और डोनाल्ड ट्रंप के कदमों से दुनिया भर में अनिश्चितता फैल गई है और बराबरी के शुल्क की धमकी देकर उसने भारत की शुल्क व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। ऐसे में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अफसरशाही कम कर प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाने का वक्त आ गया है। बजट में उल्लिखित विनियमन के अलावा भारत को सरकार का आकार घटाना होगा यानी न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का वादा पूरा करना होगा, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में किया था।
केंद्र और राज्य सरकारों का कुल खर्च 1980 के दशक में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 10 प्रतिशत था, जो 1991 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया। तब से यह अधिक ही बना हुआ है। आज सरकार जीडीपी का करीब 28 प्रतिशत खर्च करती है। दक्षिण कोरिया भी इतना ही खर्च करता है मगर थाईलैंड, इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे आसियान देश कम खर्च करते हैं। तीन दशक से ऐसा ही चल रहा है, जबकि चीन और दक्षिण कोरिया में तेज वृद्धि के दौरान भी सार्वजनिक खर्च जीडीपी के 20 प्रतिशत से कम था। यह हाल में बढ़ा है। पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के राजकोषीय अनुशासन पर बात कम होती है मगर उनकी कामयाबी में इसका बड़ा हाथ है।
कुछ विशेषज्ञ जीडीपी की तुलना में कर के अनुपात का हवाला देते हुए कहते हैं कि सरकार का आकार बहुत बड़ा नहीं बल्कि बहुत छोटा है। 2024-25 में यह अनुपात 18.6 प्रतिशत रहा, जो भारत के आय स्तर को देखते हुए कम नहीं है। जीडीपी की तुलना में कुल राजस्व का अनुपात 22 प्रतिशत रहा, जो और भी ज्यादा है। वे ज्यादा शिक्षकों, स्वास्थ्यकर्मियों, तकनीकी कर्मचारियों तथा विदेश सेवा अधिकारियों की जरूरत भी बताते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार और भी खर्च करे। इसके बजाय दफ्तरों में गैर-तकनीकी कर्मचारियों की भीड़ घटाने और उन पर होने वाले खर्च से तकनीकी कर्मचारी रखने की जरूरत है। ज्यादातर भर्तियां भी केंद्र या राज्य के बजाय स्थानीय स्तर पर की जाएं क्योंकि केंद्र और राज्य कर्मचारियों के वेतनमान बहुत अधिक हैं।
भारत का सरकारी व्यय अधिक होने से राजकोषीय घाटा बढ़ गया है । 1990-91 से केंद्र और राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा जीडीपी का औसतन 7.8 प्रतिशत रहा है। इस कारण भारतीय रिजर्व बैंक को भी सरकारी उधारी की लागत कम रखनी पड़ी है। इसके लिए सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) का इस्तेमाल किया गया, जिसके कारण वाणिज्यिक बैंकों को सरकारी बॉन्ड खरीदने पड़ते हैं। एसएलआर कभी 39.5 प्रतिशत तक था और आज भी 18 प्रतिशत है। भारत के अलावा बांग्लादेश में ही एसएलआर लागू है मगर 13 प्रतिशत है। इस वित्तीय जबरदस्ती से राजकोषीय घाटे की भरपाई तो हो जाती है मगर इसका खमियाजा वाणिज्यिक बॉन्ड बाजार को उठाना पड़ता है और निजी क्षेत्र विशेषकर सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों को देसी पूंजी नहीं मिल पाती।
भारत का सार्वजनिक ऋण जीडीपी का 82 प्रतिशत है और बहुत ज्यादा है। 2030 तक इसे जीडीपी के 70 प्रतिशत पर लाने का प्रस्ताव है, रफ्तार बहुत धीमी है और तेज वृद्धि के अनुमानों पर आधारित है। सार्वजनिक पूंजीगत व्यय ठहर गया है और भारत को बाकी दुनिया की तरह रक्षा व्यय बढ़ाना होगा। इस बीच ट्रंप के कारण शुल्क में जो कमी करनी पड़ी है वह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी है मगर अभी उसके कारण राजस्व कम होगा। भारत को सरकारी सुधारों तथा निजीकरण तेज कर राजकोषीय गुंजाइश बनानी होगी। एयर इंडिया बिकने के बाद से ही निजीकरण रुका हुआ है।
भारत को एलन मस्क के नेतृत्व वाला डोज नहीं चाहिए बल्कि अधिक सावधानी से योजना बनानी होगी जैसे क्लिंटन प्रशासन में उप राष्ट्रपति अल गोर ने 1993 से 1996 तक किया था। उनके बजट अधिशेष के कारण सार्वजनिक कर्ज में बहुत कमी आई थी। चीन को 21वीं सदी के लिहाज से आधुनिक बनाने के लिए 1995-96 में तत्कालीन प्रधानमंत्री झू रोंग्जी के कार्यकाल में हुए प्रशासनिक सुधारों का भी अध्ययन किया जा सकता है।
लगातार वेतन आयोगों खासकर सातवें वेतन आयोग ने वेतन और पेंशन बहुत बढ़ा दिए, जिससे उच्च और निम्न वेतनमान में बहुत कम फर्क रह गया। इससे कम आय वाले सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्ते निजी क्षेत्र में उसी स्तर पर काम करने वालों की तुलना में बहुत ज्यादा हो गए। फिर सरकारी नौकरियों का इतना आकर्षण क्यों नहीं होगा? हाल में घोषित आठवां वेतन आयोग वेतन-पेंशन और भी बढ़ा देगा। जरूरी प्रशासनिक सुधारों के बगैर वेतन में यह बढ़ोतरी सरकारी खजाने को चोट ही पहुंचाएगी। सार्वजनिक व्यय में राज्यों की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से ज्यादा है, इसलिए प्रशासनिक सुधार भी राज्यों मे होने चाहिए। बिगड़े हुए राज्यों में राजकोषीय अनुशासन लाना आसान नहीं है क्योंकि केंद्र की गारंटी होने के कारण अपने घाटे की भरपाई के लिए उन्हें भी उसी ब्याज पर कर्ज मिल जाता है, जिस पर अनुशासित राज्य पाते हैं। 16वें वित्त आयोग को भी उन प्रोत्साहनों पर अतीत के आयोगों से ज्यादा ध्यान देना चाहिए, जो राज्यों में राजकोषीय अनुशासन बढ़ा सकते हैं।
लेखक - राकेश दुबे