"यूरोप में रहकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की मशाल जलाने वाले बेमिसाल योद्धा थे, श्याम जी कृष्ण वर्मा"
क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि वो कौन है, जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध इंग्लैंड में ही,इंडिया हाऊस की स्थापना की और वीर सावरकर की उसमें क्या भूमिका थी ?क्या आप जानना नहीं जानना चाहेंगे कि वो कौन है जिसने यूरोप में रहकर 25 वर्ष भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए सर्वस्व अर्पित किया? वो कौन है जिसकी राष्ट्रभक्ति से स्विट्जरलैंड की सरकार इतनी प्रभावित थी कि उनकी अस्थियाँ वहीं सुरक्षित रखी गईं? आखिर यूरोप और अमेरिका से भारत के स्वाधीनता संग्राम में पूर्णाहुति देने वालों के बारे में इतिहास में इतनी चुप्पी क्यों है? वहीं गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह पर किताबें लिख गईं उन्होंने पाखाना साफ किया तो सुर्खियां बन गई उनकी बकरी भी इतनी महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी कि उसकी बांधने की रस्सी भी संग्रहालय में शोभायमान है, उनकी चम्मच की भी कहानी है परंतु पं. राम प्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी वाली रस्सी का पता नहीं चल सका है और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियां भी बाट जोहती रह गईं।
भारत के स्वाधीनता संग्राम का कितना दुखद पहलू है कि बरतानिया सरकार के साथ कंधा से कंधा मिलाकर डोमिनियन स्टेट्स की मांग करते हुए शासन में सहभागिता करने वाले सत्ता के भूंखे राजनेता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बन गए आखिर ये क्या षड्यंत्र है कि बरतानिया सरकार के साथ शासन भी करते रहे और स्वाधीनता संग्राम भी लड़ गए? लेकिन अब समझ आता है कि वह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था वरन् सत्ता के लिए संघर्ष था!!!
परंतु जिन महारथियों ने बरतानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया उसे बरतानिया सरकार के साथ उपर्युक्त सत्ता के भूंखे दल के राजनीतिज्ञों, का भी सामना करना पड़ा, इन दोनों ने मिलकर क्रांतिकारियों को ठिकाने लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
क्रांतिकारियों के मर जाने के बाद भी इन दोनों ने पीछा नहीं छोड़ा और वामपंथियों के कुत्सित सहयोग से इतिहास में इन्हें लुटेरा, डकैत और आतंकवादी के रुप में स्थान दिया। यहाँ तक कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी फासिस्ट कह कर उनका भी मजाक बनाया।
परंतु अब युवा पीढ़ी के सामने सच आ रहा तो वह दल जो बरतानिया सरकार के साथ कंधा से कंधा मिलाकर शासन करते करते स्वतंत्रता के उपरांत भारत पर शासन करने लगा था अब उसका अस्तित्व संकट में है और आप देखना कि जब अमृत काल भारत के स्वाधीनता संग्राम का सही इतिहास सामने आएगा तो वह दल पतन के गर्त में समा जाएगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन का यही दुखद पहलू रहा है कि उसमें वामपंथी और तथाकथित सेकुलर इतिहासकारों ने भारत के क्रांतिकारियों के योगदान को धूमिल करके रख दिया, फिर तो विदेशों में हो रहे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्रांतिकारियों के प्रयासों की अनदेखी करना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। भारत के बहुत से महान क्रांतिकारी विदेश में संघर्षरत थे, इंडिया हाउस और गदर पार्टी के बारे में तो थोड़ा बहुत पता है परंतु यूरोप और अमेरिका में अभी भी बहुत कुछ शोध सामग्री है जिसका उपयोग नहीं किया गया है। इसलिए श्याम जी कृष्ण वर्मा जी जैंसे अन्य क्रांतिवीरों पर भी विस्तृत शोध अपेक्षित है।
यूरोप में रहकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन
के बेमिसाल नायक एवं क्रांतिकारियों के प्रणेता अद्वितीय एवं अद्भुत महारथी थे - श्रीयुत श्याम जी कृष्ण वर्मा। आपका जन्म 4 अक्टूबर 1857, मांडवी, गुजरात में एवं देहावसान 31 मार्च 1930 जेनेवा (स्विट्जरलैंड) में हुआ था।
श्याम जी कृष्ण वर्मा संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और उच्च कोटि के पत्रकार थे। वे भारत के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्हें आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से एम. ए. और बार-एट-ला की उपाधियाँ प्राप्त हुईं थीं। इंग्लैंड में सन् 1905 में "इंडिया हाऊस" की स्थापना की, जो भारतीय क्रांतिकारियों के लिए वरदान साबित हुआ।
यद्यपि इंडिया हाऊस भारतीय विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए खोला गया था परंतु मूलतः क्रान्तिकारियों के लिए था - सर्वश्री लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर जी, मदनलाल धींगरा सहित अन्य महान् क्रांतिकारियों ने यहीं से सारी योजनाएं संचालित कीं। महान् वीरांगना भीकाजी कामा भी यहाँ रहीं थीं। भारतीयों के लिए 2-2 हजार रुपये की 6 फैलोशिप शुरु कीं, जिनमें गुरु गोविंद सिंह फैलोशिप और शिवाजी फैलोशिप उल्लेखनीय हैं। भारत में क्रांतिकारियों के लिए पिस्तौल और बम की आपूर्ति में विशेष भूमिका थी।
श्रीयुत मदन लाल धींगरा द्वारा कर्जन वायली का इंग्लैंड में वध कर देने से श्याम जी कृष्ण वर्मा पर अंग्रेजों का संदेह गहरा गया था। "धींगरा" फैलोशिप भी प्रारंभ की।अंग्रेज श्याम जी कृष्ण वर्मा को पकड़ पाते इसके पूर्व ही उन्होंने अपना रहवास बदल लिया और फ्रांस चले गए, यहाँ भी अंग्रेजों ने पीछा नहीं छोड़ा इसलिए, महारथी श्याम जी कृष्ण वर्मा जिनेवा (स्विट्जरलैंड) चले गए और मृत्यु पर्यन्त (31 मार्च 1930) तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।
स्विट्जरलैंड की सरकार श्याम जी कृष्ण वर्मा से अत्यंत प्रभावित थी इसलिए उनके मरने के बाद उनकी अस्थियाँ सुरक्षित रखी गईं। हम स्वाधीन हो गये और स्वतंत्रता का इतिहास भी लिखा गया परंतु एक दल विशेष के समर्थक और वामपंथी इतिहासकारों ने इस महारथी के अवदान को 4-5 पंक्तियों में निपटा दिया गया और उनकी अस्थियों की किसी ने सुध न ली। 22 अगस्त 2003 को तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्विट्जरलैंड से उनकी अस्थियाँ ससम्मान मंगवाई और "क्रांति तीर्थ" बनवाकर सुरक्षित कीं - एतदर्थ उनका अनंत कोटि आभार है।
लेखक - डॉ. आनंद सिंह राणा