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अरावली पहाड़ियों में खनन पर अदालत और सरकार

Date : 22-Dec-2025

कैलाश चन्‍द्र

भारत की अरावली पर्वतमाला उत्तर और पश्चिम भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा प्रणाली की रीढ़ है। दिल्ली से लेकर गुजरात तक फैली यह प्राचीन पर्वत शृंखला भारत की सबसे पुरानी भूवैज्ञानिक संरचनाओं में से एक होने के साथ ही यह मरुस्थलीकरण को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार, भूजल पुनर्भरण का अहम क्षेत्र और जैव विविधता का महत्वपूर्ण आश्रय भी है। ऐसे में हाल के दिनों में सोशल मीडिया और कुछ यूट्यूब चैनलों पर यह दावा किया जाना कि सरकार ने अरावली में खनन और निर्माण के लिए “ढील” दे दी है, स्वाभाविक रूप से चिंता पैदा करता है और इससे जुड़ा सच जानने के लिए प्रेरित करता है।

इसी संदर्भ में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव को सार्वजनिक रूप से स्पष्टीकरण देना पड़ा है। उन्होंने इन आरोपों को भ्रामक और तथ्यों से परे बताया। वास्तव में इस पूरे विवाद को समझने के लिए तीन बुनियादी पहलुओं को स्पष्ट रूप से देखना आवश्यक है; अरावली का भौगोलिक और पारिस्थितिक महत्व, सुप्रीम कोर्ट के पुराने और नए आदेश तथा सरकार की वर्तमान संरक्षण नीति।

हम यदि गहराई से देखें तब अरावली पर्वतमाला दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के 39 जिलों में फैली हुई दिखाई देती है। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के लिए यह ‘ग्रीन लंग्स’ की तरह काम करती है। यही पहाड़ियाँ थार मरुस्थल को उत्तर और पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती हैं। वर्षा जल को रोककर यह भूजल को रिचार्ज करती हैं। हवा के बहाव को नियंत्रित करती हैं और प्रदूषण के स्तर को संतुलित रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। एनसीआर की जलवायु, वायु गुणवत्ता और जल सुरक्षा सीधे-सीधे अरावली की स्थिति से जुड़ी हुई है। यही कारण है कि दशकों से अरावली क्षेत्र में खनन और निर्माण गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण और कई जगहों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए गए हैं।

अरावली में अवैध खनन और पर्यावरणीय क्षति को लेकर 1980 के दशक से ही जनहित याचिकाएँ दाखिल होती रही हैं। इन याचिकाओं के परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय ने कई ऐतिहासिक आदेश दिए। वर्ष 2009 में उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और नूंह जिलों की अरावली पहाड़ियों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध आज भी प्रभावी है। इसके बाद न्‍यायालय ने स्पष्ट किया कि वैज्ञानिक मैपिंग और पर्यावरण प्रभाव अध्ययन (ईआईए) के बिना अरावली क्षेत्र में किसी भी नई खनन गतिविधि की अनुमति नहीं दी जा सकती। पहले वैज्ञानिक सर्वे फिर पर्यावरणीय योजना और उसके बाद ही किसी प्रकार की अनुमति, यह सिद्धांत स्थापित किया गया। इसमें भी महत्वपूर्ण तथ्‍य यह है कि ये रोकें अस्थायी नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और कई मामलों में स्थायी हैं। आम धारणा के विपरीत हर साल नई-नई रोकें नहीं लगतीं, किंतु एक बार सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद वह वर्षों तक लागू रहता है।

वर्ष 2025 में उच्चतम न्यायालय ने अरावली को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्देश दिया। अदालत ने सभी राज्यों से अरावली की एक समान, वैज्ञानिक और लागू करने योग्य परिभाषा तैयार करने को कहा और केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया। यहीं से भ्रम की शुरुआत हुई। कुछ लोगों ने यह प्रचारित किया कि अब केवल पहाड़ी की चोटी से 100 मीटर ऊपर तक ही संरक्षण रहेगा और उसके नीचे खनन की छूट मिल जाएगी। निश्‍चित ही ये दावा अधूरा और पूरी तरह भ्रामक है।

विशेषज्ञ समिति द्वारा सुझाया गया 100 मीटर मानदंड पहाड़ी की ऊँचाई को “स्थानीय राहत” के संदर्भ में परिभाषित करता है। इसका अर्थ यह है कि पहाड़ी का आधार यदि जमीन के भीतर 20 मीटर नीचे तक फैला है तो संरक्षण की गणना वहीं से होगी। यानी चट्टान की पूरी मोटाई, उसकी ढलानें और उससे जुड़ी घाटियां भी संरक्षण के दायरे में आती हैं। दूसरे शब्दों में यह नियम खनन को छूट देने के लिए नहीं है, उक्‍त संदर्भ में यह स्पष्ट करने के लिए है कि अरावली वास्तव में कहाँ तक फैली है। जबकि इससे पहले विभिन्न राज्यों में अलग-अलग परिभाषाओं के कारण भ्रम और दुरुपयोग की गुंजाइश बनी रहती थी।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार नई वैज्ञानिक परिभाषा के बाद अरावली क्षेत्र लगभग 1.44 से 1.47 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ माना गया है। इसमें से करीब 90 प्रतिशत हिस्सा सीधे-सीधे संरक्षित श्रेणी में आता है। केवल 0.2 से 2 प्रतिशत तक का हिस्सा ही सैद्धांतिक रूप से खनन के लिए संभावित माना जा सकता है। किंतु यह “संभावित” शब्द भी महत्वपूर्ण है। इस छोटे से हिस्से में भी खनन तभी संभव है जब विस्तृत माइनिंग प्लान बने। वैज्ञानिक अध्ययन हो। पर्यावरणीय मंजूरी मिले और इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एंड एजुकेशन (आईसीएफआरई) से अनुमोदन प्राप्त हो। व्यावहारिक रूप से यह छूट लगभग नगण्य है।

दिल्ली की पूरी अरावली में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध है और भविष्य में भी यहां किसी प्रकार की माइनिंग की अनुमति नहीं दी जाएगी। एनसीआर के संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण परियोजनाओं पर भी सख्त नियंत्रण रहेगा। जहां किसी क्षेत्र को लेकर संदेह होगा, उसे तब तक अरावली माना जाएगा जब तक वैज्ञानिक सर्वे कुछ और सिद्ध न कर दे। यह प्रावधान संरक्षण नीति को और अधिक कठोर बनाता है। ध्‍यातव्‍य हो कि मई 2024 में न्यायालय ने विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाए जा रहे असंगत मानदंडों को देखते हुए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। इस समिति में पर्यावरण मंत्रालय, चारों राज्यों के वन विभाग, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के प्रतिनिधि शामिल रहे।

समिति का उद्देश्य था अरावली की एक समान, वैज्ञानिक और कानूनी रूप से मजबूत परिभाषा तैयार करना। इसकी सिफारिशों को 20 नवंबर 2025 के अंतिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार करते हुए पूरे अरावली क्षेत्र के लिए एक सस्टेनेबल माइनिंग मैनेजमेंट प्लान बनने तक सभी नई खनन लीज पर रोक लगा दी है। दूसरी ओर सरकार “ग्रीन अरावली” अभियान के तहत 39 जिलों में वनीकरण, जल संरक्षण और स्थानीय प्रजातियों की नर्सरी विकसित कर रही है। ड्रोन सर्विलांस, सीसीटीवी, ई-चालान, हाईटेक वेइंग ब्रिज और जिला स्तरीय टास्क फोर्स के जरिए अवैध खनन पर निगरानी रखी जा रही है।

कुल मिलाकर यदि हम सार रूप में कहें तो अरावली को लेकर ढील या छूट की खबरें तथ्यात्मक नहीं हैं, यह बहुत भ्रामक हैं। न्यायालय के आदेशों और सरकार की नीतियों से इस क्षेत्र का संरक्षण कमजोर नहीं हुआ है, यह तो पहले से अधिक स्पष्ट और मजबूत हुआ है। आज जरूरत इस बात की है कि अफवाहों और आधे-अधूरे तथ्यों के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों और न्यायिक आदेशों के आधार पर इस मुद्दे को समझा जाए। विकास और संरक्षण को आमने-सामने खड़ा करने की राजनीति से सावधान रहते हुए अरावली को बचाने का जो राष्ट्रीय संकल्प केंद्र सरकार और न्‍यायालय ने परस्‍पर दिखाया है, हमारा उसके साथ खड़ा होना ही समय की मांग है।

(लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

 


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