वनन् में बागन में बगरयौ बसंत है। | The Voice TV

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तुम खुद अपने भाग्य के निर्माता हो - स्वामी विवेकानंद

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वनन् में बागन में बगरयौ बसंत है।

Date : 01-Oct-2022

 ऋतुनांकुसुमाकरः  अर्थात  ऋतुओं में , मैं वसंत हूँ ---ऐसे हैं वसंत के ठाठ कि भगवान श्रीकृष्ण ने  भी स्वयं को वसंत ऋतु माना ।  मनुष्य-जीवन  में वसंत  सर्वोच्च स्थान पर रखा गया है  , इसीलिए  देखा जाता है कि    इंसान ने धरती पर आकर कितने  वसंत देख डाले ।


???? अब ऋतुएँ आती हैं  और मानो दबे पाँव निकल जाती हैं  । उनसे होनेवाली झंझटों  को दूर रखने  की तैयारी में लोग ऊर्जा का अपव्यय करते रहते हैं।
हमारा दृष्टिकोण ही ऐसा हो गया है , जीवन के प्रति  मानो .जीवन एक दौड़ है , प्रतिस्पर्धा है , कार्यस्थल है , संघर्ष है , प्रतिद्वन्द्विता है , एक टास्क है । जीवन बस यही रह गया है । जीवन का परिचय इसी         प्रकार  करवाया जाता है बालक से ,नयी पीढ़ी से । 

जैसे ही कोई उत्सवधर्मी  परंपरा का दिन आता है , हम आदतन पीछे देखते हैं --कहाँ से प्रारंभ हुआ और क्यों ..?  जिज्ञासा करने का यह  गुण ही तो है  जिससे इतिहास , परंपराएं और संस्कृति अगली  पीढ़ी तक जाती हैं  । पुरातन में ही तो उत्स हैं  जीवन के चिह्नों के । 
आज वसंतपंचमी है । भोर से ही क्षितिज से धरती तक स्वर्णिम पीले रंग का सौन्दर्य बिखरा है।

कहते हैं वसंतोत्सव का आरंभ मौर्यकाल से हुआ था ।  उस काल का उत्सव   अपनी आँखों से देखना हो तेज सुगन्ध वाले चम्पा , पारिजात , सेवन्ती , पलाश और गेंदा  पुष्पों की पँखुड़ियों का स्पर्श  , कुंकुम , केसर युक्त गुलाल  को साँसों में जाता अनुभूत  करना हो  तो "बाणभट्ट की आत्मकथा " में  मदनोत्सव में सम्मिलित हो जाइये ।
भास के चारूदत्त , कालिदास के मालविकाग्निमित्र ,  हर्ष के रत्नावली या दंडी के दशकुमारचरित को पढ़ते हुए , सौन्दर्य और मादक उल्लास  के उत्सव में  सहृदय इतना डूब जाता है कि अपने केशों से फूलों की पँखुड़ियाँ और गुलाल  हठात्  झटकने लगता है।

????सुबह अति उत्साह में स्नान कर सूर्य को अर्घ्य दिया और निकल पड़ी  वसंत को देखने ।चौथाई  नगरवासी  जिन बड़े -बड़े ' बागन'  
 में सुबह -सुबह  दौड़ने आते हैं  ।
अवश्य आज उत्सव होगा , 
किन्तु  सब कुछ सामान्य था । बगीचे में भी रोज की तरह हरीतिमा अधिक थी।  न किसी ने विशेष पीत-परिधान धारण किये थे  एवं न गौरवर्णा  बालाओं ने धूम्र-धुँआरे  केशों पर पीला पुष्प -पराग  बिखराया  था ।
चिर-परिचित वसंत कहीं नहीं था।
 
????मोबाइल स्क्रीन  तो वसंतोत्सव के संदेशों  से भीगी , झूमी -झूली जा रही थी। असंख्य   शुभेच्छुओं के संदेश , सहस्त्रों   सुमनों से दबे , ढके , लदे-फदे वृक्ष ,   फूलों की खेती  , सरसों के खेत  , करीने से  सँवारे गये बगीचों में  वासंती  बहार के चित्रों को देखकर पलकें झपकना भूल जाती हैं ।   है कहां यह वसंत ?    हमारे धर्म में है, ग्रन्थों में है , इतिहास में है , कविताओं और कहानियों में है परन्तु आसपास कहीं नहीं है।


मैंने भी  सभी की शुभकामनाओं को संजोकर , घर वसंत के स्वागत के लिए  सजाया। पूजा धूप दीप के बाद लगा वसंत यहीं खड़ा है  उसी पुराने रूप में ।  मैंने पूछा कहाँ चले जाते हो वसंत ? 
मैंनें तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा ।
वसंत गेंदा फूलों से खिलवाड़ करते बच्चों के संग धूम मचाते बोला  मैं तो यहीं रहता हूँ  -तुम्हारे हृदय में , मन में । मैं कहीं नहीं जाता   तुम्हीं  लोगों ने  मेरा  एक दिन तय कर दिया है । रंग तय कर दिया है । 
 देखो तो सब रंग फबते हैं मुझपर । हाँ पीला रंग प्रिय है  ,यह जोश और उत्साह का रंग है। यह मेरा चरित्र है - जोश , उत्साह , निरंतर कर्मरत , निरंतर प्रसन्नता ,  अबाध आनंद ।  मैं तो  प्रत्येक पल में रहता हूँ । वसंत का अर्थ ही है -उत्सव , आमोद , उल्लास ।
जीवन को वसंत बना लो न ।

कैसा संघर्ष , कैसी प्रतिस्पर्धा , कैसी तृष्णाएँ  ..। 

 मानव रूप में जन्म ही तो वसंत का आगमन है। मानव-जीवन को एक उत्सव के रूप में मनाओ ।  
 धरती  रूपी विस्तीर्ण वन में  सारे वर्ण ,  जाति , धर्म  , विभिन्न भेद  ,  मानो  वृक्ष हैं , सब अपने अपने स्थान पर  , उनमें संघर्ष कैसा ?

???? मेरे एक मित्र  ने जिनका शिक्षण संस्थान  है , नागपुर रोड स्थित फार्म हाउस  में सरस्वती पूजा का आयोजन किया । छात्र-छात्राएँ वन-विहार जैसा आनंद मना रहे थे ।  चारों तरफ घना जंगल  है  ।
शहतूत , आँवला , भूर्ज , शीशम , कुँबी ,  साल , बाँस  और अमलतास के पेड़ों ने निर्द्वन्द  वंश-विस्तार किया है ।  पेड़ों से पत्ते  गिर  चुके हैं किन्तु कुछ में बाकी हैं।
एकाएक   हल्की सुनहरी तपी धूप में  , तेज हवाओं के कारण  बचे हुए पेड़ों से  पत्तों की बरसात -सी होने लगी ।  यह अद्भुत सुंदर दृश्य था ।
एक साथ  पीत , कत्थई , भूरे और सूखे हरे  सहस्त्रों  पत्तों  का एक साथ उड़ते हुए  धरा पर गिरना  बहुत रोमांचक दृश्य था  , जैसे  किसी विशाल कुँड में  सैकड़ों स्त्रियाँ , लाल-पीली  सुहागिनें  जौहर के लिए कूद रही हों ।

काली सुचिक्कन  देह वाली , मदिर  ,  अलाल   सड़क के दोनों ओर  पत्तों का  वीतवर्ण , पीतवर्ण  , कत्थई और भूरा सागर    स्थित प्रज्ञ था ।

सारे वृक्षों ने एक साथ दीक्षा ली सूर्य मुनि रत्न से  । कहीं कोई  राग नहीं , तृष्णाओं, एषणाओं की आग नहीं ...।‌  कुछ पत्ते देर तक जिद  में  जुड़े रहे शाखा से , अंततः तेज पवन उन्हें झटके से बहुत दूर ले गई -- अबके बिछड़े कब मिलिहैं , दूर पड़ेंगें जाय...। 
पर्णपाती समारोह में पत्तों के पश्मीने पर , घुटने-घुटने धँसते पैरों से चलते हुए एक अलौकिक आनंद मिला। 
पहचाना तो यह तो वसंत था ।
-- वसंत ! तुम सूखे झड़े  पत्तों में ?
मैंनें फिर पूछा ..।
-- हाँ यह भी तो मैं हूँ । इच्छाओं, प्रतिस्पर्धाओं  से विरत  । निताँत  शान्त रस .. समाधि अवस्था का आनंद ।
इस पर्णपाती आयोजन में भी  यह   भी  मैं  हूँ ।

नम आँखों से ही सही  पर देखा   --जो कभी हरे लहलहाते होंगे उन शुष्क पत्रों   के सु अन्त में ,  चारों तरफ  बियाबान में  वसंत  बिखरा था ।
 
 
लेखिका - शशि खरे 
 
 
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