पाप से पुण्य की ओर: एक डाकू की महर्षि बनने की कहानी | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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पाप से पुण्य की ओर: एक डाकू की महर्षि बनने की कहानी

Date : 31-May-2025

साधु स्वभाव का एक यात्री किसी तीर्थाटन के लिए जंगल के मार्ग से जा रहा था कि सहसा एक डाकू उसके आगे खड़ा हो गया और उसने अपना खंजर निकालकर यात्री को डराते हुए कहा- "यदि तुम्हें प्राणों का मोह है तो जो कुछ तुम्हारे पास है. सब निकाल कर मुझे दे दो और अपनी राह पकड़ो।"

यात्री ने अपनी गठरी उसके सामने रख दी। डाकू समझने लगा कि सस्ते में माल हाथ लग रहा है, अधिक प्रयत्न नहीं करना पड़ रहा है। उसने गठरी की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि यात्री ने उससे कहा- "जरा ठहरो।"

डाकू कुछ समझ नहीं पाया। यात्री का साहस देखकर वह आश्चर्य करने लगा था। तभी यात्री बोला "गठरी तो मैंने तुम्हारे हवाले कर दी है और मैं इसको वापस भी नहीं माँग रहा हूँ। किन्तु तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो।"

डाकू असमंजस में । विचित्र प्रकार का यात्री है। डाकू होकर भी वह उसकी बात ध्यान से सुनने के लिए किसी अज्ञात शक्ति द्वारा विवश किया जा रहा था।

डाकू बोला-"कहो! क्या पूछना चाहते हो?"

यात्री ने प्रश्न किया "इतना बड़ा दुस्साहस तुम किसके लिए करते हो?"

डाकू यह सुनकर कुछ क्षण सोचने लगा। कुछ उत्तर नहीं दे पाया तो यात्री ने ही उसे ललकारा "बताते क्यों नहीं कि यह सब तुम किसके लिए करते हो?"

"अपने परिवार के लिए और किसके लिए। यह भी कोई पूछने को बात है?"

यात्री बोला "तुम जो कर रहे हो यह सब अन्याय है और पाप कर्म है। यह तो तुम जानते ही होगे। इसका दण्ड भी तुम्हें भोगना पड़ेगा, यह भी तुम्ह भली-भांति विदित होगा। तो क्या तुमने कभी अपने परिवार से पूछा भी है कि तुम जो पाप कर्म कर रहे हो उसका दण्ड भोगने में भी वे सहभागी बनेंगे?"

डाकू हतप्रभ सा देखता रहा और फिर बोला "मैंने कभी इस विषय में सोचा ही नहीं और परिवार वालों से पूछा भी नहीं।"

"तो आज जाकर सब पूछ लो। मैं यहीं खड़ा हूँ, चाहो तो तुम मुझे किसी पेड़ से बाँधकर जा सकते हो। अन्यथा मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यहाँ से भागकर नहीं जाऊँगा।"

डाकू पर उस यात्री के कथन का प्रभाव पड़ा। आज इस विचित्र यात्री ने उसको असमंजस में डाल दिया था। कठोरता का सहज उपयोग करने में डाकू असमर्थ सा हो रहा था। यात्री का व्यक्तित्व डाकू पर विशेष प्रभाव डाल रहा था, विवश होकर उसे अपने परिवार वालों से पूछने जाना पड़ा।

घर गया, उसने अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य से पूछा कि क्या उसके अपराध और पाप के दण्ड के वे सहभागी बनेंगे?

सबने एक स्वर में कहा कि उसका काम उनको पालने का है, वह किस प्रकार उनका पालन पोषण करता है, वह उसका अपना विषय है। वे उसके किसी पापकर्म के सहभागी नहीं हो सकते। डाकू यह सुनकर विचित्र स्थिति में हो गया था। उसका विवेक जागृत हो रहा था। उसने लौटकर यात्री को बताया- "मेरे परिवार का तो कोई भी व्यक्ति मेरे दुष्कमों का फल भोगने को तैयार नहीं है।"

यात्री ने पूछा "पत्नी, पुत्र कोई भी नहीं?"

"नहीं. कोई भी नहीं।"

"उन्होंने अपने उत्तर में क्या कहा है?"

"उनका कहना था कि मैं स्वयं ही अपने कर्मों का उत्तरदायी हूँ, वे इसमें सम्मिलित नहीं हैं।"

"अच्छा यह बात है। ठीक है, अब तुम इस गठरी को ले जाओ, मैं अपना मार्ग पकड़ता हूँ।"

डाकू परास्त हो गया था। वह कहने लगा- "अब मुझे इस गठरी की कोई आवश्यकता नहीं है। अब मेरी आँखें खुल गयी हैं। आपने मेरा बड़ा उपकार किया है। इसके लिए मैं हृदय से आपका धन्यवाद करता हूँ।"

उस क्षण से ही डाकू की जीवनधारा पलट गयी। उसने उसी समय गृह त्याग कर दिया और यात्री को ही अपना गुरु बनाकर उनके आधीन जप-तप करने में लीन हो गया।

भविष्य में वही डाकू महर्षि वाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए। यात्री भी कोई साधारण यात्री नहीं, अपितु देवर्षि नारद थे।

 
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