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एशिया के पहले मनोचिकित्सक ने फहराया था पहला राष्ट्रीय ध्वज

Date : 13-Feb-2023

 हम आजादी का मृत वर्ष बना रहे हैं और तिरंगे को देख दिलों में राष्ट्रवाद की लहरें उठने लगती हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश का पहला राष्ट्रीय ध्वज 1947 को नहीं, बल्कि गुलाम भारत में 7 अगस्त 1906 को ही फहरा दिया गया था। वह भी कोलकाता के पारसी बागान लेन में स्थित बोस परिवार के आवास पर। इस ध्वज को फहराने वाले कोई और नहीं बल्कि उस दौर में एशिया के पहले मनोचिकित्सक गिरींद्र शेखर बोस थे।

30 जनवरी 1887 को जन्मे आचार्य डॉक्टर गिरीश शेखर बोस के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे, जबकि वह पूरी दुनिया को भारत की बेजोड़ प्रतिभा से चौंकाने वाले प्रमुख शख्सियतों में से एक थे। वे प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकार राजशेखर बोस के छोटे भाई थे जिन्हें परशुराम के नाम से भी जाना जाता था। वह ना केवल एशिया के पहले मनोचिकित्सक थे, बल्कि उस दौर में जब पश्चिमी देशों का दबदबा पूरी दुनिया में विज्ञान के क्षेत्र में था तब पहले मनोवैज्ञानिक और डॉक्टरेट की थीसिस लिखने वाले व्यक्ति भी थे। उन्होंने अपने थीसिस में उस दौर में सबसे पहले हिंदू माइथोलॉजी के अकाट्य वैज्ञानिक विचारों को शामिल किया था जो दुनिया को चकित करने वाला था।

उनके परिवार के सदस्य सौम्य शंकर बोस ने बताया कि गिरींद्र शेखर बोस का जन्म वैसे तो बिहार के दरभंगा में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का अधिकतर वक्त कोलकाता में बिताया। वह भी एक तरफ मनोचिकित्सा और मनोविज्ञान के क्षेत्र में अनगिनत थीसिस लिखते हुए और दूसरी ओर आजादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी लेकर। वह जितने बड़े इंटेलेक्चुअल थे, उतने ही बड़े राष्ट्रवादी थे। इसी वजह से बोस परिवार के आवास पर सबसे पहले राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। हालांकि उसका स्वरूप कुछ अलग था। उसमें वर्तमान में चक्र की जगह कमल का फूल था और वंदे मातरम लिखा था।

सौम्या बताते हैं कि गिरींद्र शेखर बोस ने 1910 में ही मशहूर प्रेसिडेंसी कॉलेज से पास आउट होने के बाद एमबी की उपाधि हासिल की थी। मानव सभ्यता की उत्पत्ति में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले डॉक्टर बोस पहले गैर अंग्रेज थे, जिन्होंने ऐसा सिद्धांत दिया जिस पर पूरी दुनिया सोचने को मजबूर हुई। उस समय के मशहूर मनोवैज्ञानिक प्रायड के ऑडिपल थ्योरी को भी उन्होंने काट दिया था। उसमें कई ऐसी कमियां निकाली थीं जिसकी वजह से पश्चिमी विचारक हतप्रभ थे। वह हिप्नोटिज्म की कला में भी माहिर थे। हालांकि, पत्रों और ट्रंक कॉल के माध्यम से 20 वर्षों तक फ्रायड के साथ उनकी अच्छी तरह से बातचीत हुई। पत्र बोस-फ्रायड पत्राचार में प्रकाशित किए गए हैं। हालांकि, वे कभी नहीं मिले, फिर भी, डॉ. बसु ''इंटरनेशनल साइकोएनेलिटिकल एसोसिएशन'' के सदस्य बने और 1922 में इंडियन साइकोएनेलिटिकल सोसाइटी की स्थापना की।

''हिप्नोटिज्म के मास्टर'', डॉ. बसु ने अपने उपचार में सम्मोहन और योग को शामिल किया। उनके सबसे प्रसिद्ध रोगियों में से एक कवि काजा नजरुल इस्लाम थे।

वियना और लंदन में भी है बोस को समर्पित गैलरी

-फ्रायड ने बोस के ग्रंथों का सम्मान किया और इसलिए, वियना में और लंदन के फ्रायड आर्काइव में भी गिरींद्र शेखर को समर्पित एक गैलरी है। उनकी पुस्तकें पांच विदेशी भाषाओं (फ्रेंच, जर्मन, जापानी अंग्रेजी और रूसी) में उपलब्ध हैं। यहां तक कि रवींद्रनाथ टैगोर ने भी डॉ. बोस के एक संदर्भ में पत्र लिया था जब वे वियना में फ्रायड से मिलने गए थे। फ्रायड और गिरीश शेखर बोस के संबंध कितने गहरे थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फ्रायड के 75वें जन्मदिन पर बोस ने उन्हें भगवान विष्णु की सर्प छाया प्रतिमा भेंट की थी जो फ्रायड की अंतिम सांस तक उनके टेबल पर रखी मिली।

इसके अलावा, अनुशीलन समिति को धन प्रदान करके ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में मदद करने के अलावा, डॉ. बोस अपने तीन बड़े भाइयों के साथ पारसी बागान में अपने पैतृक घर के भूतल में अनुशीलन समिति के संस्थापक भी थे। उनसे मिलने के लिए नियमित तौर पर प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चंद्र बोस, आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय, जतिंद्रनाथ सेन, सतीश दासगुप्ता, शरत चंद्र बोस, सत्येंद्रनाथ बोस, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, डॉ. बिधान चंद्र रे, काज़ी नज़रूल इस्लाम, बिप्लबी पुलिन बिहारी दास, भगवान सिन्हा, अरबिंदो घोष और कई ऐसे नाम जो भारत की नींव बनकर आज के मजबूत भारत के आधार हैं। यहां तक कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ टैगोर भी कई बार आए।

7 अगस्त, 1906 को पारसी बागान लेन स्थित अपने आवास परिसर में पहला राष्ट्रीय ध्वज का फहराया जाना अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने जैसा था।

इसके साथ ही मरीजों का मुफ्त में इलाज करने और मनोवैज्ञानिक ग्रंथ लिखने के अलावा, उन्होंने लाल कालो भी लिखा, जिसे फिल्म चिट्टी चिट्टी बैंग बैंग (2015) में सिनेमाई रूप से फिल्माया गया था। कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (वर्तमान में आरजीकर) में मनोरोग रोगियों के लिए साइकोएनेलिटिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया और एशिया की पहली ओपीडी की स्थापना भारत के इतिहास में उनके महत्वाकांक्षी योगदानों में से एक थी।

 
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