कैलाश चन्द्र
भारत आज सिर्फ आर्थिक प्रगति या भौतिक विकास की कहानी नहीं लिख रहा है, वह इस समय अपने सांस्कृतिक मानस, वैचारिक आत्मसम्मान और राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर एक गहरे परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। विकसित भारत की अवधारणा सड़कों, पुलों, जीडीपी और तकनीक से आगे निकल चुकी है। इसका दायरा समाज की सोच, उसकी स्मृति, उसकी आस्था और उसके आत्मविश्वास तक विस्तृत हो चुका है। तभी यह परिवर्तन नीतियों और योजनाओं के साथ-साथ लोकमानस, लोकप्रिय संस्कृति और सार्वजनिक संवाद में भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत के सांस्कृतिक विमर्श में जो बदलाव आया है, वह आकस्मिक नहीं है। लंबे समय तक राष्ट्रीयता, आस्था और परंपरा को संकीर्ण, पिछड़ा या अप्रासंगिक बताकर एक खास वैचारिक ढांचे के भीतर सीमित किया गया। अभिजनवादी नैरेटिव ने यह तय किया कि क्या आधुनिक है और क्या नहीं, क्या स्वीकार्य है और क्या त्याज्य। किंतु आज वही लोकभाव, वही सांस्कृतिक स्मृति और वही राष्ट्रीय चेतना नए आत्मविश्वास के साथ पुनः उभर रही है।
इस बदलाव की एक स्पष्ट झलक सिनेमा और लोकप्रिय संस्कृति में दिखाई देती है। वर्ष 2001 में जब ‘गदर’ प्रदर्शित हुई थी, तब भी यही दृश्य था। थियेटरों में हाउसफुल शो, जनता की जबरदस्त प्रतिक्रिया और समानांतर रूप से समीक्षकों व मीडिया का उपेक्षापूर्ण रवैया। कहा गया कि देसी गुस्सा, राष्ट्रभाव, पाकिस्तान विरोध और गांव-देहात का नायक कलात्मक या आधुनिक सिनेमा के मानकों में फिट नहीं बैठता लेकिन जनता ने इन आकलनों को नकारते हुए फिल्म को ऐतिहासिक सफलता दिलाई। यह जनता और अभिजन नैरेटिव के बीच बढ़ती दूरी का पहला बड़ा संकेत था।
आज वही परिदृश्य ‘धुरंधर’ जैसी फिल्मों के साथ फिर सामने है। इस बार भी समीक्षाओं से अधिक जमीन पर वर्ड ऑफ माउथ का प्रभाव दिखाई देता है। यह सिर्फ फिल्मी पसंद का बदलाव नहीं है, बल्कि भारत के सामाजिक मनोविज्ञान में आए परिवर्तन का प्रमाण है। जनता अब अपनी भावनाओं, अपने नायकों और अपनी कथा के लिए किसी वैचारिक अनुमति की प्रतीक्षा नहीं करना चाहती।
यह बदलाव तथाकथित सिस्टम को असहज करता है, क्योंकि जैसे-जैसे भारत विकसित हो रहा है, वह अपनी सांस्कृतिक स्मृति और राष्ट्रीयता के साथ सहज हो रहा है। पहले राष्ट्रीयता को संकीर्णता कहकर दबाया गया, आज समाज कह रहा है कि राष्ट्रभाव सामान्य है और इसमें अपराधबोध की कोई आवश्यकता नहीं। पहले आध्यात्मिक आस्था को पिछड़ेपन का प्रतीक बताया गया, आज वही आस्था शोध, संवाद और सार्वजनिक विमर्श का आधार बन रही है। पहले जनता की भावनाओं पर अभिजन दृष्टि हावी थी, आज लोकमानस स्वयं नैरेटिव का स्वामी बन रहा है।
यही विकसित भारत का आत्मविश्वासी स्वरूप है। विकास तब तक अधूरा है, जब तक समाज अपनी जड़ों, इतिहास, आस्था और सामूहिक भावनाओं की वैधता को स्वीकार नहीं करता। आज भारत में यह स्वीकार्यता लौट रही है। जनता स्पष्ट कह रही है कि हमारी संस्कृति किसी बाजार, किसी वैश्विक स्वीकृति या किसी बौद्धिक वर्ग की मंजूरी पर निर्भर नहीं।
इसी वैचारिक जागरण की परिणति Make in India, Digital India और आत्मनिर्भर भारत जैसी पहलों में दिखाई देती है। ये केवल आर्थिक या प्रशासनिक योजनाएं नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक स्वावलंबन की घोषणा है। इसीलिए ही स्वदेशीकरण उत्पादों तक सीमित नहीं रह गया है, वह विचारों, प्रतीकों और आत्मविश्वास तक विस्तृत हो रहा है। ‘गदर’ और ‘धुरंधर’ जैसे जन-आख्यान उसी दबे हुए लोकभाव की अभिव्यक्तियां हैं, जिन्हें लंबे समय तक अभिजनवादी नैरेटिव ने नकारा। यह वैधता की पुनर्प्राप्ति है, अपने होने पर गर्व की पुनर्स्थापना।
इसी क्रम में ‘जी राम जी’ जैसी सांस्कृतिक पहल विकसित भारत के सामाजिक आधार को और मजबूत कर सकती है। यह साफ है कि विकसित भारत का भविष्य केवल आर्थिक परियोजनाओं से तय नहीं होगा, बल्कि संस्कृति आधारित पुनर्जीवन से भी निर्धारित होगा। यहां ‘जी राम जी’ का भाव किसी एक धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं है, यह सम्मान, आत्मीयता और मर्यादा की भारतीय परंपरा का प्रतीक है। राम यहाँ नैतिकता, सत्य, कर्तव्य और मर्यादा की सांस्कृतिक स्मृति के रूप में उपस्थित हैं।
इस पहल का उद्देश्य सामाजिक व्यवहार में संवाद और सौहार्द को पुनर्जीवित करना है। अभिवादन संस्कृति को मजबूत करना, पीढ़ियों के बीच सांस्कृतिक निरंतरता बनाए रखना और संवादहीनता से जूझ रहे समाज में भावनात्मक पुनर्संबंध स्थापित करना इसके सूक्ष्म किंतु दूरगामी लक्ष्य हैं। जब समाज में संवाद बढ़ता है तब स्वभाविक है कि विश्वास बढ़ता है और जब विश्वास बढ़ता है, तब राष्ट्र अधिक सुदृढ़ और आत्मविश्वासी बनता है।
वैश्विक स्तर पर भी भारत की पहचान तेजी से बदल रही है। भारत अब स्वयं को केवल विकासशील राष्ट्र नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता के संतुलन पर आधारित शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। शिक्षा, संचार और सांस्कृतिक विमर्श में वैदिक और सांस्कृतिक विरासत को आधुनिक विज्ञान, तकनीक और नवाचार से जोड़ा जा रहा है। युवा शक्ति इस परिवर्तन का केंद्र है। डिजिटल क्रांति, स्टार्टअप संस्कृति और शासन में बढ़ती भागीदारी विकसित भारत 2047 को ठोस आधार दे रही है।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत नैतिक नेतृत्व, विश्व शांति और रणनीतिक स्वायत्तता के साथ उभर रहा है। गुटनिरपेक्षता से आगे बढ़कर भारत अब वैश्विक एजेंडा गढ़ने में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, आत्मनिर्भरता की दिशा और सांस्कृतिक आत्मविश्वास, ये सब मिलकर भारत को एक नई वैश्विक पहचान दे रहे हैं।
आज का भारत स्पष्ट रूप से कह रहा है कि विकास सिर्फ आँकड़ों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि आत्माभिमान, संस्कृति और न्यायपूर्ण संवाद में भी दिखाई देना चाहिए। ‘गदर’ और ‘धुरंधर’ जैसी फिल्में इस बात का संकेत हैं कि जनता अब अपनी कथा स्वयं गढ़ रही है और ‘जी राम जी’ जैसी सांस्कृतिक पहलें इस यात्रा को स्थायित्व प्रदान कर सकती हैं। यही विकसित, उभरता और आत्मविश्वासी भारत है जोकि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपनी चेतना के जागरण से भी निरंतर आगे बढ़ रहा है।
(लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्तम्भकार हैं।)
