‘मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूं। इक्ष्वाकु वंश की ये दोनों संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। असंख्य संतानों की मां, धरती का अंश अब मैं अपनी मां के सानिध्य में जाना चाहती हूं। चलते-चलते बहुत थक चुकी हूं, मानो शक्ति क्षीण हो गई है। पुनः शक्ति प्राप्ति के लिए धरती ही उपयुक्त स्रोत है। मैं कुश एवं लव की जननी अपनी जननी का आलिंगन करना चाहती हूं, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूं।’
आत्मकथात्मक शैली में लिखे गए मृदुला सिन्हा का उपन्यास ‘सीता पुनि बोली’ देवी सीता की एक महान गाथा है खुद सीता की जुबानी। सवाल है कि मृदुला जी ने इस महान देवी स्वरूप चरित्र की आत्मकथा लिखने की क्यों सोची। जबकि जन-जन में देवी सीता की कथा रची-बसी है, ठीक रामकथा की तरह।
इसका जवाब खुद मृदुला जी ‘सीता पुनि बोली’ किताब की लंबी-चौड़ी भूमिका में देती हैं- ‘इस सवाल के बावजूद मुझे सीता की आत्मकथा लिखना आवश्यक लगता था। इसलिए पुराणों, लोक-साहित्य रामलीलाओं और सभागारों की हजारों गोष्ठियों में रामकथा के सोपानों पर सीता के मन को बहुत कम समझा गया है। सच तो यह है कि राम की सहधर्मिता सीता परोक्ष और अपरोक्ष रूप से उनसे अभिन्न होकर भी भिन्न थीं। राम के साथ इस भिन्न और अभिन्न व्यक्तित्व को रामचरित-चित्रण में समाया नहीं जा सकता था। उसकी भिन्नता और अभिन्नता का आकलन अवश्य शेष रहा है। ऐतिहासिक भारतीय नारी की आत्मिक शक्ति और तदनुकूल चारण का भी, जो आज साधारण नारियों का भी संबल और धरोहर है।’
स्पष्ट है कि देवी सीता के पक्ष और दृष्टिकोण को समझने के लिये मृदुला जी ने जो प्रयास किये वैसे कई प्रयास लेखकगण वर्षों से कर रहे हैं। फिर भी उनके चरित्र की गहराइयों को समझने में हम सफल नहीं हो पा रहे हैं। क्यों, क्या, परंतु, लेकिन जैसे शब्द जुबान पर आ-जा रहे हैं।
प्रश्न है कि जैसे हम एक आदर्श चरित्र मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के बारे जानते हैं, क्या उसी तरह उनकी अर्धांगनी माता सीता को भी जानते और समझते हैं? आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण, तुलसीदास कृत रामचरितमानस, तमिल कवि कंबन, बांग्ला कवि रचित रामकथा, साथ ही जनश्रुतियों में व्याप्त तमाम रामकथाएं, रामलीलाओं की रामकथा आदि में क्या हम सीता को राम के परिप्रेक्ष्य में ढूंढ़ पाते हैं? सीता महाशक्ति हैं, जगत जननी हैं, काली, लक्ष्मी स्वरूपा हैं, पर एक मनुष्य के रूप में सीता क्या हैं। एक राजमहल में पली-बढ़ी सीता ने जीवन के इतने कष्टों को कैसे और क्यों स्वीकार किया। क्या सोचकर वे पति के साथ चौदह वर्षों के लिए जंगलवास के लिए चल दीं। जंगल में उन्होंने इतने कष्टों का सामना कैसे किया। यहां तक छलपूर्वक जब रावण उन्हें लंका उठा ले गया, तो वे कैसे लंका में दृढ़तापूर्वक अपने पति का इंतजार करती रहीं। यह किस तरह का विश्वास था?
रावण का वध और राम की विजय के बाद अग्निपरीक्षा का आदेश। उन्होंने अग्निपरीक्षा क्यों स्वीकार की। वे इनकार भी कर सकती थीं। फिर अयोध्या लौटने के बाद राजा राम ने महारानी सीता का त्याग कर दिया राजधर्म का पालन करने के लिए। सीता ने इसे कैसे स्वीकारा और सहा होगा? फिर जंगल में अपने दो पुत्रों का लालन-पालन और अंत में उन्हें उनके पिता श्रीराम को सौंपकर अपनी मां धरती की गोद में समा जाना। इस पूरी सीता कथा को देवी सीता के माध्यम से समझने के लिए जनमानस उद्वेलित हो रहा है। आज बड़े स्तर पर सीता नवमी या जानकी नवमी के माध्यम से माता सीता को मनन करने का प्रयास जनसाधारण कर रहा है। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के बाद ‘माता सीता का मंदिर होना चाहिए’ की जनाकांक्षाएं हिलोरे मार रही हैं। तो क्या यह सबसे अनुकूल समय है माता सीता पर पर बात करने का।
राम नवमी के ठीक एक महीने बाद सीता नवमी मनाई जाती है। पूरे मिथिलांचल में जानकी-सीता नवमी मनाई जाती है। इधर, कई सालों से जानकी नवमी मिथिलांचल के बाहर भी मनाई जाने लगी है। इसके बारे में सीएसटीएस की फाउंडर डाॅ. सविता झा बताती हैं कि हमारे यहां के कवि स्नेहलता सीता के अनन्य भक्त थे। उन्होंने सीता को लेकर काफी लिखा और वे सीता का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया करते थे। इसी तरह वैदेही फाउंडेशन के सर्वेसर्वा अमरनाथ झा कहते हैं कि राम को ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ सीता ने ही बनाया है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम का जन्म देश-विदेश तक मनाया जाता है, पर जिन सीता माता का जन्मदिन और उनकी जन्मस्थली तक के बारे लोग ठीक से नहीं जानते हैं।
जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की धर्मपत्नी, राजा दशरथ-कौशल्या की प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की मां समान भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों में बंधी सीता की कहानी आज भी जन-जन के हृदय में रची-बसी है। तो इसका कोई तो खास कारण होगा। देवी सीता एक ऐसा चरित्र हैं, जो कई कारणों से निरीह और कई कारणों से बहुत ही सबल प्रतीत होता है। सीता का संघर्ष और परिस्थितिजन्य संकटों से दृढ़तापूर्वक सामना करना उनके चरित्र को ऐतिहासिक ऊँचाई देता है। इसलिए सीता का चरित्र तमाम पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों से अधिक ऊँचा स्थान बनाए हुए है। उनका यही संघर्षात्मक रूप भारतीय संस्कृति के भी अनुकूल है। भारतीय जन में देवी सीता की लोकप्रियता का भी यही कारण है।
लेखिका -- प्रतिभा कुशवाहा