस’ के तौर पर देशभर मे उत्साह के साथ मनाया जाता है।
इस खास उपलक्ष पर नेताजी के कार्यो और स्वतंत्रता के लिये किये गये प्रयासो को मानवंदना अर्पित कर उनकी स्मृती मे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमो का आयोजन किया जाता है। इस मौके पर गणमान्य व्यक्तियो  तथा समुचे देशभर के लोगो द्वारा नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी को श्रद्धांजली अर्पित की जाती है।
 
सामान्य ज्ञान में सुभाष चन्द्र बोस :-
 
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा!” आजादी के लिए छेड़े गए स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान इस भारतीय राष्ट्रवादी नेता ने कहा था जिसके बाद से लोग इससे काफी प्रेरित हुए थे और इस संग्राम में बड़ी संख्या में शामिल भी हुए थे। नेता जी की अन्य प्रसद्धि नारेो में “दिल्ली चलो”, ‘जय हिंद’ शामिल हैं।
सुभाष चनद्र बोस अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक के संस्थापक थे।
 
एक नजर में सुभाषचंद्र बोस का इतिहास –
 
  • 1921 में सुभाषचंद्र बोस इन्होंने सरकारी नोकरी में बहोत उच्च स्थान का त्याग करके राष्ट्रीय स्वातंत्र के आंदोलन में कुद पडे। स्वातंत्र लढाई में हिस्सा लेने के लिये अपनी नौकरी का इस्तीफा देणे वाले वो पहले आय.सी.एस. अधिकारी थे।
  • 1924 में कोलकत्ता महानगर पालिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में उनको चित्तरंजन दास इन्होंने चुना। पर इसी स्थान होकर और कौनसा भी सबुत न होकर अंग्रेज सरकार ने क्रांतीकारोयों के साथ सबंध रखा ये इल्जाम लगाकर उन्हें गिरफ्तार मंडाले के जेल में भेजा गया।
  • 1927 में सुभाषचंद्र बोस और पंडित जवाहरलाल नेहरू इन दो युवा नेताओं को कॉंग्रेस के महासचिव के रूप में चुना गया। इस चुनाव के वजह से देशके युवाओं में बड़ी चेतना बढ़ी।
  • सुभाषचंद्र बोस इन्होंने समझौते के स्वातंत्र के अलावा पुरे स्वातंत्र की मांग कॉंग्रेस ने ब्रिटिशों से करनी चाहिये। ऐसा आग्रह किया। 1929 के लाहोर अधिवेशन में कॉंग्रेस ने पूरा स्वातंत्र का संकल्प पारित किया। ये संकल्प पारित होने में सुभाषचंद्र बोस इन्होंने बहोत प्रयास किये।
  • 1938 में सुभाषचंद्र बोस हरिपुरा कॉंग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष बने।
  • 1939 में त्रिपुरा यहा हुये कॉंग्रेस के अधिवेशन में वो गांधीजी के उमेदवार डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या इनको घर दिलाकर चुनकर आये। पर गांधीजी के अनुयायी उनको सहकार्य नहीं करते थे। तब उन्होंने उस स्थान का इस्तीफा दिया और ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ ये नया पक्ष स्थापन किया।
  • इंग्लंड दुसरे महायुध्द में फसा हुवा है। इस स्थिति का लाभ लेकर स्वातंत्र के लिए भारत ने सशस्त्र लढाई करनी चाहिए’ ऐसा प्रचार वो करते थे। इस वजह से अंग्रेज सरकार का उनके उपर का गुस्सा बढ़ा। सरकारने उन्हें जेल में डाला पर उनकी तबियत खराब होने के वजह से उन्हें घर पर ही नजर कैद में रखा। 15 जनवरी 1941 में सुभाषबाबू भेस बदलकर अग्रेजोंके चंगुल से भाग गये। काबुल के रास्ते से जर्मनी की राजधानी बर्लिन यहा गये।
  • भारत के स्वातंत्र लढाई के लिये सुभाषबाबू ने हिटलर के साथ बातचीत की। जर्मनी में ‘आझाद हिंद रेडिओ केंद्र’ शुरु किया। इस केंद्र से अंग्रेज के विरोध में राष्ट्रव्यापी संकल्प करने का संदेश वो भारतीयोंको देने लगे।
  • जर्मनी में रहकर भारतीय स्वतंत्र के लिये हम कुछ महत्वपूर्ण रूप की कृति कर सकेंगे। ऐसा ध्यान में आतेही सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से एक पनडुब्बी से जपान गये।
  • रासबिहारी बोस ये भारतीय क्रांतिकारी उस समय जपान में रहते थे। उन्होंने मलेशिया, सिंगापूर, म्यानमार आदी। पूर्व आशियायी देशों में के भारतीयोका ‘इंडियन इंडिपेंडेंट लीग‘ (हिंदी स्वातंत्र संघ) स्थापन किया हुवा था।
  • जपान इ हिंदी के हाथ में आये हुये अंग्रेजो के लष्कर में के हिंदी सैनिकोकी ‘आझाद हिंद सेना’ उन्होंने संघटित की थी। उसका नेतृत्व स्वीकार करने की सुभाषबाबू को रासबिहारी बोस ने उन्होंने आवेदन किया। नेताजीने वो आवेदन स्वीकार किया। इस तरह सुभाषचंद्र बोस आझाद हिंद सेने के सरसेनापती बने।
  • 1943 में अक्तुबर महीने में सुभाषबाबू के अध्यक्षता में ‘आझाद हिंद सरकार’ की स्थापना हुयी। अंदमान और निकोबार इन व्दिपो कब्जा कटके आझाद हिंद सरकार ने वहा तिरंगा लहरा दिया।
  • अंदमान को ‘शहीद व्दिप’ और निकोबार को ‘स्वराज्य व्दिप’ ऐसे नाम दिये। जगन्नाथराव भोसले, शहनवाझ खान, प्रेम कुमार सहगल, डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन आदी उनके पास के साथी थे। डॉ. लक्ष्मी स्वामी नाथन ये ‘झाशी की राणी’ पथक के प्रमुख थी।
  • ‘तिरंगा झेंडा’ ये आझाद हिंद सेन का निशान ‘जयहिंद’ ये अभिवादन के शब्द, ‘चलो दिल्ली’ ये घोष वाक्य और ‘कदम कदम बढाये जा’ ये समरगित था। इसी सेना ने 1943 से 1945 तक शक्तिशाली अंग्रेजों से युध्द किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने को मजबूर किया।
  • जपान सरकार के निवेदन के अनुसार सुभाषचंद्र बोस एक विमान से टोकियो जाने के लिये निकले उस विमान को फोर्मोसा मतलब ताइहोकू व्दिप के हवाई अड्डे के पास दुर्घटना हुयी। इस दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को नैताजी की मृत्यु हो गयी।
  • बचपन से ही सुभाष में राष्ट्रीयता के लक्षण प्रकट होने लगे थे और निस्वार्थ सेवा भावना उनके चरित्र की विशेषता थी। इन सभी उदात्त प्रवुत्तियों से ही उनके क्रांतिकारी पर उदार व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था।
 
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