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भारतीय संस्कृति-विश्व संस्कृति-3

Date : 17-Dec-2024
इसका अर्थ उसकी परिधि अथवा उपयोगिता भारत देश की सीमा क्षेत्र में सीमित कर देना नहीं है। वह असीम है, सार्वभौम एवं सर्वजनीन है। उसे "मानवीय संस्कृति" या "विश्व संस्कृति" Global Culture ही कहना चाहिए । निर्माताओ का चिंतन सुविस्तृत  था। वे जो सोचते थे वह देश ,काल ,वर्ग की सीमाओं से बहुत आगे की बात होती थी। विश्व मानव -विराट विश्व ,ब्रह्मा एवं " वसुधैव कुटुंबकम" से कम की बात उन्होंने कभी सोची ही नहीं। इससे कम भी कुछ हो सकता है, यह उन्हें कभी रुचा ही नहीं।
वेदमूर्ति ,युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का कथन है कि - " गंगा हिमालय से निकली अवश्य पर उसका कार्य क्षेत्र एवं अनुदान उस छोटे क्षेत्र में सीमाबद्ध होकर नहीं रहा। भारतीय संस्कृति के नाम से किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह भारतवासी या भारतवंशी लोगों की रुचि एवं आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाई गई है। उसमें उन्हीं तत्वों का समावेश है, जो देश, काल की सीमा से ऊंचे हैं और शाश्वत एवं सनातन समझे जा सकते हैं। 'सनातन धर्म' शब्द का तात्पर्य उन्ही आस्थाओं से है, जो मानवीय प्रगति की अभिच्छिंन्न अंग रही हैं और जिन्हें अपनाये रहने पर सुख- शांति की दिशा में क्रमशः आगे ही बढ़ते रहा जा सकता है। 
नागपुरी संतरे, भुसावली केले, लखनऊ के खरबूजे, मथुरा के पेड़े, चुनार के बर्तन आदि अनेक नामकरण उनके उद्गम स्रोत का परिचय देने भर के लिए किए गए हैं। किसी को यह भ्रम नहीं करना चाहिए कि वे संतरे, केले, खरबूजे आदि उन्हीं स्थानों के निवासियों के उपयोग में आने के लिए हैं, अन्यत्र कहीं उनकी उपयोगिता नहीं। विज्ञान के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण इकाइयों और सिद्धांतों के नाम उनके शोधकर्ताओं के नाम पर ही रखे गए हैं, पर उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता असंदिग्ध है । वर्जीनिया तंबाकू अब संसार भर में उगाई और प्रयोग लाई जाती है। अरबी घोडो की नस्ल संसार भर में पैदा होती है और काम में लाई जाती है । भारतीय संस्कृति का नाम उसके भारत में विकसित होने के कारण ही पड़ा है, वस्तुत: उसे 'मानवी संस्कृति'- 'वैस्विक संस्कृति ' नाम देना ही उचित है। 

संस्कृति शब्द का अर्थ है परिष्कृति ।  कच्ची और अनगढ़ वस्तुओं को कुशलता पूर्वक संभाल -सुधार कर उसे आकर्षक एवं उपयोगी बनाया जाता है। इस सुधार प्रक्रिया को संस्कृति कहा जायेगा।
अनगढ़ वस्तुओं को सुंदर एवं उपयोगी बनाना भौतिक संस्कृति है। मानवीय चेतना पर चढ़े जन्म -जन्मान्तरो के पशु संस्कारों के निवारण का नाम मानवीय संस्कृति है। माली अपने पेड़- पौधों को काट- छांटकर इस स्तर का बनाता है, जो उसके जंगली स्वरूप से बहुत कुछ भिन्न होते हैं। लोहार धातुओं को ,मूर्तिकार पत्थर को, दरजी कपड़ों को, शिक्षक छात्रों को, सर्कस का शिक्षक भयंकर जानवरों को जो रूप, जो स्तर प्रदान करते हैं, उसे सभ्यता का सकते हैं। मनुष्य की आस्थाओं को ,अमुक मान्यताओं एवं प्रथाओं के आधार पर परिष्कृत बनाने की पद्धति को संस्कृति कहा जाता है। अनगढ़ आदिम नर- पशु को नर -नारायण बना देने का श्रेय मानवी संस्कृति को ही दिया जाता है। इतिहास साक्षी है कि अनादिकाल से भारतीय संस्कृति विश्व मानव को देवत्व की दिशा में बढ़ाने की अति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती रही है।

आइए , भारतीय संस्कृति की कुछ मान्यताओं का पर्यवेक्षण करें और देखें की कोई कुशल माली उद्यान के पेड़ पौधों को संभाल सुधार कर उन्हें स्वयं उद्यान के रूप में जिस तरह विकसित करता है, इस तरह मनुष्य को देवत्व की दिशा में अग्रसर करने के लिए, अपूर्णता से पूर्णता तक पहुंचाने के लिए यह दिव्य संस्कृति उपयोगी है या नहीं ? उसमें व्यक्ति को सुविकसित  और समाज को समुन्नत  बनाने की क्षमता विधमान है या नहीं ? विश्व को अगले ही दिनों एक सार्वभौम सार्वजनीन संस्कृति की आवश्यकता पड़ेगी,वह प्रयोजन इससे सधेगा या नहीं? मानवीय विकास अब एकता की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। एक विश्व भाषा, एक विश्व धर्म ,एक विश्व संस्कृति ,एक विश्व राष्ट्र बनाये बिना काम चल नहीं सकेगा। विखराव ,विभाजन और बिलगांव की हानियां  कमश: अधिक अच्छी तरह समझी जा रही हैं। एकता की प्रतिक्रिया से जो सुखद संभावनाएं प्रस्तुत हो सकती हैं, उसमें संदेह की गुंजाइश रह नहीं गई है। अस्तु द्रुत गति से घूमने वाले प्रगति चक्र के बिलगांव को निरस्त करके सर्वतोमुखी एकता का तथ्य भी अपने साथ लेकर चलना होगा। इस सार्वभौम एकता की एक अति महत्वपूर्ण कड़ी संस्कृति है। विश्व-विवेक को जब इसकी खोजबीन करनी पड़े तो बना बनाया ,पका- पकाया सब कुछ मिल जाएगा। तत्वदर्शी  महामनीषियों ने एक ऐसी संस्कृति का अब से लाखों -करोड़ों वर्ष पूर्व निर्माण किया था, जिसे बिना देश, काल, वर्ग, वर्ण का भेद किए मानवीय आदर्शों की स्थापना के लिए समान रूप से अपनाया और सर्वतोमुखी लाभ उठाया जा सके। 

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है, "विचार स्वातंत्र्य "। उसमें प्रत्येक विचार पद्धति को विकसित होने और पनपने देने की छूट है आस्तिकतावाद और नास्तिकवाद दोनों ही उसमें पनपते हैं। भक्ति की विशाल परंपरा है, पर चार्वाक के नास्तिकवाद को भी बहिष्कृत नहीं किया है। वेदांत में आत्मसत्ता को परमात्मा का प्रतीक माना गया है । सांख्यकार ईश्वर की असिद्धि मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। जैन पंथ और बौद्ध पंथ में ईश्वर को स्वीकार नहीं गया। इतने पर भी वे सब भारतीय संस्कृति के सम्मानित सदस्य हैं। चेतना के विभाजन की व्याख्या में काफी मतभेद है त्रैत, द्वैत और अद्वैत की दार्शनिक मान्यताएं ईश्वर, जीव, प्रकृति की व्याख्याएं अलग-अलग ढंग से करती हैं। उनके मतभेद प्रत्यक्ष हैं। ईश्वर के स्वरूप कल्पना में इतनी छूट है कि उसकी आकृति हर व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप विनिर्मित कर सकता है। किसी समय भारत में 33 कोटि मनुष्यों की जनसंख्या थी। देवताओं की संख्या भी ठीक इतनी ही थी। इसका तात्पर्य हुआ, हर मनुष्य का एक इष्टदेव। प्रथाओं, पूजा पद्धतियों ,व्रतो, मान्यताओं की अनेकता और विभिन्नता सर्वविदित है।

मोटी दृष्टि से इसे बिखराव माना जा सकता है पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं । यहां 'विचार स्वातंत्र्य' की सर्वोपरि मान्यता है और सत्य की शोध के लिए हर प्रयोग की गुंजाइश है। विचार विकास को अवरूद्ध नहीं किया गया है और दार्शनिक मान्यताओं को पत्थर की लकीर भी नहीं ठहराया गया है । जो जाना जा चुका, वह अंतिम नहीं है ।  बात को कई तरह से सोचा परखा जाना चाहिए। अभिव्यक्तियों और प्रयोगों पर तब तक प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, जब तक कि वे नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन न करती हों ।" 





लेखक:- डॉ. नितिन सहारिया, महाकौशल
 
 
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