भारतीय संस्कृति -विस्व संस्कृति -1
Date : 09-Dec-2024
भारतीय संस्कृति एक ऐसी विश्व-संस्कृति है, जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओत- प्रोत है। वह उच्चस्तरीय विचारणा जिससे व्यक्ति अपने आप में संतोष और उल्लास भरी अंत:स्थिति पाकर सुख और शांति से भरा पूरा जीवन जी सके भारतीय तत्वज्ञान में कूट-कूट कर भरी है। वह आदर्शवादी क्रिया पद्धति जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता, उदारता ,सेवा ,स्नेह भावना ,सहिष्णुता और सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करती है । भारतीय संस्कृति के शिक्षण की मूलधारा है । इस महान तत्वज्ञान का अवगाहन भारतीय प्रजा चिरकाल तक करती रही और उसके फलितार्थ इस रूप में सामने आए की यहां के नागरिकों को समस्त संसार में 'देव पुरुष' , 'भूसुर' कहा गया है और जिस भूमि में ऐसे महामानव उत्पन्न होते हैं उसे 'स्वर्ग' के नाम से संबोधित किया गया।
सभ्यता और संस्कृति दोनों शब्द साथ-साथ चलते हैं ,पर दोनों के अर्थ में भारी भिन्नता है। इसी प्रकार धर्म और संस्कृति भी पर्याय से लगते हैं, किंतु इनमें भी अंतर है। सभ्यता किसी भी देश की हो सकती है और उसका संबंध रहन-सहन, भाषा ,वेश ,पारिवारिक जीवन ,शिक्षा- दीक्षा आदि बहिर्मुखी व्यावहारिक पहलुओं से है और धर्म इससे ठीक विपरीत अर्थात अंतर्मुखी विकास के जितने भी साधन और अभ्यास हैं, वह सब धर्म के अंतर्गत आते हैं। " यतो अभ्युदय नि:स्र्रेयस सिद्धि: स धर्म: " जो नि:श्रेयस और अभ्युदय की प्राप्ति कराये वही धर्म है। धर्म के 10 अंगों/लक्षणौ धृती, क्षमा, दम, आस्तेय, शौच, इंद्रिय निग्रह ,बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध में से कई ऐसे लगते हैं,जो बहिर्मुखी जीवन से संबंधित जान पड़ते हैं किंतु यह सब साधनाएं हैं, मूल्य हैं, जो मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के लिए तैयार करते हैं, भले ही उससे बहिर्मुखी जीवन में कुछ कठिनाइयां ही क्यों न आती हों।
धर्म ,अध्यात्म, ईश्वर ,जीव, प्रकृति, परलोक ,पुनर्जन ,स्वर्ग ,नरक, कर्म ,अकर्म, प्रारब्ध, पुरुषार्थ, नीति ,सदाचरण ,प्रथा, परंपरा, शास्त्र, दर्शन आदि मान्यताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति मनुष्य के चरित्रवान, संयमी ,कर्तव्य परायण, सज्जन, विवेकवान, उदार और न्यायशील बनने की प्रेरणा करती है। सब में अपनी आत्मा को समाया देखकर सबके साथ अपनी पसंद जैसा सौम्य- सज्जनता भरा व्यवहार करना सिखाती है और बताती है कि भौतिक सफलताएं तथा उपलब्धियां न मिलने पर भी विचार एवं कर्म की उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई दिव्य अनुभूति मात्र का अवलंबन करके अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी आनंदित रहा जा सकता है। अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की प्राथमिकता आलस्य और अवरुद्ध का अंत और प्रचंड पुरुषार्थ में निष्ठा-अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा यही तो भारतीय संस्कृति के मूल आधार है, जिन्हें शास्त्र और पुराणों के विभिन्न कथनोंपकथनों द्वारा पृष्ठभूमियों में प्रतिपादित किया गया है । वह मनुष्य को पूर्ण मनुष्य बनाने की एक नृतृत्व विज्ञान, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र और समाज विज्ञान की एक परिस्कृत एवं समन्वित चिंतन प्रक्रिया है, जिसे भारतीय संस्कृति के नाम से जाना जाता है।