कन्नौज के महाराज की कृपा से मातृगुप्त का कश्मीर के सिंहासन पर राज्याभिषेक हुआ। मातृगुप्त के सद्गुणों से आकृष्ट होकर बड़े-बड़े विद्वानों, कवियों और गुणज्ञों ने कश्मीर की राजसभा समलंकृत की।
महाकवि मेण्ठ सातवीं शताब्दी के महान कवियों में माने जाने थे। एक दिन राजा मातृगुप्त को द्वारपाल ने मेण्ठ के आगमन को सूचना दी, राजा ने उसका स्वागत किया। महाराज ने कवि से उसका प्रसिद्ध काव्य हयग्रीव के कुछ अंश सुनाने की प्रार्थना की तो कवि ने सर्वप्रथम राजा की प्रशस्ति की और फिर अपने काव्य के कुछ अंश सुनाये।
समस्त राजसभा काव्य-श्रवण के आनंद से झूम उठी, पर मेण्ठ का मुख उतरा हुआ दिखाई दिया। उनके नयनों में विस्मय था कि इतनी सुंदर रचना होने पर भी राजा ने काव्य श्रवण के समय एक बार भी साधुवाद नहीं किया। कवि मेण्ठ के मन में विचार उठा कि मातृगुप्त ने जीवन के पहले चरण में दरिद्रता का अनुभव किया और साथ ही साथ मुझे अपने से छोटा कवि समझा है। अपनी काव्य बुद्धि पर राजा को अभिमान हो गया है। ऐसे राजा से पुरस्कार की भी आशा नहीं की जा सकती।
मेण्ठ ने काव्य सुनाने के बाद खिन्न मन से उसके पत्रों को वेष्टन में बाँधना आरंभ किया कि सहसा मातृगुप्त ने पत्रों के नीचे एक स्वर्ण पात्र रखवा दिया। राजा के जीवन में यह अपूर्व कार्य था। विद्वानों और राज मंत्रियों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
"इस पात्र को नीचे रखने की कोई आवश्यकता नहीं है महाराज!" कवि ने स्वाभिमान प्रकट करते हुए कहा।
"कविवर! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं। आप जानते ही है कि इस काव्य में कितना अमृत भरा हुआ है। इसकी एक कणिका भी भूमि पर गिर पड़ती तो मुझे कितना दुःख होता। मैं धन्य हो गया मित्र।"
मातृगुप्त ने सिंहासन से उठकर मेण्ठ को हृदय से लगा लिया।
जनता ने अपने नरेश का जयनाद किया और बोली" आज आपके शासनकाल में श्री और सरस्वती का अपूर्व संगम हुआ है महाराज!"
"और मुझे सच्ची प्रशंसा मिल गयी।" यह कहकर मेण्ठ ने मातृगुप्त की ओर देखा।
ऐसा लगता था मानो चंद्रमा सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा है, अमृत दान के लिए।