राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पुण्यतिथि 12 दिसंबर को साहित्य जगत द्वारा श्रद्धापूर्वक मनाई गई। भारतीय राष्ट्रभावना और सामाजिक चेतना को उनकी कविताओं ने जिस गहराई से अभिव्यक्त किया, उसे याद करते हुए साहित्यकारों ने कहा कि गुप्तजी की रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। उनकी प्रेरक पंक्तियाँ—“नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, जग में रहकर कुछ नाम करो”—वर्तमान समय में युवा पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
मैथिलीशरण गुप्त का प्रयागराज से विशेष लगाव रहा। ‘सरस्वती’ पत्रिका में उनकी पहली खड़ी बोली की कविता ‘हेमंत’ प्रकाशित होने के बाद उन्हें हिंदी जगत में प्रतिष्ठा मिली। प्रयागराज प्रवास के दौरान वे साहित्यकारों से मिलना-जुलना और साहित्यिक चर्चाओं में भाग लेना नहीं भूलते थे। महादेवी वर्मा सहित कई साहित्यकारों से उनका आत्मीय संबंध रहा।
गुप्तजी की जन्मतिथि 3 अगस्त को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 1987 से ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। हिंदुस्तानी एकेडेमी ने इस पहल को शुरू कराया, जिसके बाद यह परंपरा आज तक जारी है। पहले कविदिवस पर जिस तैलचित्र पर माल्यार्पण किया गया, उसी परंपरा को आज भी निभाया जाता है।
वर्ष 1934 में डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा ‘साकेत’ की आलोचनात्मक समीक्षा किए जाने पर भी गुप्तजी ने नाराजगी न दिखाते हुए उसे सहर्ष स्वीकार किया। वे उसी वर्ष स्वयं उनके घर जाकर उनकी काव्यदृष्टि की सराहना करने पहुँचे, जिससे उनका विनम्र व्यक्तित्व और व्यापक हृदय स्पष्ट झलकता है।
उनकी प्रसिद्ध कृति ‘भारत-भारती’, जो 1912 में प्रकाशित हुई, देश के अतीत, वर्तमान और भविष्य की व्यापक सांस्कृतिक झांकी प्रस्तुत करती है। सामाजिक कुरीतियों, राष्ट्रीय चेतना, स्त्री-शिक्षा और युवा जागरण जैसे विषयों पर उन्होंने प्रभावी ढंग से कलम चलाई। ‘यशोधरा’ और ‘पंचवटी’ जैसी रचनाएँ भी हिंदी साहित्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं।
12 दिसंबर 1964 को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का निधन हुआ था। उनकी पुण्यतिथि पर साहित्य जगत ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि वे केवल कवि नहीं, बल्कि एक युगदृष्टा और राष्ट्रचिंतक थे, जिनकी रचनाएँ आज भी समाज को दिशा प्रदान करती हैं।
