उस रात शकारि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की नींद आधी रात में ही टूट गयी थी। राजभवन में दीप टिमटिमा रहा था। अंगीठी जल रही थी। हेमन्तकालीन शीत अपने पूर्ण यौवन पर था। रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। प्रहरी सब सो रहे थे। सम्राट् ने आवाज दी-"कौन जाग रहा है?"
"आपका सेवक ।" मातृगुप्त ने शयनकक्ष में प्रवेश कर दीप की लौ तेज कर दी। वह शीत से काँप रहा था। देह पर एक साधारण सा वस्त्र था। ठंड से उसके ओठ फट गये थे। मुख पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिखाई दे रहीं थीं। नींद से परित्यक्त था वह अभागा और सत्पात्र को दी गयी पृथ्वी के समान रात समाप्त होना ही नहीं जानती थी। शयनकक्ष का पट बंद कर वह पहरे पर आ गया था।
उसे देख सम्राट् का हृदय द्रवित हो गया। मातृगुप्त उच्च कोटि का प्रशासक और कवि था। अनेक राजाओं और सामन्तों ने समय-समय पर उसका सम्मान भी किया था। पर अपनी योग्यता का प्रमाण पत्र वह कान्यकुब्जेश्वर चंद्रगुप्त से पाना चाहता था।
महाराज ने सदा उसके प्रति उपेक्षा दिखाई थी. पर यह विलित नहीं हुआ। वह जानता था कि सम्राट् उच्च कोटि के साहित्य मर्मज हैं और व्यवहार कुशल शासक हैं। वे किसी न किसी दिन मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मुझे पुरस्कृत अवश्य करेंगे। वह इस प्रकार सोच ही रहा था कि महाराज ने उसके हाथ में एक भोज पत्र दिया। वह देते हुए उन्होंने कहा "यह पढ़ा नहीं जायेगा। शपथ है। इसे कश्मीर का मंत्रिमण्डल ही पढ़ सकता है।" इतना कहने के उपरांत उन्होंने उसे कश्मीर जाने का आदेश दिया।
कश्मीर राज्य की सीमा में प्रवेश करते ही उसे पता चला कि मंत्रिमण्डल किसी आवश्यक कार्य से कांबुक घाटी में पहुँचा हुआ है। मातृगुप्त भूखा और प्यासा था. फिर भी वह आगे बढ़कर कांबुक पहुंच गया। उसने वह राजमुद्रांकित पत्र मंत्रिमण्डल के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।
"क्या मातृगुप्त आप ही हैं?" मंत्रियों के मुख से अपना नाम सुनकर कवि आश्चर्य चकित हो गया। मंत्रियों ने कहा कि सम्राट् का एक दूत आपसे पहले यहाँ पहुंच चुका है। हम लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने राज सिंहासन की ओर संकेत किया।
"पधारिये, कश्मीर का राज सिंहासन सम्राट् ने आपको सौंपा है। वे आपकी सच्ची सेवा और निष्कपटता से बहुत प्रसन्न हैं।"
मंत्रियों ने वैदिक विधि से कश्मीर के धर्म सिंहासन पर मातृगुप्त का राज्याभिषेक कर दिया।
मातृगुप्त ने सम्राट् विक्रमादित्य के पास आभार पत्र भेजा, जिसका आश्य था-"आप उपकार से तथा गर्वयुक्त भाषण से दान की इच्छा प्रकट किये बिना ही दे दिया करते हैं। शब्दरहित मेघ के द्वारा की गयी वृष्टि के समान आपकी प्रसन्नता फल से ही गिनी जाती है।"
मातृगुप्त ने अग्नि परीक्षा में सफलता प्राप्त की।