‘कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे, आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे…’ ये पंक्तियाँ भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले महान क्रांतिकारी और शायर शहीद अशफाक उल्ला खां की हैं। मात्र 27 वर्ष की आयु में हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूम लेने वाले अशफाक उल्ला खां न सिर्फ एक निर्भीक क्रांतिकारी थे, बल्कि अपनी ओजस्वी शायरी से युवाओं में देशभक्ति की ज्वाला जगाने वाले प्रेरणास्रोत भी थे। उनकी रचनाएँ आज भी राष्ट्रप्रेम और बलिदान की भावना से ओतप्रोत दिखाई देती हैं।
अशफाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। बचपन से ही उनके भीतर देश के प्रति गहरा प्रेम और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की भावना थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे काकोरी ट्रेन एक्शन में शामिल इकलौते मुस्लिम क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। उनकी कविता ‘सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका, चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे’ उस दौर के युवाओं के मन में साहस और संघर्ष का संचार करती रही।
अशफाक उल्ला खां को घर और मित्रों के बीच ‘अच्चू’ कहा जाता था। वे एक प्रतिभावान उर्दू शायर थे और ‘हसरत’ उपनाम से लिखते थे। उनका जीवन पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की मित्रता के बिना अधूरा सा लगता है। प्रारंभ में बिस्मिल उन्हें क्रांतिकारी दल में शामिल करने को लेकर संकोच में थे, लेकिन जल्द ही दोनों के बीच ऐसी गहरी दोस्ती हुई कि वह आज भी हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल मानी जाती है। कहा जाता है कि दोनों एक ही स्थान पर हवन और नमाज़ करते थे, एक ही थाली में भोजन करते थे और हर संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहते थे।
यह भाईचारा केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन की आत्मा बन गया। नौ अगस्त 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों—राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी—ने लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन रोककर ब्रिटिश सरकार का खजाना लूट लिया। यह घटना अंग्रेज़ी शासन के लिए एक खुली चुनौती थी। ब्रिटिश सरकार ने इसे गंभीर अपराध मानते हुए इन सभी को मृत्युदंड दिया और 19 दिसंबर 1927 को चारों वीरों को फांसी पर चढ़ा दिया गया।
अशफाक उल्ला खां की मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से वर्ष 1920 में हुई थी और 1927 में अपने बलिदान तक उनकी मित्रता अटूट रही। दोनों ने असहयोग आंदोलन के लिए साथ काम किया, स्वराज पार्टी का प्रचार किया और सचिंद्र नाथ सान्याल तथा अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अभियानों को आगे बढ़ाया। उनका उद्देश्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण और स्वतंत्र भारत का निर्माण था।
फांसी से पहले लिखी गई उनकी पंक्तियाँ—‘तंग आकर हम उनके जुल्म बेदाद से, चल दिए सूए-आदम फैजाबाद से’—उनके अडिग साहस और बलिदान की गवाही देती हैं। 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जिला जेल में उन्हें फांसी दी गई। अशफाक उल्ला खां अपने पीछे शहादत, भाईचारे और देशप्रेम की ऐसी विरासत छोड़ गए, जो आने वाली पीढ़ियों को सदा प्रेरित करती रहेगी।
