Quote :

नए दिन के साथ नई ताकत और नए विचार आते हैं - एलेनोर रोसवैल्ट

Travel & Culture

छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति

Date : 17-Nov-2022

सम्पूर्ण भारत में अपना बहुत ही ख़ास महत्त्व रखती है। छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति भारत के हृदय-स्थल पर स्थित छत्तीसगढ़, जो भगवान श्रीराम की कर्मभूमि रही है, प्राचीन कला, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है।

यहाँ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अयोध्या के राजा श्रीराम की माता कौशल्या छत्तीसगढ़ की ही थी। ‘छत्तीसगढ़ की संस्कृति’ के अंतर्गत अंचल के प्रसिद्ध उत्सव, नृत्य, संगीत, मेला-मड़ई तथा लोक शिल्प आदि शामिल हैं।

छत्तीसगढ़ का त्यौहार
बस्तर का ‘दशहरा‘, रायगढ़ का ‘गणेशोत्सव‘ तथा बिलासपुर का ‘राउत मढ़ई ऐसे ही उत्सव हैं, जिनकी अपनी एक बहुत-ही विशिष्ट पहचान है। पंडवानी, भरथरी, पंथी नृत्य, करमा, दादरा, गैड़ी नृत्य, गौरा, धनकुल आदि की स्वर माधुरी भाव-भंगिमा तथा लय में ओज और उल्लास समाया हुआ है।

छत्तीसगढ़ की शिल्पकला में परंपरा और आस्था का अद्भुत समन्वय विद्यमान है। यहाँ की पारंपरिक शिल्पकला में धातु, काष्ठबांस अर्चना और अलंकरण के लिए विशेष रुप से लोकप्रिय हैं। संस्कृति विभाग ने कार्यक्रमों में पारंपरिक नृत्य, संगीत तथा शिल्पकला का संरक्षण और संवर्धन के साथ-साथ कलाकारों को अवसर भी प्रदान किये हैं।

छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति का विकास  

यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में धर्म, कला व इतिहास की त्रिवेणी अविरल रूप से प्रवाहित होती रही है। हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम ‘राजिम’ व ‘सिहावा’ में ऋषि-मुनियों के सान्निध्य में लंबे समय तक रहे और यहीं उन्होंने रावण के वध की योजना बनाई थी। उनकी कृपा से ही आज त्रिवेणी संगम पर ‘राजिम कुंभ’ को देश के पाँचवें कुंभ के रूप में मान्यता मिली है।

सिरपुर की ऐतिहासिकता यहाँ बौद्धों के आश्रम, रामगिरी पर्वत, चित्रकूट, भोरमदेव मंदिर, सीताबेंगरा गुफ़ा स्थित जैसी अद्वितीय कलात्मक विरासतें छत्तीसगढ़ को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान प्रदान कर रही हैं।संस्कृति एवं पुरातत्त्व धार्मिक न्यासएवंधर्मस्व विभागने विगत आठ वर्षों के दौरान यहाँ की कला संस्कृति की उत्कृष्टता को देश दुनिया के सामने रखकर छत्तीसगढ़ के मस्तक को गर्व से ऊँचा उठा दिया है। 

छत्तीसगढ़ का संस्कृति पुरातत्त्व विभाग
छत्तीसगढ़ के गौरवशाली अतीत के परिचालककुलेश्वर मंदिर’ राजिम; ‘शिव मंदिरचन्दखुरी; ‘सिद्धेश्वर मंदिरपलारी; ‘जगन्नाथ मंदिरखल्लारी; ‘भोरमदेव मंदिर’ कवर्धा; ‘बत्तीस मंदिरबारसूर औरमहामाया मंदिर रतनपुर सहित पुरातत्त्वीय दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण 58 स्मारक घोषित किए गए हैं।

बीते ग्यारह वर्षों के दौरान पिछले आठ वर्षों मेंसंस्कृति पुरातत्त्व विभागने छत्तीसगढ़ भी संस्कृतिकलासाहित्य  पुरा संपदा के संरक्षण और संवर्धन के लिए निरंतर प्रयास किए हैं। अनेक स्वर्णिम उपलब्धियाँ हासिल की हैं। किसी भी देश या प्रदेश का विकास उसकी भाषा के विकास के बिना अपूर्ण होता है।

छत्तीसगढ़ के विकास के साथ ही छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया गया है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया औरछत्तीसगढ़ राजभाषा आयोगका गठन किया गया, ताकि छत्तीसगढ़ में सरकारी कामकाज हो सकें। विधानसभा मेंगुरतुर छत्तीसगढ़ीकी अनगूंज सुनाई देने लगी है।

छत्तीसगढ़ में कुंभ मेला का आयोजन
छत्तीसगढ़ के संस्कृति मंत्री के प्रयासों सेछत्तीसगढ़ विधानसभा कुंभ मेला विधेयक-2005‘  पारित होने के बाद सेछत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिममें आयोजित विशालराजिम कुंभमेला पाँचवे कुंभ के रूप में अपनी राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पहचान बना चुका है।

सिरपुर में 1956 के बाद 2006 में पुनः पुरातात्विक उत्खनन प्रारंभ कराया गया था, जिससे 32 प्राचीन टीलों पर अत्यंत प्राचीन संरचनाएँ प्रकाश में आईं। उत्खनन के दौरान पहली बार मौर्य काल के बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए। 79 कांस्य प्रतिमाएँ और सोमवंशी शासकतीवरदेवका एक तथामहाशिव गुप्त बालार्जुनके तीन ताम्रपत्र मिले।

सिरपुर आज अपनी पुरातात्विक वैभव के कारण दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। पचराही’, ‘मदकूद्वीप’, ‘महेशपुर’   और   ‘तुरतुरिया‘  में भी उत्खनन कार्य किया गया है। छत्तीसगढ़ के 8 ज़िलों में पुरातत्त्व संग्रहालयों का निर्माण विकास कराया गया ह।

छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक केन्द्र कार्यक्रम
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भव्य ‘पुरखौती मुक्तांगन’ का लोकार्पण राष्ट्रपति ‘अब्दुल कलाम’ से कराया गया है। इसके अलावा ‘दक्षिण मध्य सांस्कृतिक केन्द्र’ की सदस्यता प्राप्त की गई है, जिससे छत्तीसगढ़ के कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर मिल सके। कलाकारों की पहचान व सम्मान के लिए ‘चिह्नारी कार्यक्रम’ शुरू किया गया है।

कलाकारों व साहित्यकारों के लिए पेंशन राशि को 700 रुपए से बढ़ाकर 1500 रुपए किया गया है। ‘विवेकानंद प्रबुद्ध संस्थान’ और ‘छत्तीसगढ़ सिंधी साहित्य संस्थान’ का गठन किया गया है। इसके साथ ही उत्सवधर्मी इस प्रदेश में मेला, मंडई और अन्य पारम्परिक उत्सवों को भव्यता प्रदान की गई है।

इस तरह प्राचीन कला, संस्कृति और पुरा संपदा से परिपूर्ण छत्तीसगढ़, भारत व दुनिया के मानचित्र पर अपनी पृथक् व विशिष्ट पहचान बना चुका है, जिससे यहाँ पर्यटन के विकास की संभावना भी असीम हो रही है।

छत्तीसगढृ के कुछ प्रसिद्ध पकवान

मुठिया - मुठिया छत्तीसगढ़ के पारंपरिक पकौड़ों का एक रूप हैं। मुठिया को पके हुए चावल के साथ मिर्ची व तरह- तरह के मसालों को मिलाकर बनाया जाता है। इस पकवान को तेल में तलकर नही बल्कि उबालकर बनाया जाता है जिससे इसका स्वाद पूर्णत: बरकरार रहता है। मुठिया राज्य का एक प्रसिद्ध पकवान है जिसे हरी चटनी के साथ नाश्ते के रूप में खाया जाता है।

आमत - आमत को बस्तर के सांभर के रूप में भी जाना जाता है जिसे प्राय: बस्तर के हर घर में बनाया जाता हैं। इसमें मिक्स सब्जियों के साथ अदरक व लहसून का पेस्ट डालकर बनाया जाता है जिससे इसका स्वाद और भी मजेदार हो जाता हैं । इस पकवान को बांस से बने बर्तनों में रखा जाता है जो इसके स्वाद को बरकरार रखता है। पर अब शहरी क्षेत्रों में इसे आधुनिक उपकरणों के साथ तैयार किया जाता है।

चीला - भारत के अलग- अलग हिस्सों में लोग अलग- अलग प्रकार के पकवान का आनंद लेते हैं यह छत्तीसगढ़ की ही देन है। चीला चपाती की ही तरह एक पकवान है जिसे उड़द दाल और चावल के आटे के घोल के साथ बनाया जाता है। इसे तैयार करना बहुत ही आसान है व यह खाने में बहुत ही स्वादिस्ट होता है। छत्तीसगढ़ में लोग अक्सर नींबु के अचार व हरे धनिये की चटनी के साथ इसे नाश्ते के वक्त आनंद लेते हैं।

भजीया - भजिया छत्तीसगढ़ का एक बहुत ही फेमस स्ट्रीट फूड है जो स्थानीय लोगों में बहुत ही लोकप्रिय है। भजिया आमतौर पर दक्षिण भारत का स्थानीय पकवान है। छत्तीसगढ़ में भजिये को विभिन्न प्रकार के अवयवों के साथ तैयार किया जाता है जो इसके स्वाद को और भी स्वादिष्ट बना देता है। भजिये को कई प्रकार से बनाया जाता है, जैसे - प्याज भजिया, आलू भजिया, मिर्च भजिया आदि। बारिश के मौसम में गरम- गरम चाय के साथ भजिये खाना हर किसी की पहली पसंद होता हैं।

सावुदाने की खिचड़ी - साबुदाने की खिचड़ी छत्तीसगढ़ की सबसे स्वस्थ और स्वादिस्ट व्यंजनों में से एक है जिसे न केवल छत्तीसगढ़ में खाया जाता है बल्कि यह देशभर में प्रसिद्ध है। विभिन्न प्रकार के मसाले व सब्जियां साबुदाने के स्वाद को और भी बढ़ाती हैं। साबुदाने की खिचड़ी छत्तीसगढ़ के लोगों की दिनचर्या का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग हैं।

छत्तीसगढ़ की लोक नृत्य 

पंथी नृत्य 

·         गुरु घासीदास के पंथ के लिए माघ माह की पूर्णिमा अति महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस दिन सतनामी अपने गुरु की जन्म तिथि के अवसर पर जैतखाम की स्थापना कर पंथी नृत्य में मग्न हो जाते हैं।

·         यह द्रुत गति का नृत्य है, जिसमें नर्तक अपना शारीरिक कौशल और चपलता प्रदर्शित करते हैं। सफ़ेद रंग की धोती, कमरबन्द तथा घुंघरू पहने नर्तक मृदंग एवं झांझ की लय पर आंगिक चेष्टाएँ करते हुए मंत्र-मुग्ध प्रतीत होते हैं।

·         मुख्य नर्तक पहले गीत की कड़ी उठाता है, जिसे अन्य नर्तक दोहराते हुए नाचना शुरू करते हैं। प्रारंभ में गीत, संगीत और नृत्य की गति धीमी होती है। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है और मृदंग की लय तेज होती जाती है, वैसे-वैसे पंथी नर्तकों की आंगिक चेष्टाएँ भी तेज होती जाती हैं।

·         गीत के बोल और अंतरा के साथ ही नृत्य की मुद्राएँ बदलती जाती हैं, बीच-बीच में मानव मीनारों की रचना और हैरतअंगेज कारनामें भी दिखाए जाते हैं।

·         इस दौरान भी गीत-संगीत नृत्य का प्रवाह बना रहता है और पंथी का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है। प्रमुख नर्तक बीच-बीच में अहा, अहा…’ शब्द का उच्चारण करते हुए नर्तकों का उत्साहवर्धन करता है।

·         गुरु घासीदास बाबा का जयकारा भी लगाया जाता है। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रमुख नर्तक सीटी भी बजाता है, जो नृत्य की मुद्राएँ बदलने का संकेत होता है।

ककसार नृत्य 

·         ककसार नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर ज़िले की अभुजमरिया जनजाति द्वारा किया जाने वाला एक सुप्रसिद्ध नृत्य है।यह नृत्य फ़सल और वर्षा के देवता ककसार की पूजा के उपरान्त किया जाता है।

·          ककसार नृत्य के साथ संगीत और घुँघरुओं की मधुर ध्वनि से एक रोमांचक वातावरण उत्पन्न होता है। इस नृत्य के माध्यम से युवक और युवतियों को अपना जीवनसाथी ढूँढने का अवसर प्राप्त होता है।

राउत नृत्य

·          राउत नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य के लोक नृत्यों में से एक है। इस नृत्य को अहिरा या गहिरा नृत्य भी कहा जाता है।

·         छत्तीसगढ़ में ही नहीं अपितु सारे भारत में राउत की अपनी संस्कृति है। उनके रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज भी विभिन्न प्रकार के हैं।

·         देश के कोन-कोने तक शिक्षा के पहुँचने के बाद भी राउत ने अपनी प्राचीन धरोहरों को बिसराया नहीं है।

·          यादवपहटियाठेठवार और राउत आदि नाम से संसार में प्रसिद्ध इस जाति के लोग इस नृत्य पर्व को देवारी (दीपावली) के रूप मे मनाते हैं।

 

 राउत नृत्य के तीन भाग हैं-

1.   सुहई बाँधना, मातर पूजा और काछन चढ़ाना। माँ लक्ष्मी के पूजन सुरहोती के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का विधान है।

2.   राउत अपने इष्ट देव की पूजा करके अपने मालिक के घर सोहई बाँधने निकल पड़ते हैं।

3.   गाय के गले में सोहई बाँधकर उसकी बढ़ोतरी की कामना करते हैं

सुआ नृत्य 

·         सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य की स्त्रियों का एक प्रमुख है, जो कि समूह में किया जाता है।

·         स्त्री मन की भावना, उनके सुख-दुख की अभिव्यक्ति और उनके अंगों का लावण्य सुवा नृत्य या सुवना में देखने को मिलता है।

·          सुआ नृत्यका आरंभ दीपावली के दिन से ही हो जाता है। इसके बाद यह नृत्य अगहन मास तक चलता है।

डंडा नृत्य

·         डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य का लोकनृत्य है। इस नृत्य को सैला नृत्य भी कहा जाता है।

·          यह पुरुषों का सर्वाधिक कलात्मक और समूह वाला नृत्य है। डंडा नृत्य में ताल का विशेष महत्व होता है। डंडों की मार से ताल उत्पन्न होता है।

·          इस नृत्य को मैदानी भाग में डंडा नृत्यऔर पर्वती भाग में सैला नृत्य कहा जाता है। सैला शैल का बदला हुआ रूप है, जिसका अर्थ पर्वतीय प्रदेश से किया जाता है।

·          डंडा नृत्य कार्तिक माह से फाल्गुन माह तक होता है। पौष पूर्णिमा यानी की छेरछेरा के दिन मैदानी भाग में इसका समापन होता है।

·          सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने इस नृत्य को छत्तीसगढ का रास कहकर सम्बोधित किया है।

दमनच नृत्य 

डोमकच नृत्य छत्तीसगढ़ के प्रमुख लोक नृत्यों में से एक है। यह नृत्य आदिवासी युवक-युवतियों का बहुत ही प्रिय नृत्य है।

 प्राय: यह नृत्य विवाह आदि के शुभ अवसर पर किया जाता है। यही कारण है कि इस नृत्य को ‘विवाह नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है।

डोमकच नृत्य अगहन से आषाढ़ माह तक रात भर किया जाता है।

अधिकाशत: यह नृत्य वृत्ताकार रूप में नाचते हुए किया जाता है। नृत्य में एक लड़का और एक लड़की गले और कमर में हाथ रखकर आगे-पीछे होते हुए स्वतंत्रतापूर्वक नाचते हैं।

इस नृत्य के प्रमुख वाद्ययंत्रों में मांदर, झांझ ओर टिमकी आदि प्रमुख हैं।डोमकच नृत्य के गीतों में ‘सदरी बोली’ का प्रयोग अधिक किया जाता है।

गैड़ी नृत्य

·         छत्तीसगढ़ राज्य के प्रसिद्ध लोक नृत्यों में से एक है। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के मारिया गौड़ आदिवासी अपने नृत्यों के लिए बहुत जाने जाते है |

·         उनके इन्हीं नृत्यों में से गैड़ी नृत्य भी एक प्रभावशाली नृत्य है, जो नर्तकों के शारीरिक संतुलन को दर्शाता है।

·         यह नृत्य लकड़ी के डंडों के ऊपर शारीरिक संतुलन बनाये रखकर पद संचालन के साथ किया जाता है। प्राय: गैड़ी नृत्य जून से अगस्त माह में होता है।

·         नृत्य करने वाले नर्तकों की कमर में कौड़ी से जड़ी पेटी बंधी होती है।पारम्परिक लोकवाद्यों की थाप के साथ ही यह नृत्य ज़ोर पकड़ता जाता है।

·         इस नृत्य के वाद्यों में मांदरशहनाईचटकुलाडफटिमकी तथा सिंह बाजा प्रमुख हैं।

कर्मा नृत्य

·         छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी समाज का प्रचलित लोक नृत्य है। भादों मास की एकादशी को उपवास के पश्चात करमवृक्ष की शाखा को घर के आंगन या चौगान में रोपित किया जाता है।

·         दूसरे दिन कुल देवता को नवान्न समर्पित करने के बाद ही उसका उपभोग शुरू होता है।

·         कर्मा नृत्य नई फ़सल आने की खुशी में किया जाता है।

संस्कृति का प्रतीक

1.   यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति का पर्याय है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी, ग़ैर-आदिवासी सभी का यह लोक मांगलिक नृत्य है।

2.   कर्मा नृत्यसतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर ग्रामों में भी प्रचलित है।

3.   शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा तथा बालाघाट और सिवनी के कोरकू और परधान जातियाँ कर्मा के ही कई रूपों को नाचती हैं।

4.   बैगा कर्मा, गोंड़ कर्मा और भुंइयाँ कर्मा आदिजातीय नृत्य माना जाता है।

5.   छत्तीसगढ़ के एक लोक नृत्य में करमसेनी देवी का अवतार गोंड के घर में माना गया है, दूसरे गीत में घसिया के घर माना गया है।

  कर्मा नृत्य के प्रकार

यों तो कर्मा नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में पाँच शैलियाँ प्रचलित हैं, जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाढ़ा, लहकी और खेमटा हैं। जो नृत्य झूम-झूम कर नाचा जाता है, उसे ‘झूमर’ कहते हैं।

एक पैर झुकाकर गाया जाने वाल नृत्य ‘लंगड़ा’ है। लहराते हुए करने वाले नृत्य को ‘लहकी’ और खड़े होकर किया जाने वाला नृत्य ‘ठाढ़ा’ कहलाता है। आगे-पीछे पैर रखकर, कमर लचकाकर किया जाने वाला नृत्य ‘खेमटा’ है। खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ का हर गीत इसमें समाहित हो जाता है।

कर्मा नृत्य में स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। यह वर्षा ऋतु को छोड़कर सभी ऋतुओं में नाचा जाता है। सरगुजा के सीतापुर के तहसील, रायगढ़ के जशपुर और धरमजयगढ़ के आदिवासी इस नृत्य को साल में सिर्फ़ चार दिन नाचते हैं।

एकादशी कर्मा नृत्य नवाखाई के उपलक्ष्य में पुत्र की प्राप्ति, पुत्र के लिए मंगल कामना; अठई नामक कर्मा नृत्य क्वांर में भाई-बहन के प्रेम संबंध; दशई नामक कर्मा नृत्य और दीपावली के दिन कर्मा नृत्य युवक-युवतियों के प्रेम से सराबोर होता है

सरहुल नृत्य 

·         सरहुल नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य में सरगुजा, जशपुर और धरमजयगढ़ तहसील में बसने वाली उरांव जाति का जातीय नृत्य है।

·         इस नृत्य का आयोजन चैत्र मास की पूर्णिमा को रात के समय किया जाता है। यह नृत्य एक प्रकार से प्रकृति की पूजा का आदिम स्वरूप है।

सरहुल नृत्य का आयोजन

o    आदिवासियों का यह विश्वास है कि साल वृक्षों के समूह में, जिसे यहाँ सरनाकहा जाता है, उसमे महादेव निवास करते हैं।

o     महादेव और देव पितरों को प्रसन्न करके सुख शांति की कामना के लिए चैत्र पूर्णिमा की रात को इस नृत्य का आयोजन किया जाता है।

o     आदिवासियों का बैगा सरना वृक्ष की पूजा करता है। वहाँ घड़े में जल रखकर सरना के फूल से पानी छिंचा जाता है। ठीक इसी समय सरहुल नृत्य प्रारम्भ किया जाता है।

o     सरहुल नृत्य के प्रारंभिक गीतों में धर्म प्रवणता और देवताओं की स्तुति होती है, लेकिन जैसे-जैसे रात गहराती जाती है, उसके साथ ही नृत्य और संगीत मादक होने लगता है।

o     शराब का सेवन भी इस अवसर पर किया जाता है। यह नृत्य प्रकृति की पूजा का एक बहुत ही आदिम रूप है।

गौर माड़िया नृत्य 

·         छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर ज़िले में गौर माड़िया जनजाति द्वारा किया जाता है।

·         इस जनजाति का यह नृत्य बहुत ही हर्षोल्लास से परिपूर्ण, सजीव एवं सशक्त होता है।

·          यह नृत्य प्राय: विवाह आदि के अवसरों पर किया जाता है। इस नृत्य का नामकरण गौर भैंस के नाम पर हुआ है।

 

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload









Advertisement