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पत्रकारिता और साहित्य में स्व के उद्गाता पं.माखन लाल चतुर्वेदी

Date : 03-Apr-2025

काल प्रवाह की गति अपने नियत क्रम में अबाध गति से निरंतर गतिमान रहती है और आज का वर्तमान पलक झपकते कल अतीत में परिवर्तित हो जाता है। वर्तमान हमारे साथ निकटता से संबद्ध रहता है इसलिए उसकी अनुभूति सामान्य और सहज रहती है किंतु जब वही वर्तमान अतीत से परिवर्तित होता है, तब हमारे लिए उसकी कालातीतता  महत्वपूर्ण बनकर प्रस्तुत होती है और हमें उसकी महत्ता का बरबस बोध कराने लगती है। 

कालजयी कविता "पुष्प की अभिलाषा" का स्मरण करते ही माँ भारती के पटल पर एक ऐंसा व्यक्तिव उभरता है, जिसे साहित्य देवता के रुप में अलंकृत किया गया है। राष्ट्रधर्म के संकल्पित सेनानी, प्रखर पत्रकार, सजग सर्जक और राष्ट्र की पुकार को अपनी वाणी में अभिमंत्रित करने वाले चतुर्वेदी जी का संपूर्ण जीवन और कृतित्व हमारे गौरवमय राष्ट्रीय इतिवृत्ति का एक महत्वपूर्ण संदर्भ है। संयोग और सौभाग्य से जबलपुर वासियों के लिए भी यह कम गौरवपूर्ण प्रसंग नहीं है, कि उनके जीवन के हलचल युक्त तीन-चार वर्ष इस नगर में ही व्यतीत हुए थे।

एतदर्थ माखनलाल चतुर्वेदी जी पर कुछ लिखने से पूर्व उनके जीवन वृत्त और जबलपुर से उनके रिश्ते पर प्रकाश डालना उचित जान पड़ता है। यद्यपि 'एक भारतीय आत्मा' 'साहित्य देवत' राष्ट्र कवि -महान् संपादक - महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्रीयुत माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल को होशंगाबाद में हुआ था,परंतु उत्कर्ष जबलपुर से आरंभ हुआ था। 

मिडिल स्कूल की परीक्षा हेतु जबलपुर आगमन हुआ था उसके उपरांत 1921 में 8 माह का कारावास - सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के चलते - सेठ गोविंद दास, पं रविशंकर शुक्ल, पं द्वारका प्रसाद मिश्र और विष्णु दयाल भार्गव जी के साथ 2 वर्ष का कठिन कारावास की सजा मिली थी -प्रथमत:जबलपुर से ही महान् समाचार पत्र "कर्मवीर" का प्रकाशन आरंभ हुआ था.. बाद में खंडवा से प्रकाशित हुआ।

 मासिक प्रभा मासिक पत्र और महान् पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ्तारी के उपरांत उनके समाचार पत्र "दैनिक प्रताप" का संपादन किया। आपके साहित्यिक संसार की प्रमुख रचनाएँ हैं - हिम किरीटनी, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, साहित्य देवता, कला का अनुवाद, कृष्णार्जुन युद्ध, मरण ज्वार, समय के पांव, वेणु की गूंजे धरा आदि।

 8 वर्ष की उम्र में आपने कुछ इस तरह अपनी पहली कविता लिखी----

 "धनीराम की पोली पाई, उसमें से निकली द्रोपदी बाई.. द्रोपदी बाई ने बिछाई खाट, उसमें से निकला काशी भाट.. काशी भाट की लंबी दाढ़ी, उसमें से निकला मुल्ला बाढ़ी।" 

राष्ट्र के प्रति समर्पित ये पंक्तियाँ देखिए --

"प्यारे भारत देश.. गगन गगन तेरा यश फहरा.. पवन पवन तेरा वक्त घहरा.. क्षिति जल नभ पर डाल हिंडोले.. चरण चरण संचरण तुम्हारा.. ओ ऋषियों के त्वेष.. प्यारे भारत देश। "

 और" बेटी की विदाई "पर एक मर्मस्पर्शी चित्रण देखिए -

" यह क्या कि इस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैजन.. यह क्या कि इस आंगन सुने थे, वे मृदुल रुनझुन.. यह क्या कि इसी वीथी,तुम्हारे तोतले से बोल फूटे.. यह क्या कि इसी वैभव बने थे,चित्र हँसते और रुठे.. आज यादों का खजाना, याद भर रह जाएगा क्या?.. यह मधुर प्रत्यक्ष,सपनों के बहाने जाएगा क्या? जबलपुर से कर्मवीर का प्रकाशन व्यौहार रघुवीर सिंहा ने करवाया था । यही कारण है कि जबलपुर में पं. माखनलाल चतुर्वेदी जी  का निवास स्थान वर्षों तक व्यौहारनिवास-पैलेस  रहा ।

अब आगे यह कि चतुर्वेदी जी के संपादकत्व में साप्ताहिक कर्मवीर का प्रकाशन जबलपुर में 11 जनवरी 1920 को आरंभ हुआ। कर्मवीर का प्रकाशन केवल हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं वरन् महाकौशल अर्थात पुराने मध्य प्रांत और बरार  के समस्त हिंदी भाषी जिलों की ही एक महत्वपूर्ण घटना नहीं थी, वरन् उत्तर भारत के चारों हिंदी प्रदेशों की एक महत्वपूर्ण घटना थी।

सार्वजनिक रूप से प्रबुद्ध और युवक देशभक्तों का विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष के उद्घोष का शंखनाद था। अंग्रेजी शासन काल में निश्चय ही वह शौर्यवृत्ति से परिपूर्ण एक अभूतपूर्व साहसिक कार्य था। चतुर्वेदी जी के साथ ही खंडवा के कर्मवीर के सहकारी के रूप में ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान और उनके साथ उनकी पत्नी श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान भी आ गई जो आगे चलकर तो इसी नगर के ही हो गए। 

पंडित माधवराव सप्रे की प्रबल प्रेरणा और सतत् प्रयत्नों से सिहोरा के पंडित विष्णु दत्त शुक्ल, जबलपुर के पंडित गोविंद लाल पुरोहित और वर्धा के सेठ जमनालाल बजाज आदि अनेक संपन्न जनों के सक्रिय सहयोग से राष्ट्र सेवा लिमिटेड की स्थापना की गई थी और स्थानीय दीक्षितपुरा स्थित सिमरिया वाली रानी की कोठी में कर्मवीर कार्यालय का शुभारंभ हुआ था। 

तपोनिष्ठ सप्रे जी ने सन् 1907 में नागपुर से हिंदी केसरी का प्रकाशन आरंभ किया, सन् 1908 में हिंदी केसरी में माखनलाल चतुर्वेदी का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय आंदोलन का हिंदी भाषा से क्या संबंध है?" उक्त लेख के लिए चतुर्वेदी जी पुरस्कृत की गई। तब वह खंडवा के मिडिल स्कूल में शिक्षण कार्य कर रहे थे यही प्रसंग सप्रे जी के साथ उनके संपर्क सूत्र जोड़ने वाला हुआ।

 7 वर्ष बाद सन् 1915 में माखनलाल चतुर्वेदी से सप्रे जी की भेंट हुई खंडवा में भेंट हुई। सप्रे जी ने उनसे कहा - " मुझे मध्य प्रदेश के लिए एक बलि की जरूरत है, अनेक तरुण मुझे निराश कर चुके हैं, अब मैं तुम्हारी बर्बादी पर उतारू हूँ। माखनलाल तुम मुझे वचन दो कि अपना समस्त जीवन मध्य प्रदेश की उन्नति में लगा दोगे।" 

इस पर माखनलाल जी ने कहा - "यदि प्रांत के लिए मेरा उपयोग किया जा सके तो मैं आपके दरवाजे पर ही हूँ।" परिणाम यह हुआ कि कर्मवीर की योजना बनते ही माखनलाल चतुर्वेदी संपादक होकर आ गए और सप्रे जी के समर्पित अनुगामी होकर सक्रिय रहे। यों तो सन् 1913- 14 में ही श्री कालूराम गंगराडे के साथ मासिक प्रभा के संपादन में सक्रिय योगदान द्वारा वे यशार्जित कर चुके थे किंतु कर्मवीर ने उन्हें एक स्पष्ट नई दिशा और एक मंच सुलभ कराया। 

"कर्मवीर" केवल एक सामान्य समाचार पत्र नहीं था। उसका उद्देश्य था लोग जागरण और चतुर्वेदी जी भी केवल पत्रकार ही नहीं थे, वे तो प्रथमत: निष्ठावान देशभक्त थे। इसलिए अपनी वह ओजस्वी वाग्मिता तथा रचनात्मक भावना के साथ उन्होंने आठों याम सजग रहकर स्वाधीनता की अलख जगाने की दिशा में इस प्रदेश के युवकों - तरुणों की अगुवाई की और प्रबुद्ध वर्ग के बीच एक स्तरीय वातावरण के निर्माण में सफल हुए। 

कर्मवीर की प्रखर टिप्पणियों, राष्ट्र प्रेम से प्रसूत कविताओं और तेजस्वी वक्तृता के प्रहारों से आहत फिरंगी सरकार ने उन्हें 12 मई 1921 को राजद्रोह के अपराध में पहली बार कारादंड दिया। इस तरह वे राष्ट्र के लिए समर्पित सक्रिय सैनिकों की पहली पंक्ति में आ गए। इतने से भला विदेशी शासन चुप कैसे बैठने वाला था? कर्मवीर पर शासकीय आक्रमण  हुए। सजा, जमानत, जब्ती आदि के आघातों को सहते हुए, नागपुर में झंडा सत्याग्रह किए जाने के पूर्व ही कर्मवीर का प्रकाशन अंततः  जबलपुर से बंद हुआ। जिसे  बाद में 4 अप्रैल 1925 को खंडवा से आरंभ कर जीवन के अंत तक संपादित संचालित किया। 

कर्मवीर के अंकों में संपादकीय टिप्पणी के ऊपर अंकित निम्नलिखित इस पद्यांश से युगावहान की भावना स्पष्ट होती है-

"कर्म में है अपना जीवन प्रान, 

कर्म में बसते हैं भगवान। कर्म है मातृभूमि का मान, 

कर्म पर आओ हों बलिदान! "

 राजनीतिक उथल-पुथल और हलचलों से भरी इस अवधि के बीच ही उन्होंने कुछ समय तक कानपुर जाकर श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रसिद्ध पत्र" प्रताप "के संपादन में भी हाथ बँटाया। कर्मवीर के आरंभ किए जाने का समय रोलेट एक्ट के समय का आतंकवादी युग था राजनीतिक चेतना से संबद्ध होना किसी भी स्थिति में खतरे से खाली नहीं था।

 ऐसे ही चरम वातावरण में पत्र के लिए घोषणा- पत्र हेतु आवेदन में आजीविका कमाने का उद्देश्य लिखा देने का एक मित्र द्वारा परामर्श दिए जाने पर वे जैसे मर्माहत हो गए और उस मनोभावना को उन्होंने अपनी इस छोटी सी कविता में प्रस्तुत कर दिया - 

"फिसल जाऊंगा ललचा रहे, 

तुम्हारी आज्ञा है मत हटो। लिए हुए दंड भेद कस रहे, 

और तुम कहते हो मर मिटा। 

अपवादों में जीवन प्राण, 

घूरते हैं, मुझे भगवान! जहां खुल पड़ती है जरा जबान, 

बनाते कांटों वाला स्थान, पाप से मिटती हो तो देव, नहीं देशभक्ति की चाह। कहो व्याकुल हूँ, कैसे करुं? 

बताओ परम मुक्ति की राह। "

उन्होंने स्वयं बार-बार करावासों का कष्ट झेला और बिना किसी महत्वाकांक्षा की परितुष्टि की अपेक्षा किए ही भौतिक सुख - समृद्धि की अभिलाषाओं का सहज भाव से परित्याग किया।

 जातीय जीवन की स्वाधीनता की कामना जो बलिदान चाहती थी उस समर्पण के भाव को माखनलाल चतुर्वेदी ने भली - भांति हृदयंगम कर उसे अपने जीवन में आठों याम धारण कर लिया था। लक्ष्य पूर्ति की दिशा में विनम्र समर्पण के अतिरिक्त उनके सामने और कोई कामना ना थी। उन्होंने अपने को एक  सिपाही की भूमिका में कल्पित कर 1924 में ही कहा था-

"गिनो मेरी श्वांस, छुए क्यों मुझे विपुल सम्मान? भूलो ए इतिहास, खरीदे हुए विश्व - ईमान।। 

और- मुंडों का दान, रक्त तर्पण भर का अभिमान, लड़ने तक महमान,  एक पूंजी है तीर कमान। 

मुझे भूलने में सुख पाती, जग की काली स्याही, दासो दूर, कठिन सौदा है मैं हूँ एक सिपाही।। "

सन् 1916-17 का समय ऐसा था, कि जब उत्तरी भारत के वायुमंडल में लोकमान्य तिलक की विचारधारा की गर्माहट युवकों - तरुणों के मन प्राणों को ऊर्जस्वित - अनुप्रेरित स्रोत कर रही थी। सबको निष्काम भावना से संघर्ष और शूरता अभीष्ट सिद्धि के लिए आवश्यक लग रही थी, तब कृष्ण की भाव- भूमि से विचार और अभिप्रेरणा प्राप्त करने की भावधारा से प्रेरित होकर माखनलाल जी ने कृष्णार्जुन - युद्ध नामक नाटक की रचना की, जो कि जबलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, सप्तम अधिवेशन के अवसर पर मंचित किया गया और विद्वज्जनों द्वारा मुक्त कंठ से सराहा गया। नाटक के लेखक के रूप में वे सुवर्ण पदक से पुरस्कृत भी हुए। 

चतुर्वेदी के सृजन का फलक बहुत विस्तृत और वैविध्यपूर्ण है। उन्होंने काव्य, नाटक आदि ललित साहित्य के अतिरिक्त सुष्ठु और समर्थ गद्य में प्रचुर  परिमाण में रचनाएँ की हैं।  कहानियाँ और उनके विचार पूर्ण निबंध अपूर्व विधायकता  एवं प्रबुद्धता से भरे हैं। उनकी अलंकारिक निबंध शैली एक अनूठी शब्द लयमयता से आप्लावित  है। हिंदी के विरले निबंध लेखकों में ऐसा सुंदर भाव- प्रवाह और शब्द योजन दिखाई पड़ता है, और स्पष्ट ही "गद्य ही कविता का निकष है" इस प्राचीन युक्ति को चरितार्थ करता है। 

समूचे हिंदी जगत में चतुर्वेदी जी अपने ढंग के अनूठे वक्ता थे। उनकी वक्तृताएँ तो मानो गद्य- काव्य की स्रोतस्वनी ही थीं।

विचारों की अनूठी उपमाओं और नियोजित संकेतों के माध्यम से विचार प्रस्तुत करने की कला उन जैसी कदाचित् ही अन्य वक्ताओं में परिलक्षित हुई हो। इंदौर में साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अवसर पर स्वयं गांधी जी ने कहा था-" हम सब तो मंच पर केवल बात करते हैं- भाषण तो केवल माखनलाल ही देता है।"

लेखक - डॉ. आनंद सिंह राणा

 
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