पोला छत्तीसगढ़ का ही नहीं, बल्कि किसानों का एक अत्यंत प्रसिद्ध और पारंपरिक त्योहार है। यह पर्व विशेष रूप से किसानों और खेतिहर मजदूरों के जीवन से जुड़ा हुआ है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला यह त्योहार, पूरे देश के किसानों के लिए एक विशेष महत्व रखता है। ऐसा विश्वास है कि बैल भगवान का स्वरूप होते हैं, इसलिए इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
हालांकि आज के समय में खेती में मशीनों का उपयोग बढ़ गया है, फिर भी बैल की उपयोगिता और इस पर्व की परंपरा आज भी जीवित है, क्योंकि बैलों के बिना खेती की कल्पना अधूरी मानी जाती है। इस वर्ष बैल पोला का त्योहार 23 अगस्त को मनाया जाएगा। शक्ति पुत्र पंडित कामता तिवारी जी के अनुसार, इस दिन बैलों की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। जिन लोगों के पास बैल नहीं होते, वे मिट्टी के बैल बनाकर उनकी पूजा करते हैं। जिनके पास बैल होते हैं, वे उन्हें अर्ध्य अर्पित करते हैं, उनके माथे पर चंदन का टीका लगाते हैं, माला पहनाते हैं, विशेष भोजन कराते हैं और धूप-दीप के साथ उनकी आरती करते हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब कंस ने उन्हें मारने के लिए अनेक असुरों को भेजा। इन्हीं असुरों में एक था पोलासुर। बालकृष्ण ने उसे भी अपनी लीला से पराजित कर मार दिया। यह घटना भाद्रपद अमावस्या की तिथि को घटी थी। तभी से इस दिन को "पोला" के नाम से जाना जाने लगा।
भारत में जहां कृषि आजीविका का प्रमुख साधन है, वहां बैलों का महत्व अत्यधिक है। किसान इस दिन अपने पशुओं की पूजा कर उन्हें आभार प्रकट करते हैं। पोला पर्व दो रूपों में मनाया जाता है — बड़ा पोला और छोटा पोला। बड़े पोला में बैलों को सजाकर उनकी विधिवत पूजा की जाती है, जबकि छोटे पोला में बच्चे मिट्टी के बैल या घोड़े लेकर मोहल्लों में घूमते हैं और लोग उन्हें गिफ्ट या पैसे देते हैं। इस अवसर पर ठेठरी, खुरमी जैसे पारंपरिक छत्तीसगढ़ी व्यंजन भी बनाए जाते हैं, जो त्योहार की मिठास को और बढ़ा देते हैं।