बाजीराव पेशवा की मरहठी सेना ने निजाम की फौज को चारों ओर से घेर लिया। उसके रसद तथा हथियार मिलने के जो रास्ते थे, वे सारे बन्द हो गये। इन्हीं दिनों मुहर्रम का त्यौहार आ गया, मगर घेरे में पड़े निजाम के शिविर में भूखों मरने की नौबत आ गयी थी। विवश हो निजाम ने पेशवा को पत्र लिखा - "क्या हमारे सिपाहियों को त्यौहार के दिनों में भी भूखों मरना पड़ेगा? हमने तो सुना था कि पेशवा बहादुर होने के साथ ही रहमदिल होते हैं और वे भूखे दुश्मन पर वार नहीं करते ?"
पेशवा ने निजाम का पत्र अपने अष्टप्रधानों के सामने रखा। वे सभी एक स्वर में बोले, "निजाम पर दया करना ठीक नहीं।" किन्तु पेशवा ने कहा, "मरहठे वीर हैं, पर साथ ही मनुष्य भी हैं। वीरता का यह तकाजा है कि शत्रु को अवश्य पराजित किया जाये, पर मानवता की यह अपेक्षा होती है कि क्षुधित शत्रु को भी भोजन दिया जाये।" और पेशवा की आज्ञा से निजाम के पास रसद की गाड़ियाँ भेज दी गयीं।