मेजर ध्यानचंद: हॉकी के इतिहास का चमकता सितारा | The Voice TV

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"समय और धैर्य, दो सबसे बड़े योद्धा हैं।"

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मेजर ध्यानचंद: हॉकी के इतिहास का चमकता सितारा

Date : 03-Dec-2025
हॉकी की दुनिया के महानतम खिलाड़ियों में शामिल मेजर ध्यानचंद ने अपने अद्वितीय खेल कौशल से भारत को लगातार तीन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जिताने में निर्णायक भूमिका निभाई। गेंद पर उनकी पकड़ और गोल करने की क्षमता इतनी अद्भुत थी कि दुनिया भर के दर्शक और विरोधी दोनों ही अचंभित रह जाते थे। आज उनकी पुण्यतिथि पर देशभर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है। 3 दिसंबर 1979 को उनका निधन हुआ था, और आज उनकी 46वीं पुण्यतिथि है। आइए, उनके योगदान को नए ढंग से समझें।

1979 में लिवर कैंसर से जूझते हुए ध्यानचंद का देहांत दिल्ली के एम्स में हुआ। इसके पश्चात उनका शरीर झांसी ले जाया गया, जहां भारी संख्या में लोग उन्हें अंतिम विदाई देने पहुंचे। हीरोज हॉकी ग्राउंड पर उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार दिया गया। 29 अगस्त 1905 को प्रयागराज में जन्मे ध्यानचंद के पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में कार्यरत थे। पिता की तरह ही ध्यानचंद ने भी 16 वर्ष की आयु में सेना जॉइन की। यहीं रहकर उन्होंने हॉकी में कदम रखा और जल्द ही अपने खेल से सबकी नज़रें अपनी ओर खींच लीं।

तीन दशक से अधिक देश सेवा

1922 से 1926 के बीच रेजिमेंटल मुकाबलों में उनकी प्रतिभा की खूब सराहना हुई। इसी दौरान उन्हें न्यूजीलैंड दौरे के लिए सेना की टीम में शामिल किया गया। इस सफर में टीम ने 18 मुकाबले जीते, दो बराबर रहे और केवल एक में हार मिली—और इन सफलता के पीछे ध्यानचंद का प्रदर्शन सबसे शानदार था। प्रभावित होकर ब्रिटिश सेना ने उन्हें ‘लांस नायक’ के पद पर बढ़ोतरी दी। लगभग 34 साल सेवा देने के बाद वे 1956 में ‘लेफ्टिनेंट’ के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

तीन ओलंपिक—तीन स्वर्ण

1928 के ओलंपिक के लिए हुए चयन में ध्यानचंद को ट्रायल का अवसर मिला और उन्होंने टीम में जगह बनाई। इस प्रतियोगिता में उन्होंने पांच मैचों में 14 गोल दागे और भारत को अपराजित रहते हुए स्वर्ण दिलाया।
1932 और 1936 के ओलंपिक में भी वे भारत की जीत के प्रमुख स्तंभ रहे। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में जर्मनी को 8–1 से मात देने के बाद उनका खेल इतना प्रभावी दिखा कि हिटलर ने उन्हें जर्मन सेना में ऊँचे पद का प्रस्ताव दिया, परंतु ध्यानचंद ने इसे देशभक्ति को प्राथमिकता देते हुए अस्वीकार कर दिया।

1948 में युवाओं को रास्ता दिया

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब 1948 ओलंपिक आया, तब ध्यानचंद उम्रदराज़ हो चुके थे। उन्होंने स्वयं पीछे हटकर युवा प्रतिभाओं को मौका देने का आग्रह किया। अपने लंबे करियर में उन्होंने 400 से भी अधिक गोल दागे और भारत को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई।

सम्मान और प्रेरणा

उनकी अविस्मरणीय उपलब्धियों के सम्मान में उन्हें ‘पद्म भूषण’ प्रदान किया गया। आज देश का सर्वोच्च खेल सम्मान ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न’ उनके नाम पर है, और 29 अगस्त को उनके जन्मदिन पर ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ मनाया जाता है।

मेजर ध्यानचंद का योगदान खेल इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज रहेगा।
 
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