भारत के प्रसिद्ध संत में से एक -रामकृष्ण परमहंस | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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भारत के प्रसिद्ध संत में से एक -रामकृष्ण परमहंस

Date : 22-Feb-2023

रामकृष्ण परमहंस भारत के बहुत प्रसिद्ध संत में से एक हैं. स्वामी विवेकानंद जी इनके विचारों से प्रेरित थे, इसी कारण विवेकानंद जी ने इन्हें अपना गुरु माना और इनके विचारों को गति प्रदान करने के लिए रामकृष्ण मठ की स्थापना की, जो कि बेलूर मठ के द्वारा संचालित हैं. रामकृष्ण मठ और मिशन नामक यह संस्था जन मानुष के कल्याण के लिए एवं उनके आध्यात्मिक विकास के लिए दुनियाँ भर में काम करती हैं.

रामकृष्ण परमहंस जी का जन्म, परिवार एवं शुरूआती जीवन

रामकृष्ण परमहंस एक महान समाज सुधारक, गुरु, संत एवं विचारक थे। वे यह मानते थे कि इस दुनिया में एक ईश्वर है और उनके दर्शन किए जा सकते हैं। सभी धर्म भगवान को पाने के ही तरीके बताते हैं भले ही यह तरीके अलग-अलग हैं।

उन्होंने सभी धर्मों का महत्व बताया और उनका मान सम्मान करने को कहा। उनके शिष्य – केशव चंद्र सेन और स्वामी विवेकानंद ने उनके विचारों को इस दुनिया में फैलाया। यह संसार रामकृष्ण परमहंस को स्वामी विवेकानंद और केशव चंद्र सेन के गुरुजी के रूप में जानता है।

संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुकुर गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता खुदीराम और माता चंद्रा देवी थी। उनके 3 पुत्र थे जिनमें से रामकृष्ण सबसे छोटे थे।

कहा यह जाता है कि रामकृष्ण के जन्म लेने से पहले उनके माता-पिता को एक स्वप्न आया था। उनके पिता को यह महसूस हुआ था कि भगवान गदाधर उनके घर पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। ऐसा ही अनुभव रामकृष्ण की माता को भी हुआ था कि उन्होंने शिव मंदिर से अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा थी। 

जब उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो उन्होंने इस बालक का नाम गदाधर रखा। इसी वजह से स्वामी रामकृष्ण परमहंस का बचपन का नाम ‘गदाधर’ था। उनका बचपन एकदम सही चल रहा था पर जब रामकृष्ण 7 वर्ष के थे तब उनके पिता ने इस संसार को अलविदा कह दिया। इस वजह से उन्हें बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा

एक आम बच्चे की तरह ही रामकृष्ण परमहंस को भी स्कूल में जाना, पढ़ना, लिखना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। बचपन से ही उन्हें अध्यात्म में काफी रुची थी। बचपन से ही उन्हें भारतीय अध्यात्म से जुड़े नाट्य में अधिक रुची थी। जब बंगाल में सब तरफ़ लोग ब्राह्मण और ख्रिश्चन धर्म की और बहुत ज्यादा आकर्षित हो रहे थे और हिन्दू धर्मं पूरी तरह से खतरे में था उस समय रामकृष्ण परमहंस ने हिन्दू धर्म को समाप्त होने से बचाया ही नहीं बल्की हिन्दू धर्मं को इतना शक्तिशाली बनाया की लोगो को फिर से एक बार हिन्दू धर्म अपनी और आकर्षित करने लगा था।जब रामकृष्ण परमहंस 16 साल के थे तो उनके भाई रामकुमार उनके काम में हाथ बटाने के लिए कोलकाता ले गए थे। सन 1855 में राणी रासमणि ने दक्षिणेश्वर में देवी काली का मंदिर बनवाया था और उस मंदिर में रामकुमार एक मुख्य पुजारी थे। जब उनकी मृत्यु हो गयी तो रामकृष्ण परमहंस को उस मंदिर का पुजारी बना दिया गया। रामकृष्ण पूरी तरह से काली के ध्यान में लीन हो जाते थे और बहुत सारे घंटो तक देवी का ही ध्यान करते थे, इस दौरान वह एक पुजारी की जो जिम्मेदारिया होती थी उसे भी भूल जाते थे। धीरे धीरे रामकृष्ण परमहंस देवी काली के ध्यान में इतने व्यस्त रहते थे की उन्हें देवी के चारो तरफ़ भव्य आभा दिखने लगी थी।

रामकृष्ण परमहंस का विवाह

रामकृष्ण जब मंदिर में पूजा करते थे तब लोग यह मानते थे कि उनकी मानसिक स्थिति खराब हो गई है। उनके बड़े भाई रामकुमार और माता ने रामकृष्ण का विवाह करने की सोची। वह यह सोचते थे कि जब रामकृष्ण का विवाह हो जाएगा तो पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे ठीक हो जाएंगे। स्वामी रामकृष्ण का विवाह शारदामणि से हुआ था।

जब उनका विवाह हुआ था तब रामकृष्ण 30 वर्ष के थे और शारदामणि मात्र 5 वर्ष की थी। सालों बाद जब शारदामणि 18 वर्ष की हो गई तो वह अपने पति पास रहने आई। उन्होंने देखा कि उनका पति अध्यात्म में लीन है। यहां तक रामकृष्ण ने शारदामणि को मां कहकर पुकारा। तो उनका यह व्यवहार शारदामणि को अच्छा नहीं लगा और सोचा कि लोग ठीक ही कहते हैं रामकृष्ण की मानसिक स्थिति खराब है।

पर एक दिन जब शारदामणि की तबीयत खराब हो गई तो रामकृष्ण ने उनकी बहुत सेवा की। तो शारदा मणि ने सोचा कि राम कृष्ण एक अलग तरह के व्यक्ति हैं उन्हें समझने के लिए उनके जैसा बनना होगा यानी अध्यात्म में आना होगा। फिर क्या, उनकी पत्नी भी उनके साथ अध्यात्म से जुड़ गई।

रामकृष्ण परमहंस के विचार

राम कृष्ण परमहंस जी के विचारों पर उनके पिता की छाया थी. उनके पिता धर्मपरायण सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. यही सारे गुण राम कृष्ण परमहंस जी में भी व्याप्त थे. उन्होंने परमहंस की उपाधि प्राप्त की और मनुष्य जाति को अध्यात्म का ज्ञान दिया. इन्होने सभी धर्मो को एक बताया. इनके विचारों से कई लोग प्रेरित हुए, जिन्होंने आगे चलकर इनका नाम और अधिक बढ़ाया.

माँ काली के अनन्य उपासक

रामकृष्ण परमहंस का चित्त पूजा में लगता ही था–काली देवी के मन्दिर के पुजारी बना दिए गए। वहाँ अनन्य भक्ति के साथ काली माँ की पूजा करने लगे, परन्तु यह प्रश्न हृदय में सदैव हिलोरें लेता रहता था कि “क्या वस्तुतः मूर्ति में कोई तत्त्व है? क्या सचमुच यही जगज्जननी आनन्दमयी माँ हैं या यह सब केवल स्वप्न-मात्र है?” इत्यादि। इस प्रश्न से उन्हें यथाविधि काली पूजा करना कठिन हो गया। कभी भोग ही लगाते रह जाते; कभी घंटों आरती ही करते रहते, कभी सब कार्य छोड़कर रोया ही करते और कहा करते, “माँ, ओ माँ, मुझे अब दर्शन दो। दया करो, देखो जीवन का एक दिन और वृथा चला गया। क्या दर्शन नहीं दोगी? नहीं, नहीं, दो जल्दी दर्शन।” अन्त में हालत इतनी बिगड़ती गयी कि उन्हें पूजा त्यागनी ही पड़ी।

परमहंस जी अपनी धुन में मस्त हो गए। दिन-रात उन्हें काली दर्शन का ही ध्यान रहने लगा। उन्होंने 12 वर्ष की कठिन तपस्या की, जिसमें खाना-पीना, सोना छोड़कर एक टक, एक ही ध्यान में रहे। इस समय स्वामी जी का भतीजा कभी-कभी जबरन उन्हें 2-4 ग्रास भोजन करा जाता था। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्होंने अपूर्व शान्ति लाभ की।

काञ्चन भाव दूर करने के लिए स्वामी जी एक हाथ में रुपया और अशर्फ़ी तथा दूसरे में मिट्टी लेकर कहते थे–“ऐ मन, जिस पर विक्टोरिया की छाप लगी है यह वह वस्तु है जिससे मनुष्य भाँति-भाँति के पदार्थ भोगता है, ऐश करता है। इसमें बड़े आलीशान मकान बनाने की शक्ति है, परन्तु ज्ञान, सच्चा आनन्द या ब्रह्म को प्राप्त करने में यह कदापि सहायता नहीं दे सकती।” फिर दूसरे हाथ की ओर देख कर कहते–“देख, यह मिट्टी है। यह वह वस्तु है जिस से खाद्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिसके द्वारा बड़े-बड़े मकान बनते हैं, बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनती हैं। ऐ मन, ये दोनो ही जड़ पदार्थ हैं, समान हैं। तू इन्हें लेकर क्या करेगा? तू तो सच्चिदानन्द में लीन होने की चेष्टा कर।” ऐसा कहते हुए रुपया, अशर्फ़ी और मिट्टी तीनोंं को एक में मिलाकर गङ्गा जी में फेंक देते थे।

गुरु तोता पुरी के साथ

एक और पहुँचे हुए साधु थे जिनका नाम था तोता पुरी। रामकृष्ण जी इन्हें अपना गुरु, परन्तु तोता पुरी जी इन्हें अपना सखा मानते थे। रामकृष्ण परमहंस ने अद्वैत वेदांत की शिक्षा और अद्वैत तत्त्व की सिद्धि इन्हीं की संगत में प्राप्त की थी।

एक दिन दोनों में बैठे हुए कुछ बातचीत हो रही थी कि किसी व्यक्ति ने आकर तोतापुरी जी की धूनी से आग उठा कर चिलम में भर ली। तोता पुरी जी बड़े क्रुद्ध हो गए और उसे बहुत कुछ वके झके कि तूने मेरी अग्नि अपवित्र कर डाली। यह सुनकर रामकृष्ण परमहंस से न रहा गया। उन्होंने नम्रता पूर्वक कहा, “महाराज, क्या इसी प्रकार आप सब वस्तुओं को ब्रह्म मानते हैं? क्या यह आदमी और अग्नि ब्रह्म से भिन्न वस्तु हैं? ज्ञानियों को तो ऊँच-नीच समान है।” तोता पुरी जी शान्त होकर बोले, “भाई, तुम ठीक कहते हो। आज से मुझे क्रुद्ध न देखोगे।” इसके बाद उन को कभी क्रोध करते नहीं देखा गया।

विभिन्न मार्गों से ईश्वर-दर्शन

शास्त्र में बतलाया है कि भगवान की भक्ति के नौ प्रकार की है, जिसे नवधा भक्ति भी कहते हैं–श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य-भाव, सख्य-भाव और आत्म-निवेदन। स्वामी जी ने पृथक्-पृथक् प्रत्येक प्रकार की साधना करके पूर्ण भक्ति प्राप्त की।

यही नहीं, उन्होंने सिख पंथ स्वीकार करके उसमें पूर्ण भक्ति प्राप्त की। तीन-चार दिन एक मुसलमान के साथ रहकर मुहम्मदीय पंथ का भी निचोड़ देखा। ईसा मसीह के चित्र को ही देखकर कुछ समय के लिए आत्म-विस्मृत हो गए; कई दिन तक उन्हीं का ध्यान करते रहे।

इस प्रकार सब धर्मों व सम्प्रदायों का मंथन करके स्वामी जी ने निश्चित समझ लिया कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष पंथ की आवश्यकता नहीं, वह तो किसी भी सम्प्रदाय में प्राप्त किया जा सकता है।

ऐसा निश्चय करके वे तीर्थयात्रा को निकले और एक बार भारत में सर्वत्र घूमकर दक्षिणेश्वर में आकर ठहरे। यहीं रहकर लोगों को धर्मोपदेश करने लगे। लोग बड़ी दूर-दूर से धर्मोपदेश सुनने के लिए आया करते थे, जिनमें बड़े-बड़े विद्वान, धर्मनिष्ठ, धनवान आदि सभी श्रेणी के पुरुष होते थे। दिन रात दर्शनार्थ आए हुए लोगों को अच्छी ख़ासी भीड़ लगी रहा करती थी।

रामकृष्ण परमहंस ज्ञान, योग, वेदान्त शास्त्र अथवा अद्वैत मीमांसा का निरूपण किया करते थे। उनका कहना था, “ब्रह्म, काल-देश-निमित्त आदि से कभी मर्यादित नहीं हुआ, न हो सकता है। फिर भला मुख के शब्द द्वारा ही उसका यथार्थ वर्णन कैसे हो सकता है? ब्रह्म तो एक अगाध समुद्र के समान है, वह निरुपाधित, विकारहीन और मर्यादातीत है। तुमसे यदि कोई कहे कि महासागर का यथार्थ वर्णन करो, तो तुम बड़ी गड़बड़ी में पड़ कर यही कहोगे–अरे, इस विस्तार का कहीं अन्त है? असंख्य लहरें उठ रही हैं, कैसा गर्जन हो रहा है इत्यादि। इसी तरह ब्रह्म को समझो।”

यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम्भाव को दूर करो। क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का परदा कदापि न हटेगा। तपस्या, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि साधनों से अहङ्कार दूर कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो, ब्रह्म को पहचानो।”

जिस प्रकार पुष्प की सुगन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर समूह उस पुष्प को आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार परमहंस स्वामी रामकृष्ण जी के आत्मज्ञान-रूपी अबाधित प्रकाश से आकृष्ट भक्त रूपी पतङ्ग स्वामी जी को सदैव घेरे रहते थे। वे सदैव सब को धर्मोपदेश रूपी वचनामृत से तृप्त करते रहते थे। स्वतः तो हर समय ब्रह्मलीन रहते ही थे।

प्रधान-शिष्य स्वामी विवेकानंद

जगत-प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस जी के ही प्रधान शिष्य थे। आरंभ में वे रामकृष्ण परमहंस से बहुत तर्क-वितर्क किया करते थे, किंतु धीरे-धीरे गुरु की संगति में उन्हें आध्यात्मिक सत्यों की स्पष्ट अनुभूति होने लगी। साथ-ही-साथ श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रति उनकी श्रद्धा और गुरु-भक्ति भी बढ़ती चली गई। स्वामी विवेकानंद सदैव कहा करते थे कि उनमें जो भी गुण और ज्ञान हैं वे उनके गुरु का है, जो भी कमी है वो ख़ुद उनकी है।

अन्य महापुरुषों पर प्रभाव

प्रसिद्ध श्री केशवचन्द्र सेन के जीवन के महान परिवर्तन के कारण परमहंस जी ही थे।

एक बार श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर परमहंस जी के दर्शनों की इच्छा से उनके पास गए। रामकृष्ण परमहंस कुछ देर टकटकी लगाए उनकी ओर देखते रहे। फिर बोले–

“आज तक मैंने बहुत से बम्बे, नाले, नहरें, नदी, नद देखे थे। पर सौभाग्य से आज सागर का दर्शन हो ही गया।”

विद्यासागर – पहले आप मीठे पानी के पास थे, अब आप को खारा पानी मिलेगा।

परमहंस – नहीं, आप खारे समुद्र नहीं, आप तो क्षीर-सागर हैं। अविद्या नहीं, विद्यासागर हैं।

विद्यासागर – (संकोच से हँसते हुए) आप जो चाहें, कहें।

परमहंस – आप का स्वभाव सतोगुणी है। जो सत्य ज्ञान की ओर ले जाने वाला है। हाँ, वह आपको स्वस्थ नहीं बैठने देता, सदा उद्योग में रखता है। पर आप सिद्ध पुरुष हैं; आपका अन्तःकरण बिलकुल मृदु और कोमल हो गया है जैसे आलू आदि शाक सिद्ध (तैयार) होने पर हो जाते हैं। जो आचरण निष्काम बुद्धि से होता है, उसके लिए क्या कहना।

विद्यासागर – परन्तु कुचैली दाल सिद्ध होने पर घोंटने से कठिन हो जाती है, मृदु नहीं रहती। क्या यह सच है ?

परमहंस – परन्तु आप वैसे पण्डित नहीं है, आप का वह हाल नहीं है। पञ्चाङ्ग में लिखा रहता है कि अमुक-अमुक दिन इतनी-इतनी जल-वृष्टि होगी। लेकिन पञ्चाङ्ग निचोड़ने से एक बूँद भी जल नहीं निकलता। इसी तरह हम लोगों में पण्डित कहलाने वाले बहुत हैं जो बढ़-बढ़ कर बातें तो मारा करते हैं, पाण्डित्य तो बघारते हैं, पर अनुभव के साथ बोलने वाले बहुत कम हैं। आप अनुभव के साथ बोलते हैं।

इसी प्रकार बहुत देर बातचीत करने के अनन्तर प्रसन्न होते हुए विद्यासागर जी घर चले गए।

शारदा देवी के साथ

परमहंस जी के विवाह के समय उनकी स्त्री की अवस्था केवल 5 वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष बाद स्वामी जी की इच्छा हुई कि ससुराल चलना चाहिए। बस, वे ससुराल जा पहुँचे और बिना पूछेताछे घर में घुसते चले गए। आंगन में जा खड़े हुए। उनकी स्त्री जो इस समय 16 वर्ष की थी, किसी कार्य में लगी थी। एक अपरिचित मनुष्य को पागल की तरह सामने खड़ा देख चिल्ला उठी– “माँ! देख, कोई पागल घर में घुस आया है।” माँ ने निकलकर देखा। कुछ देर तो पहचान न सकी, फिर “यह तो मेरा दामाद है, हाय! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था?” कहते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ी। सचेत होने पर देखा कि रामकृष्ण परमहंस पूजा की सब सामग्री जुटाकर स्त्री से कह रहे हैं, “आ, इस चौकी पर बैठ।” सहज स्वभाव बाला आकर चौकी पर बैठ गई। परमहंस “माँ-माँ” कहकर उस के चरणों पर पुष्पाञ्जली चढ़ाने लगे और आरती करने लगे। उनकी सास यह दृश्य देखकर उन्हें कटु वाक्य कहने लगी। पर वे पूजा समाप्त कर वहाँ से चले गए।

रामकृष्ण के चले जाने के दो वर्ष बाद शारदा देवी ने–जो अब तक जानती थीं कि मेरा पति पागल है–अब जाना कि वह तो एक असाधारण ज्ञानी पुरुष हैं। निदान, एक दिन वे अपनी माता को साथ ले उनके दर्शनों को चल पड़ीं और 30-40 मील पैदल यात्रा कर दक्षिणेश्वर पहुँचीं।

परमहंस जी ने उसका बड़ा आदर करते हुए कहा, “तुम्हारा पति रामकृष्ण तो मर गया, यह नवीन रामकृष्ण है जो संसार की तमाम स्त्रियों को माँ समझ रहा है।” यह कहकर वे उसके पैरों में गिर पड़े। शारदा देवी भी स्वामी के मन का भाव समझ गई, बोली, “मेरी भी यही इच्छा है कि मैं अपने को आपके अनुरूप बनाने का प्रयत्न करूँ। मैं केवल यही चाहती हूँ कि आप की सेवा और ईश्वर भजन में अपना काल यापन करूँ।” वह वहीं मन्दिर में रहने लगी। एक दिन रामकृष्ण परमहंस के एक भक्त ने उन्हें दस हज़ार रुपया देना चाहा, पर साध्वी स्त्री ने कहा, “मैं इसका क्या करूँगी। मैं तो यथासम्भव अपने पति का अनुकरण करना चाहती हूँ।”

रामकृष्ण परमहंस जी के जीवन की ऐसी ही कितनी ही घटनाएँ हैं, जिनसे समझ में आ जाता है कि वे ईश्वर के कैसे अनन्य भक्त, धर्मोपदेष्टा और पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे।

मृत्यु

आचार्य परमहंस जी अधिक दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सके। परमहंस जी को 1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट के चिह्न दिखलाई दिए। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारण किया जिससे वे मुक्त न हो सके। 15 अगस्त, सन् 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया। सेवाग्राम के संत के शब्दों में 'उनका जीवन धर्म को व्यवहार क्षेत्र में उतारकर मूर्तस्वरूप देने के प्रयास की एक अमरगाथा है।'

रामकृष्ण परमहंस की अमृतवाणी एवं अनमोल वचन

1.      ख़राब आईने में जैसे सूर्य की छवि दिखाई नहीं पड़ती. वैस ही ख़राब मन में भगवान की मूरत नहीं बनती.

2.      धर्म सभी समान हैं. वे सभी ईश्वर प्राप्ति का रास्ता दिखाते हैं.

3.      अगर मार्ग में कोई दुविधा ना आये तब समझना की राह गलत हैं.

4.      जब तक देश में व्यक्ति भूखा और निसहाय हैं. तब तक देश का हर एक व्यक्ति गद्दार हैं.

5.      विषयक ज्ञान मनुष्य की बुद्धि को सीमा में बांध देता हैं और उन्हें अभिमानी भी बनाता हैं.

6.      राम कृष्ण परमहंस के कई ऐसे अनमोल वचन हैं जो मनुष्य को जीवन का सही मार्ग दिखाते हैं.

रामकृष्ण परमहंस के बारे में खास जानकारियां

1.    भारतीय महापुरुषों ने पूरे संसार को शांति का पाठ पढ़ाया है। ऐसे ही महापुरुषों में रामकृष्ण परमहंस  भी थे। उनके बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने बिना अच्छी शिक्षा लिए ही रामायण, महाभारत, श्रीमद्‍भगवद्गीता जैसे पुराणों को पढ़ा और अच्छे से याद भी कर लिया था। 

 

2.    तारीख के अनुसार उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के एक प्रांत कामारपुकुर गांव में हुआ था। उनका बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। पिता का नाम खुदीराम तथा माता चंद्रमणि देवी था। 

 

3.    रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत और विचारक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। वे मानवता के पुजारी थे। हिन्दू, इस्लाम और ईसाई आदि सभी धर्मों पर उसकी श्रद्धा एक समान थी, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने बारी-बारी सबकी साधना करके एक ही परम-सत्य का साक्षात्कार किया था। 

 

4.    . उन्होंने जीवन में स्कूल के कभी दर्शन नहीं किए थे। उन्हें तो अंग्रेजी आती थी, वे संस्कृत के जानकार थे। वे तो सिर्फ मां काली के भक्त थे। उनकी सारी पूंजी महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था। अपने बचपन से ही उन्हें विश्वास था कि भगवान के दर्शन हो सकते हैं, अतः भगवान प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति की तथा सादगीपूर्ण जीवन बिताया। 

 

5.    उनके माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं का अनुभव हुआ था। माना जाता है कि उनके पिता को एक रात दृष्टांत हुआ, जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर ने स्वप्न में उनसे कहा था कि वे विष्णु अवतार के रूप में उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे तथा माता चंद्रमणि को भी ऐसे ही एक दृष्टांत का अनुभव हुआ था, जिसमें उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में एक रोशनी को प्रवेश करते हुए देखा था।

 

6.    23 वर्षीय रामकृष्ण का विवाह 5 वर्ष की शारदामणि से वर्ष 1859 में हुआ था। रामकृष्ण परमहंस को सांसारिक सुख, धन, समृद्धि का उनके सामने कोई मूल्य नहीं था। जब उनके वचनामृत की धारा फूट पड़ती थी, तब बड़े-बड़े तार्किक भी अपने आप में खोकर मूक हो जाते थे। 

 

7. रामकृष्ण परमहंस सिर से पांव तक आत्मा की ज्योति से परिपूर्ण थे। उन्हें आनंद, पवित्रता तथा पुण्य की प्रभा घेरे रहती थीं। वे दिन-रात चिंतन में लगे रहते थे।

8. भारत के प्राचीन ऋषि-मुनि, महावीर और बुद्ध के वचनामृत जैसी ही रामकृष्ण परमहंस की शैली थी। जो परंपरा से भारतीय संतों के उपदेश की पद्धति रही है।

9. रामकृष्ण परमहंस अपने उपदेशों में तर्कों का सहारा कम लेते थे, जो कुछ समझाना होता वे उसे उपमा और दृष्टांतों से समझाते थे।

10. रामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम और ईसाई धर्म को करीब से जाना। उन्होंने तंत्र विद्या भी सीखी थी। 

11. सन् 1885 के मध्य में उन्हें गले की बीमारी के चिह्न नजर आए और शीघ्र ही बीमारी ने गंभीर रूप धारण किया जिससे वे मुक्त न हो सके और 16 अगस्त 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया।

 12. विवेकानंद ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस द्वारा दी गई शिक्षा से पूरे विश्व में भारत के विश्व गुरु होने का प्रमाण दिया। ऐसे सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति थे संत रामकृष्ण परमहंस।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
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