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नवरात्रि विशेष -देवी कूष्माण्डा

Date : 25-Mar-2023

माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होंने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। नवरात्रि के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक इस दिन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। माँ कूष्माण्डा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। माँ की भक्ति से आयु, यश, बल और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। इनकी आठ भुजायें हैं इसीलिए इन्हें अष्टभुजा कहा जाता है। इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। कूष्माण्डा देवी अल्पसेवा और अल्पभक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यदि साधक सच्चे मन से इनका शरणागत बन जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है।

माता कुष्मांडा का सबसे प्राचीन मंदिर

यूपी में माता कुष्मांडा एकमात्र मंदिर कानपुर के घाटमपुर में है। इस मंदिर से जुड़ी मान्यता है कि मां दुर्गा की पूजा के के बाद मूर्ति से नीर लेकर जो कोई भक्त अपनी आंखों पर लगाता है उसे 'दिव्य नेत्र ज्योति' प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, नेत्र विकार से सम्बंधित सभी परेशानियां दूर हो जाती है। नवरात्रि के दौरान मंदिर परिसर में मेला लगता है। खासकर, नवरात्रि के चौथे दिन यहां हजारों भक्त माता रानी के दर्शन को कतारबद्ध खड़े रहते हैं। जिन जातकों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वो मैय्या को लाल चुनरी, ध्वजा, नारियल, घंटा के साथ भींगे चने अर्पित करते हैं।

कुष्मांडा मंदिर का इतिहास

कुष्मांडा मंदिर के इतिहास के बारे में जिक्र होता है तो यह कहा जाता है कि यह काफी प्राचीन मंदिर है। कई लोगों का मानना है कि लगभग 1783 में फारसी भाषा में लिखी गई पांडुलिपि में इस मंदिर का जिक्र था।

कई लोगों का मानना है कि लिखी गई पांडुलिपि जिसका नाम 'ऐश अफ्जा' था और उसमें माता कुष्मांडा और माता भद्रकाली के स्वरूपों का वर्णन किया गया है। कानपुर के प्राचीन लेखकों द्वारा भी इस मंदिर का जिक्र किया गया था।

कुष्मांडा मंदिर की पौराणिक कथा

कुष्मांडा मंदिर की पौराणिक कथा बेहद ही दिलचस्प है। इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि एक चरवाहा मंदिर के आसपास गाय चराने के लिए जाता था। गाय झाड़ियों के पास खड़ी होकर हर रोज अपना दूध गीरा दिया करती थी।  जब यह मालूम किया गया तो एक दिन चरवाहा को सपने में मां दिखाई दी और झाड़ियों के खुदाई करने को कहा। जब खुदाई हुई तो मां कुष्मांडा की प्रतिमा मिली और उस स्थान पर छोटा सा मंदिर का निर्माण किया गया। इसके अलावा कई लोगों का मानना है कि लगभग 1988 के आसपास से इस मंदिर में अखंड ज्योति निरंतर प्रज्ज्वलित हो रही है। 

मंदिर का पानी है रहस्यमयी

जी हां, इस मंदिर का पानी लाखों भक्तों के लिए रहस्यमयी बना हुआ है। मान्यता है कि मंदिर में अर्पित किया जाने वाला पानी कई दुखों का निवारण करता है। ऐसी मान्यता है कि मंदिर में अर्पित किए हुए पानी को आंखों में लगाते हैं तो आंखों को रोशनी बढ़ जाती है। नवरात्र के दिनों में यहां मेला भी लगता है।

परिसर के तालाब का जल ही चढ़ाते हैं  

कुष्मांडा देवी के इस मंदिर परिसर में दो तालाब भी बने हैं। कहा जाता है प्राचीन समय से ही भक्त तालाब में स्नान करने के बाद दूसरे कुंड से जल लेकर माता कुष्मांडा को चढ़ाते रहे हैं। यहां से जुड़े एक सेवादार बताते हैं कि माता कुष्मांडा का मंदिर जब से बना है, तब से परिसर का तालाब कभी नहीं सूखा। बरसात हो या हो, लेकिन यह तालाब कभी सूखता नहीं है। 

 
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