साधारण बचपन से असाधारण क्रांति तक: रामप्रसाद बिस्मिल | The Voice TV

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साधारण बचपन से असाधारण क्रांति तक: रामप्रसाद बिस्मिल

Date : 19-Dec-2025

रामप्रसाद बिस्मिल को देखकर कोई भी सहज रूप से यह अंदाज़ा नहीं लगा सकता था कि उनके भीतर कितना गहरा इतिहास, संघर्ष और क्रांति छिपी हुई है। उनमें न जाने कैसी आकर्षक शक्ति थी कि जो भी उनसे एक बार मिलता, उनका प्रशंसक बन जाता। उनका जीवन एक सामान्य से बचपन से शुरू हुआ, लेकिन समय-समय पर ऐसे लोग उनके जीवन में आए जिन्होंने उनकी सोच और दिशा को पूरी तरह बदल दिया। यह तथ्य आज भी शोध और जिज्ञासा का विषय है कि आखिर रामप्रसाद बिस्मिल अपने परिचितों ही नहीं, बल्कि आम जनमानस में भी इतने लोकप्रिय क्यों थे। उनकी जयंती के अवसर पर उनके जीवन के उन पहलुओं पर दृष्टि डालना आवश्यक है, जिन्होंने उन्हें सबका चहेता बना दिया।


रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता मुरलीधर शाहजहांपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे और माता का नाम मूलारानी था। सीमित आय के कारण उनका बचपन साधारण परिस्थितियों में बीता। पढ़ाई की अपेक्षा उन्हें खेलकूद में अधिक रुचि थी और बचपन में उनमें कई अवांछित आदतें भी थीं। अपने शौक पूरे करने के लिए पैसे चुराना, सिगरेट और भांग की लत जैसी बातों को देखकर शायद ही कोई अनुमान लगा सकता था कि यही बालक आगे चलकर देश का महान क्रांतिकारी बनेगा।

हालाँकि, उनके व्यक्तित्व में कुछ सकारात्मक गुण भी आरंभ से मौजूद थे। स्कूल के दिनों में ही उन्हें किताबें और उपन्यास पढ़ने का गहरा शौक लग गया था। इसी शौक को पूरा करने के लिए वे पैसे चुराया करते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा हिंदी और उर्दू में हुई थी। जब अंग्रेज़ी विषय के कारण वे हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सके, तो उन्होंने अंग्रेज़ी सीखने का दृढ़ निश्चय कर लिया। पड़ोस के एक पुजारी की संगति में वे पूजा-पाठ और व्यायाम की ओर आकृष्ट हुए, जिसने उनके जीवन की दिशा बदलनी शुरू कर दी।

पुजारी के सान्निध्य ने उनके भीतर ईश्वर के प्रति श्रद्धा और आत्मसंयम का भाव जागृत किया, जिससे उनकी बचपन की बुरी आदतें धीरे-धीरे छूटती चली गईं। सहपाठी सुशीलचंद्र सेन की संगति से उन्होंने सिगरेट छोड़ दी और पढ़ाई में मन लगाने लगे। मुंशी इंद्रजीत से परिचय होने पर उन्हें स्वामी दयानंद सरस्वती की ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ने का अवसर मिला। इसके बाद स्वामी सोमदेव के सान्निध्य में उनके भीतर देशभक्ति की भावना प्रबल होती चली गई, जिसने आगे चलकर उन्हें क्रांति के मार्ग पर अग्रसर कर दिया।

यहीं से रामप्रसाद बिस्मिल का संपर्क सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं और क्रांतिकारियों से होने लगा। उनकी ऊँची सोच, गहन अध्ययन और कविता-शायरी से सजी अभिव्यक्ति शैली हर किसी को प्रभावित करती थी। वर्ष 1915 में गदर पार्टी के सदस्य भाई परमानंद को फांसी दिए जाने की खबर ने बिस्मिल को भीतर तक झकझोर दिया। इसी घटना के बाद उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि वे अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए समर्पित करेंगे और क्रांतिकारी गतिविधियों में पूरी तरह सक्रिय हो गए।

बिस्मिल ने औरैया के क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित के साथ मिलकर मातृदेवी संगठन के अंतर्गत अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन चलाया। इस अभियान में पैदल सैनिकों, घुड़सवारों और हथियारों से लैस होकर अंग्रेज़ी सत्ता को चुनौती दी गई, जिसमें लगभग 50 अंग्रेज़ सैनिक मारे गए। इसी दौरान बिस्मिल की रचना ‘मैनपुरी की प्रतिज्ञा’ अत्यंत लोकप्रिय हुई और क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी। एक मुखबिर की गद्दारी के कारण 35 क्रांतिकारी शहीद हो गए और बिस्मिल को लगभग दो वर्षों तक भूमिगत रहना पड़ा, लेकिन वे अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आए। इस अवधि में उन्होंने अनेक कविताएँ और गंभीर विचारों से भरी पुस्तकें भी लिखीं।

इसके बाद बिस्मिल का संपर्क पुनः कांग्रेस से हुआ और उन्हें मोतीलाल नेहरू सहित कई वरिष्ठ नेताओं से मिलने का अवसर मिला। असहयोग आंदोलन के दौरान वे कांग्रेस के युवाओं में अत्यंत लोकप्रिय हो गए। जब असहयोग आंदोलन स्थगित हुआ और क्रांतिकारी साथियों का प्रभाव बढ़ा, तो बिस्मिल ने शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी सहित अन्य साथियों के साथ मिलकर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। इस संगठन का संविधान स्वयं बिस्मिल ने लिखा और इसके बाद वे पूरी तरह से क्रांतिकारी मार्ग पर अग्रसर हो गए।

क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन के लिए संगठन ने अंग्रेज़ों का साथ देने वालों को लूटने जैसी कार्रवाइयाँ कीं, लेकिन इससे अपेक्षित संसाधन तो नहीं जुट पाए, उलटे संगठन की छवि को नुकसान पहुँचा। इसी समय भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे बड़े क्रांतिकारी बिस्मिल के नेतृत्व में सामने आए। इन्हीं परिस्थितियों में काकोरी ट्रेन एक्शन की योजना बनी। तब तक बिस्मिल अपने लेखन, संगठनात्मक क्षमता, नेतृत्व और रणनीतिक कौशल के माध्यम से देश के जनमानस पर गहरी छाप छोड़ चुके थे। उनकी गिरफ्तारी, फांसी, अंतिम यात्रा और उसके बाद देशभर में तेज़ हुई क्रांतिकारी गतिविधियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि रामप्रसाद बिस्मिल केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक युग का नाम बन चुके थे।

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