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भारतीय संस्कृति -विस्व संस्कृति -1

Date : 09-Dec-2024

 भारतीय संस्कृति एक ऐसी विश्व-संस्कृति है, जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओत- प्रोत है। वह उच्चस्तरीय विचारणा जिससे व्यक्ति अपने आप में संतोष और उल्लास भरी अंत:स्थिति पाकर सुख और शांति से भरा पूरा जीवन जी सके भारतीय तत्वज्ञान में कूट-कूट कर भरी है। वह आदर्शवादी क्रिया पद्धति जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता, उदारता ,सेवा ,स्नेह भावना ,सहिष्णुता और सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करती है । भारतीय संस्कृति के शिक्षण की मूलधारा है । इस महान तत्वज्ञान का अवगाहन भारतीय प्रजा चिरकाल तक करती रही और उसके फलितार्थ इस रूप में सामने आए की यहां के नागरिकों को समस्त संसार में 'देव पुरुष' , 'भूसुर' कहा गया है और जिस भूमि में ऐसे महामानव उत्पन्न होते हैं उसे 'स्वर्ग' के नाम से संबोधित किया गया। 

 

भारत के 33 कोटि ( करोड) नागरिकों को विश्व में 33 कोटि देवताओं के नाम से पुकारा जाता था और जब भी भारत भूमि का स्मरण किया जाता था उसे " स्वर्गादपि गरियसी "ही कहा जाता था। यहां ( भारत) के निवासी प्रेम ,सदाचरण, सुव्यवस्था, समृद्धि और शांति का संदेश और मार्गदर्शन लेकर विश्व के कोने- कोने में पहुंचे। तथा शांति और प्रगति के साधन जुटाने का नेतृत्व करते रहे। इतिहासकार इस तथ्य को भुला न सकेंगे की भारत ने न केवल अपने देश को समुन्नत बनाया वरन समस्त विश्व को शांति और प्रगति के लिए सहयोग एवं मार्ग-दर्शन प्रदान किया। इस देश के नागरिकों की यह भूमिका इसलिए संभव हो सकी की उन्होंने महान भारतीय संस्कृति को हृदयंगम किया था, उसका महत्व समझा था और स्वीकार किया था की यही दार्शनिक पथ- प्रदर्शन मानव जीवन के लिए श्रेष्ठतम है। इस आस्था को क्रियान्वित करने की सुदृढ़ निष्ठा ही हमारी ऐतिहासिक महिमा तथा गरिमा का एक मात्र कारण है।
भारतीय संस्कृति किसी वर्ग ,संप्रदाय या देश ,जाति की संकीर्ण परिधियों में बंधी हुई सांप्रदायिक मान्यता नहीं है, न किसी व्यक्ति विशेष या शास्त्र विषेश को आधार मानकर उसकी रचना की गई है। सार्वभौम्य, मानवीय आदर्शों के अनुरूप उसका सृजन हुआ है और देश -काल पात्र के अवरोध से उसमें हेर- फेर करना पड़े ऐसी त्रुटि नहीं रखी गई है, उसे निसंकोच, सार्वभौम, सर्वकालीन और शाश्वत कहा जा सकता है । दूसरे शब्दों में भारतीय संस्कृति को हम विश्व मानव के सदैव प्रयोग में आ सकने योग्य चिंतन प्रक्रिया एवं कार्य पद्धति Art of living भी कह सकते हैं । इस स्वरूप के कारण ही उसे भूतकाल में समस्त संसार ने देखा,सराहा और स्वीकार किया था। भविष्य में भी जब इस अनैतिक भगदड़ से दुखी: होकर मानव जाति को किसी संतुलित दर्शन की आवश्यकता पड़ेगी तो उस आवश्यकता की पूर्ति केवल "भारतीय/ सनातन संस्कृति " ही कर सकेगी। 
ऐसी कृति जो 'संस्कार' संपन्न हो संस्कृति कहलाती है। इसका अर्थ भारतीय जीवन प्रणाली में प्रचलित सोडष संस्कारों मात्र से नहीं है। वह तो 16 अध्याय मात्र हैं जो मनुष्य को थोड़ा-थोड़ा कर यह सोचने की प्रेरणा देते हैं कि उसका अंतरंग जीवन क्यों? कैसे? और किस लिए आविर्भूत हुआ है। एक बौद्धिक प्राणी होने के नाते अपने उस उद्देश्य को वाहा जीवन में पूरा भी कर पा रहा है या नहीं ? यदि नहीं तो उसे अब निश्चित ही आगे सोच समझकर पग बढ़ाना चाहिए।

इस तरह 16 संस्कार जीवन के 16 मोड थे जो प्रत्येक मुमुक्षु अर्थात आत्म- कल्याण की इच्छा रखने वाले को पिछले जीवन में हुए आलस्य, प्रमाद और पाप से सावधान- सचेत करते हैं और आगे के लिए दिशा निर्देशन भी। पर संस्कृति इन सोडष  संस्कारों से भी बड़ी जीवन के प्रत्येक घड़ी, प्रत्येक कर्म में नीति बनकर समायी रहती है। प्रत्येक आचरण जो आत्मा को प्रिय लगता है-  आत्म कल्याण की आवश्यकता को पूरी करता है-  वहां तक संस्कृति का विस्तार है।
सभ्यता और संस्कृति दोनों शब्द साथ-साथ चलते हैं ,पर दोनों के अर्थ में भारी भिन्नता है। इसी प्रकार धर्म और संस्कृति भी पर्याय से लगते हैं, किंतु इनमें भी अंतर है। सभ्यता किसी भी देश की हो सकती है और उसका संबंध रहन-सहन, भाषा ,वेश ,पारिवारिक जीवन ,शिक्षा- दीक्षा आदि बहिर्मुखी व्यावहारिक पहलुओं से है और धर्म इससे ठीक विपरीत अर्थात अंतर्मुखी विकास के जितने भी साधन और अभ्यास हैं, वह सब धर्म के अंतर्गत आते हैं। " यतो अभ्युदय नि:स्र्रेयस सिद्धि: स धर्म: " जो नि:श्रेयस और अभ्युदय की प्राप्ति कराये वही धर्म है। धर्म के 10 अंगों/लक्षणौ धृती, क्षमा, दम, आस्तेय, शौच, इंद्रिय निग्रह ,बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध में से कई ऐसे लगते हैं,जो बहिर्मुखी जीवन से संबंधित जान पड़ते हैं किंतु यह सब साधनाएं हैं, मूल्य हैं, जो मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के लिए तैयार करते हैं, भले ही उससे बहिर्मुखी जीवन में कुछ कठिनाइयां ही क्यों न आती हों।
सभ्यता और धर्म के समन्वय का नाम संस्कृति है जिस तरह इंगिला और पिंगला के योग से सुषुम्ना का, गंगा और जमुना के योग से त्रिवेणी का आविर्भाव होता है, उसी प्रकार संस्कृति धार्मिक परिपेक्ष में तो अंतर्मुखी जीवन के विकास की प्रेरणा देती है और सभ्यता के रूप में वाह्म जीवन को भी शुद्ध और ऐसा बनाती है, जिसमें एक मनुष्य किसी भी दूसरे प्राणी के हित का अतिक्रमण न करता हुआ धार्मिक लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।
वेदमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का कथन है कि  - "संस्कृति के साथ 'भारतीय' शब्द जोड़कर उसे "भारतीय संस्कृति " कहा जाता है, इसका अर्थ उन पदार्थों या मान्यताओं को उन्हीं की संपत्ति मान लेना नहीं है, जिनका की नाम जोड़ दिया गया है। हिंदुस्तान में वर्जीनिया तंबाकू पैदा नहीं होती है क्योंकि उसका आरंभिक उत्पादन वर्जीनिया में हुआ था इसलिए नामकरण उसी के आधार पर हो गया। भारतीय संस्कृति का उद्भव, विकास, प्रयोग,पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ इसलिए उसे उस नाम से पुकारा जाता है तो यह उचित ही है पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि इसका प्रयोग इसी देश के निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिए।"
वेद किसी धर्म, संप्रदाय ,जाति या देश के लिए नहीं, वरन समस्त मानव जाति की सार्वभौम संपदा है। चूँकि यह अति प्राचीन है। विश्व सभ्यता का उदय यहीं से हुआ, इसलिए इस भूमि पर उदय हुए दिव्य आलोक को भारतीय धर्म का नाम दे दिया गया । 'एवरेस्ट' नामक व्यक्ति ने संसार की सबसे ऊंची गौरी शंकर चोटी का पता लगाया, इसलिए उस चोटी का नाम 'एवरेस्ट' रख दिया गया। ठीक इसी प्रकार विश्व संस्कृति और विश्व धर्म का उदय 'भारत' में  उदय के कारण उनके साथ 'भारत' शब्द अनायास ही जुड़ गया, आवश्यक समझा जाए तो इस नामकरण से 'भारत' शब्द हटाकर 'विश्व' शब्द भी जोड़ा जा सकता है । वास्तुत: भारतीय संस्कृति को उसकी प्रतीक गायत्री को विश्व संस्कृति ही समझा जाना चाहिए और भारतीय धर्म के उसके प्रतीक यज्ञ को विश्व धर्म ही माना जाना चाहिए।" ( वान्गमय  26/ 9.1 )
यजुर्वेद 7/14 में उल्लेख है कि-  " सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा "  अर्थात यह प्रथम संस्कृति है, जो विश्व व्यापी है ,सृष्टि के आरंभ में संभव है ऐसी छुट-पुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो, जो वर्ग विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए ही उपयोगी रही हों किंतु उन सबको पीछे छोड़कर भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई की उसे 'विश्व संस्कृति' कहा जा सके । हुआ भी यही -की जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और सर्वोच्च भी । फलस्वरुप वह विश्व संस्कृति होती चली गई । इसी स्थिति का उपरोक्त मंत्र भाग में संकेत है। इतिहास में दृष्टिपात करें तो भी तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही होगा कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएं इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान है 'विश्ववारा' शब्द का अर्थ ही है जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके, स्वीकार की जा सके। दूसरे शब्दों में इसे ' सार्वभौम ' भी कह सकते हैं।
आवश्यकता इस बात की थी कि राजनैतिक गुलामी से मुक्त होकर हम   सांस्कृतिक दास्ता से भी मुक्त होने का प्रयत्न करते पर इस दिशा में कुछ अधिक नहीं किया जा सका , इसे अपना दुर्भाग्य ही कहना चाहिए । अंग्रेजी शासन काल में भारतीयों को काले अंग्रेज बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा English Education के साथ-साथ "अंग्रेजी संस्कृति" को भी घुला दिया गया ताकि भारतीय संस्कृति की महानता कन्ही इन देशवासियों में फिर स्फुरणा पैदा न कर दे और चंगुल में आई शिकार फिर पंजे से छूटकर ना भाग जाए। 
लार्ड मैकाले का वह शिक्षा षड्यंत्र सर्वभूत है जिसके अनुसार उसने अंग्रेजी शिक्षा का विस्तार करने में ही दृष्टि प्रधान रखी थी। भारतीय प्रकारांतर से अंग्रेजीयत का वर्चस्व शिरोधार्य करलें और अंग्रेजी शासन चले जाने पर भी यहां के निवासी अपने आदर्शों का उद्गम अंग्रेजी संभावना को ही मानकर उसके समर्थक तथा अनुयायी बन रहे। समय बीत गया अब हमें चेतना चाहिए था ,पर उस जागृति की ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है जो समस्त जागृतियों का मूलभूत स्रोत है। 
भारतीय संस्कृति की अपनी अनोखी विशेषताएं हैं। समस्त कसौटीयों पर कसे जाने पर खरी सिद्द होने में एक भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। अन्य संस्कृतियां तो मात्र सभ्यता है। सभ्यता किसी देश, काल एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्मित की जाती है और उसकी सीमा उतनी ही दायरे में सीमित रहती है। हर परिस्थिति और काल के लिए समान रूप से उसका उपयोग नहीं हो सकता है, उसमें सैद्धांतिक कम और व्यावहारिक तत्व अधिक होते हैं। व्यवहार तो ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही बदल जाता है, ऐसी दशा में व्यवहार  व्यवस्थाओं की प्रधानता के आधार पर बनी हुई सभ्यताएं सार्वदेशिक अथवा सर्वकालीन हो ही कैसे सकती हैं, अत: अंग्रेजी सभ्यता भारत के लिए उपयुक्त कैसे बैठ सकती है? 
धर्म ,अध्यात्म, ईश्वर ,जीव, प्रकृति, परलोक ,पुनर्जन ,स्वर्ग ,नरक, कर्म ,अकर्म, प्रारब्ध, पुरुषार्थ, नीति ,सदाचरण ,प्रथा, परंपरा, शास्त्र, दर्शन आदि मान्यताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति मनुष्य के चरित्रवान, संयमी ,कर्तव्य परायण, सज्जन, विवेकवान, उदार और न्यायशील बनने की प्रेरणा करती है। सब में अपनी आत्मा को समाया देखकर सबके साथ अपनी पसंद जैसा सौम्य- सज्जनता भरा व्यवहार करना सिखाती है और बताती है कि भौतिक सफलताएं तथा उपलब्धियां न मिलने पर भी विचार एवं कर्म की उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई दिव्य अनुभूति मात्र का अवलंबन करके अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी आनंदित रहा जा सकता है। अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की प्राथमिकता आलस्य और अवरुद्ध का अंत और प्रचंड पुरुषार्थ में निष्ठा-अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा यही तो भारतीय संस्कृति के मूल आधार है, जिन्हें शास्त्र और पुराणों के विभिन्न कथनोंपकथनों द्वारा पृष्ठभूमियों में प्रतिपादित किया गया है । वह मनुष्य को पूर्ण मनुष्य बनाने की एक नृतृत्व विज्ञान, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र और समाज विज्ञान की एक परिस्कृत एवं समन्वित चिंतन प्रक्रिया है, जिसे भारतीय संस्कृति के नाम से जाना जाता है।
व्यक्ति और समाज की विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान करने के लिये उस संस्कृति का आश्रय लिए बिना और कोई मार्ग नहीं, जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है। और दूसरे शब्दों में उसे " विश्व संस्कृति" World culture भी कह सकते हैं। भविष्य में भारतीय संस्कृति ही संपूर्ण विश्व को विनाश के मार्ग से हटाकर उज्जवल भविष्य अर्थात शांति -प्रेम, सौहार्द का पथ प्रशस्त करेगी, यही अब भारत की नियति है ।

 

 
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