गुरु परंपरा की महिमा अपार है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान अत्यंत पूज्य माना गया है। इसी गौरवशाली परंपरा में सिख धर्म के पंचम गुरु अर्जन देव जी का स्थान विशिष्ट है। 30 मई को उनका शहीद दिवस है। उनके विचारों में संपूर्ण जीवन-दर्शन की झलक है। उन्होंने अपने जीवन और विचारों के माध्यम से संपूर्ण मानव जाति को सत्य, सेवा और समर्पण का मार्ग दिखाया। गुरु अर्जन देव न केवल धार्मिक संत, बल्कि महान समाज सुधारक, कुशल संगठक और ज्ञान के अद्वितीय स्रोत थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मानवता की सर्वोच्चता को महत्व दिया। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे और बिना किसी भेदभाव के सभी की सहायता और सेवा करते थे। उनके पास दूर-दूर से विभिन्न धर्मों और आस्थाओं के लोग ज्ञान, शांति और मार्गदर्शन की खोज के लिए पहुंचते थे।
एक बार एक श्रद्धालु उनके पास पहुंचा और अत्यंत भावुक होकर कहने लगा कि गुरुजी, आपकी संगति में रहकर मैंने जीवन का सच्चा मार्ग जाना है। अब मैं लड़ाई-झगड़ों से दूर रहता हूं, सत्य के मार्ग पर चलता हूं और लोगों से प्रेम करता हूं, इसीलिए अब लोग भी मुझसे स्नेह करने लगे हैं। पहले कोई मेरा चेहरा तक नहीं देखना चाहता था लेकिन अब सभी मुझसे स्नेहपूर्वक मिलते हैं। यह सुनकर गुरु अर्जन देव मुस्कराए और बोले कि यदि समस्त मानव जाति इस सत्य का बोध कर ले तो यह संसार स्वर्ग बन जाएगा। उस श्रद्धालु ने स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक थैली निकालकर गुरु जी की ओर बढ़ाई और आग्रहपूर्वक कहा कि मैं आपको यह भेंट देना चाहता हूं। उन्होंने विनम्रतापूर्वक स्वर्ण मुद्राएं लेने से मना कर दिया और कहा कि ज्ञान अनमोल होता है, उसका कोई मूल्य नहीं होता। यह निःस्वार्थ और निःशुल्क दिया जाता है। श्रद्धालु ने फिर भी आग्रह किया कि यह ज्ञान की कीमत नहीं बल्कि उसकी श्रद्धा का प्रतीक है। इस पर गुरु अर्जन देव ने कहा कि यदि तुम सचमुच कुछ देना ही चाहते हो तो इस ज्ञान को दुनिया में बांटो क्योंकि ज्ञान प्रसाद की भांति होता है और इसका वितरण ही इसकी सच्ची पूजा है। श्रद्धालु यह सुनकर भावविभोर हो गया और गुरु जी के चरणों में नतमस्तक होकर बोला कि आज आपने मुझे जीवन का सबसे बड़ा सत्य बता दिया।
गुरु अर्जन देव का जीवन अनेक शिक्षाप्रद प्रसंगों से भरा है। एक बार बाला और कृष्णा नामक दो पंडित गुरु अर्जन देव के पास आए और बोले कि महाराज! हम कथा सुनाकर दूसरों को आत्मिक शांति तो देते हैं लेकिन स्वयं हमारे मन को शांति नहीं मिलती। हम क्या करें? गुरु अर्जन देव ने उन्हें बहुत सरल लेकिन गहन उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि जब तक तुम कथा वाचन को धन प्राप्ति का माध्यम समझकर करते रहोगे, तब तक तुम्हारा मन कभी शांत नहीं हो सकता। जब तक कर्म में निष्काम भाव नहीं होगा, तब तक आत्मिक शांति मिलना असंभव है। उन्होंने पंडितों से कहा कि कथा करते समय अपने मन को शुद्ध करो, कथा को परमात्मा की उपस्थिति में किया गया एक पवित्र कार्य मानो और जो उपदेश दूसरों को देते हो, उसे स्वयं भी जीवन में उतारो। यही वह मार्ग है, जिससे तुम्हारा चंचल और अशांत मन भी सच्ची शांति का अनुभव करेगा।
गुरु अर्जन देव के ये उपदेश आज भी सार्थक और मूल्यवान हैं। गुरु अर्जन देव केवल उपदेशक नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने जीवन में हर उस आदर्श को जिया, जो वे दूसरों को सिखाते थे। उन्होंने सेवा, विनम्रता और त्याग की ऐसी मिसाल पेश की, जो युगों-युगों तक स्मरणीय रहेगी। आज के यांत्रिक और आत्मकेंद्रित युग में जहां मानवता हाशिये पर पहुंच गई है और लोग मानसिक अशांति से जूझ रहे हैं, वहां गुरु अर्जन देव के विचार एक प्रकाश स्तंभ की तरह मार्गदर्शन करते हैं। गुरु अर्जन देव का मानना था कि मन की शांति ही सच्चे सुख का मार्ग है। भौतिक वस्तुएं चाहे कितनी भी मिल जाएं लेकिन यदि मन अशांत है तो व्यक्ति कभी भी सच्चा सुख अनुभव नहीं कर सकता। उन्होंने जीवनभर सेवा, संतोष और आत्मसमीक्षा को प्राथमिकता दी।
आज अधिकांश लोग मानसिक अशांति, चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं से ग्रसित हैं। इसका मूल कारण यही है कि लोग अपने जीवन में आत्मसंतोष नहीं पा पाते। जब तक मन में संतुष्टि नहीं होगी, तब तक शांति भी नहीं मिल सकती। आत्मसंतोष और आंतरिक संतुलन ही सच्ची मन की शांति का मार्ग है। मन को शांत रखने का सबसे अच्छा उपाय है, सेवा का भाव, निष्काम कर्म और सत्य के मार्ग पर चलना। गुरु अर्जन देव की वाणी और उनका जीवन-दर्शन हमें सिखाता है कि सच्ची शांति केवल बाहरी साधनों से नहीं बल्कि आत्ममंथन, सेवा और निष्काम कर्म से मिलती है। यदि हम प्रतिदिन कुछ समय केवल अपने मन के साथ बिताएं, स्वयं से संवाद करें और आत्मा की आवाज को सुनें तो न केवल हमारी मानसिक शांति लौटेगी बल्कि हम एक बेहतर इंसान बन पाएंगे। उन्होंने शिक्षा दी कि बलिदान केवल शरीर का नहीं होता अपितु अपने विचारों, इच्छाओं और लालसाओं का भी होता है। उनका बलिदान इस बात का प्रतीक है कि सत्य और धर्म की रक्षा के लिए केवल शब्दों की नहीं, आचरण और संघर्ष की भी आवश्यकता होती है। उन्होंने अपनी शहादत से यह सिद्ध कर दिया कि जीवन की सार्थकता केवल जीने में नहीं बल्कि सत्य के लिए जीने और मरने में है।
(लेखिका - श्वेता गोयल, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)