भारतीय जीवनशैली पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव काफी हद तक बढ़ा है। हम उनके रहन-सहन की आधुनिक शैली को तो अपना लेते हैं पर उनकी कुछ अच्छी चीजों की अनदेखी कर देते हैं। मसलन आज से दो दशक पहले ब्रिटेन के प्राइमरी स्कूलों में पढ़ रहे करीब 60 फीसदी बच्चों के पास मोबाइल फोन होते थे। तब के हेलीफैक्स के आंकड़ों के मुताबिक सात से 11 साल के लगभग 60 फीसदी बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे। सर्वेक्षण के मुताबिक ब्रिटेन के बच्चे बचत के मामले में बड़ों से काफी आगे थे। ये बच्चे पॉकेट मनी या दूसरे स्रोतों से होने वाली इनकम का 60 फीसदी हिस्सा बचाकर रखते थे। वह ऐसा कुछ नहीं करते थे कि उनके परिजन परेशान हों। वहीं, आज के संदर्भ में भारत के माता-पिता के लिए बच्चों का मोबाइल फोन से चिपके रहना किसी चुनौती से कम नहीं है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि डिजिटल युग में बच्चों के पालन-पोषण के सफर में कई तरह की चुनौतियां मौजूद हैं। ऑनलाइन कंटेंट से भरी दुनिया में बड़े हो रहे बच्चों के साथ, रचनात्मक जुड़ाव और हानिकारक लत के बीच की रेखा तेजी से धुंधली होती जा रही है। देश में स्मार्ट पैरेंटिंग सॉल्यूशंस के क्षेत्र में अग्रणी 'बातू टेक' ने हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के नतीजों की घोषणा की है। यह सर्वेक्षण बच्चों में स्क्रीन की लत, गेमिंग और वयस्क कंटेंट की खपत के बारे में भारतीय माता-पिता को आगाह करता है। 3000 लोगों के बीच किए गए इस सर्वेक्षण से पता चला कि 95 प्रतिशत भारतीय माता-पिता स्क्रीन की लत को लेकर ज्यादा परेशान हैं। 80 फीसद ने गेमिंग की लत और 70 प्रतिशत ने एडल्ट कंटेंट की खपत को लेकर चिंता जताई है।
'बातू टेक' के संस्थापक एवं प्रबंध निदेशक संदीप कुमार कहते हैं कि हालांकि इससे पहले के एक मुताबिक अत्यधिक स्क्रीन टाइम बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। उनके संज्ञानात्मक विकास में बाधा डाल सकता है और सामाजिक संपर्क को प्रभावित कर सकता है। वह कहते हैं कि सबसे ज्यादा परेशानी बच्चों में गेमिंग की लत की बढ़ती प्रवृत्ति है। जर्नल ऑफ बिहेवियरल एडिक्शन में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में लगभग तीन-चार प्रतिशत बच्चे समस्या की हद तक गेमिंग व्यवहार का अनुभव करते हैं। यह लत विभिन्न प्रकार के हानिकारक प्रभावों को जन्म दे सकती है, जिसमें खराब शैक्षणिक प्रदर्शन, नींद के पैटर्न में व्यवधान और शारीरिक गतिविधि में होने वाली कमी शामिल हैं। इसके अलावा, हिंसक या आक्रामक स्पोर्ट्स कंटेंट में लंबे समय तक संपर्क बच्चों में बढ़ती आक्रामकता और वास्तविक जीवन की हिंसा के प्रति असंवेदनशीलता को बढ़ावा देती है।
कुमार का मानना है कि माता-पिता और शिक्षकों को गेमिंग की लत के संकेतों के बारे में पता होना चाहिए और बच्चों के जीवन में गेमिंग और अन्य गतिविधियों के बीच एक स्वस्थ संतुलन सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय कदम उठाने चाहिए। जुड़ाव और संपर्क के वैकल्पिक स्वरूपों को बढ़ावा देकर और स्पष्ट सीमाएं तय करके हम बच्चों को टेक्नोलॉजी को लेकर एक बेहतरीन नजरिया विकसित करने में मदद कर सकते हैं और अत्यधिक गेमिंग के नकारात्मक परिणामों को रोक सकते हैं।
बातू टेक डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देने और बच्चों को स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने, गेमिंग की लत और इंटरनेट के अत्यधिक इस्तेमाल के खतरों से बचाने के बीच एक बारीक संतुलन के महत्व को समझता है। बातू टेक का सर्वे कई समाचार रिपोर्ट्स और ऑनलाइन चर्चाओं के निष्कर्षों के बाद किया गया। इन निष्कर्षों में भी बच्चों के अनुचित सामग्री के संपर्क और अत्यधिक स्क्रीन समय के बारे में बढ़ती चिंताओं को सामने रखा है। वह कहते हैं कि जीवन के हर पहलू में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के साथ माता-पिता के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वे पूरी तरह से सोच-समझकर ऐसा दृष्टिकोण अपनाएं जोकि यह सुनिश्चित कर सके कि उनके बच्चे टेक्नोलॉजी के साथ एक जिम्मेदार और सामंजस्यपूर्ण संबंध विकसित कर सकें।
संदीप कुमार का कहना है कि "बातू टेक भारतीय माता-पिता की चिंताओं को समझता है और बच्चों में स्क्रीन की लत और अनुचित कंटेंट उपभोग के गंभीर मुद्दे का समाधान प्रतिबद्ध है। डिजिटल युग में पालन-पोषण के लिए निरंतर सतर्कता, खुले और ईमानदार संचार और बेहतर व जानकारी से भरे नजरिये की जरूरत है। हमारे स्मार्ट पैरेंटिंग समाधान माता-पिता को अपने बच्चों की सेहत की सुरक्षा करते हुए डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देने में सशक्त बनाते हैं।" वह कहते हैं कि ''बातू टेक'' आज की डिजिटल दुनिया में बच्चों की परवरिश करने की जटिलताओं से निपटने के तरीके में बड़ा बदलाव ला रहा है। नए उपकरण और संसाधन मुहैया कराते हुए बातू टेक बच्चों और तकनीक के बीच एक जिम्मेदार और सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि कुछेक साल से 12 से 18 महीने की उम्र के बच्चों में स्मार्टफोन के इस्तेमाल की बढ़ोतरी देखी गई है। ये स्क्रीन को आंखों के करीब ले जाते हैं और जिससे आंखों को नुकसान पहुंचता है। इससे जल्दी चश्मा लगने, आंखों में जलन और सूखापन, थकान जैसी दिक्कत हो रही हैं। बच्चे स्मार्टफोन चलाने के दौरान पलकें कम झपकाते हैं। इसे कंप्यूटर विजन सिंड्रोम कहते हैं। माता-पिता को सचेत रहना चाहिए बच्चे स्क्रीन का सामना आधा घंटे से अधिक न कर पाएं। कम उम्र में स्मार्टफोन की लत की वजह बच्चे सामाजिक तौर पर विकसित नहीं हो पाते हैं। बाहर खेलने न जाने की वजह से उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता। कुछ बच्चे तो पसंदीदा कार्टून कैरेक्टर की तरह ही हरकतें करने लगते हैं। इस कारण उनके दिमागी विकास में बाधा पहुंचती है। बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल अधिकतर गेम्स खेलने के लिए करते हैं। वे भावनात्मक रूप से कमजोर होते जाते हैं ऐसे में हिंसक गेम्स बच्चों में आक्रामकता को बढ़ावा देते हैं।
मोबाइल फोन के अधिक इस्तेमाल से वे बाहरी दुनिया से संपर्क करने में कतराते हैं। जब उनकी यह आदत बदलने की कोशिश की जाती है तो वो चिड़चिड़े, आक्रामक और कुंठाग्रस्त हो जाते हैं। विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि माता-पिता एक राय रखें। यदि मोबाइल या किसी और चीज के लिए मां ने मना किया है तो पिता भी मना करें। वरना बच्चे यह जान जाते हैं कि किससे अनुमति मिल सकती है। बच्चों का इमोशनल ड्रामा सहन न करें। इंटरनेट पर कुछ अच्छा और ज्ञानवर्धक है तो उसे दिखाने की अवधि निर्धारित करें और साथ बैठकर देखें।
लेखक - मुकुंद