आजकल हम टीवी चौनलों में देखते है कि कैसे वो तीसरे विश्व युद्ध की कामना करते है जैसे वो अभी ही हो जाये, यह जानते हुए भी की युद्ध अपने आप में कितनी बड़ी त्रासदी है। प्रथम एवं दूसरे विश्व युद्ध ने लाखों लोगों की जान ली और कई देशों को तबाह और बर्बाद कर दिया, अर्थव्यवस्था को गर्त में डाल दिया। दूसरे विश्व युद्ध ने अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम गिराकर मानवीयता को तार तार कर दिया। इतनी तबाही और बर्बादी देख कर भी युद्ध की कामना करना आत्महत्या के मानिद है।
युद्ध की तबाही प्रथम और दूसरे युद्धों तक नहीं रुकी, बल्कि उसके बाद भी चलती रही। विश्व युद्धों के बाद अमेरिका का बोल बाला पुरे विश्व में रहा है, अमेरिका ने जहाँ चाहा वहां आक्रमण किया और देशों को तबाह बर्बाद करने के साथ वहां के संसाधनों पर कब्जा किया। हथियारों का व्यवसाय विश्व का सबसे बड़ा व्यवसाय है एवं अमरीकी कंपनियां इस व्यवसाय में अग्रणी है। इस व्यवसाय को चलने के लिए युद्ध और तनाव की आवश्यकता होती है जिसको बनाने में अमेरिका माहिर रहा है। कभी लोकतंत्र के नाम पर, कभी आतंकवाद के नाम पर, कभी विनाश के हथियारों को समाप्त करने के नाम पर, कभी तानाशाही को खत्म करने के नाम पर अमेरिका युद्ध में कूदता रहा है।
वियतनाम, इराक, लीबिया, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान और न जाने कितने मुल्कों को अमेरिका ने तबाह और बर्बाद किया है। अकेले अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध में अमेरिका ने 3 ख़राब डॉलर खर्च किये जिसमे से 2 ख़राब डॉलर अमेरिकी कंपनियों के जेब में गए। सैनिक, आम नागरिक की जान लाखों की संख्या में इन युद्धों में गयी और विश्व को बताया जाता है कि शांति लाने के लिए युद्ध किया जा रहा है असल मकसद तो संसाधनों पर कब्ज़ा और अपनी जेब भरना है। आम नागरिक इस चक्की में पीस जाता है लेकिन काफी हद तक वो भी जिम्मेदार होता जो झूठे राष्ट्रवाद और नारों के फेर में आ जाता है और अपनी फ़िक्र छोड़ कर लड़ाई के लिए तैयार हो जाता है जबकि सारा नुकसान उसी के खाते में जाता है और पैसे तो कोई और कमाता है।
अमेरिका के साथ ये काम रूस भी कर रहा है। यूक्रेन पर हमले को 6 महीने से ज्यादा हो चुके है, लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही बल्कि भविष्य में और भीषण रूप लेने का अंदेशा हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक 5767 नागरिकों की जान जा चुकी है एवं 8292 नागरिक घायल हुए है जबकि लगभग 1 करोड़ लोगों को अपने स्थान से विस्थापित होना पड़ा है जिसमे तक़रीबन 60 लाख लोग देश छोड़कर अन्य देशों में शरण ले रहे चुके है। युद्ध के करण खाद्य पदार्थों खासकर गेहूं के मूल्य में वृद्धि हुयी क्योंकि रूस और यूक्रेन विश्व में गेहूं के निर्यात में अग्रणी रहे है, पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगी आर्थिक पाबंदियों एवं लड़ाई के करण वाणिज्यिक जहाजों का आवागमन प्रभावित हुआ है। गैस और तेल के दामों में भी इज़ाफ़ा हुआ है, रूस द्वारा यूरोप को दी जाने वाली गैस की सप्लाई कम करने से यूरोपीय देशों में ऊर्जा संकट गहरा रहा है, बिजली के बढ़ते दामों ने लोगों के बजट को बिगाड़ दिया है साथ ही कई उद्योगों को बंद होने के लिए मजबूर किया है। ऊर्जा संकट और शीत ऋतू मिलकर यूरोप को गहरे संकट में डाल सकते है। खाद्यान संकट, ऊर्जा संकट, महंगाई, बेरोज़गारी विश्व को मंदी में ले जाने के लिए तैयार है।
लेखक - आसिफ खान