पं. मदनमोहन मालवीय भारत के पहले और अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें ‘महामना’ की सम्मानजनक उपाधि प्राप्त हुई। उनका जन्म 25 दिसंबर, 1861 को इलाहाबाद में हुआ था। वे ऐसे महान व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृभाषा और भारत माता की सेवा में समर्पित कर दिया।
मालवीय जी का मानना था कि राष्ट्र की वास्तविक उन्नति शिक्षित नागरिकों से ही संभव है। इसी विचारधारा के साथ उन्होंने नवयुवकों के चरित्र-निर्माण और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के उद्देश्य से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका विश्वास था कि शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को भली-भांति समझ सकता है। वे जीवनभर गांवों और समाज के पिछड़े वर्गों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय रहे। उनका यह भी मानना था कि संसार के वे सभी राष्ट्र जो उन्नति के शिखर पर हैं, वहां शिक्षा की मजबूत नींव है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मालवीय जी का योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने 1887 से लगभग ढाई वर्षों तक हिन्दी-अंग्रेजी समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का संपादन कर जनता को जागरूक किया। बाद में 1924 में वे दिल्ली आए और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ से जुड़े। हिन्दी भाषा के उत्थान में उनकी भूमिका ऐतिहासिक रही। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी, 1910) में अपने अध्यक्षीय अभिभाषण में उन्होंने हिन्दी के स्वरूप पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हिन्दी को न तो अनावश्यक रूप से फारसी-अरबी के भारी शब्दों से लादना चाहिए और न ही बिना कारण संस्कृत के कठिन शब्दों से गूंथना चाहिए।
मालवीय जी की यह भविष्यवाणी थी कि एक दिन हिन्दी ही देश की राष्ट्रभाषा बनेगी। वे संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी—तीनों भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे। अपने सरल, सौम्य और विनम्र स्वभाव के कारण वे जनसामान्य में अत्यंत प्रिय थे। दुर्भाग्यवश 12 नवंबर 1946 को उनका निधन हो गया और वे देश को स्वतंत्र होते हुए नहीं देख सके।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के अतुलनीय योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2014 में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया।
