अयोध्या में स्थित श्रीराम मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि यह उन करोड़ों सनातनियों की आस्था, प्रतीक्षा, संघर्ष और धैर्य का साक्षात प्रतीक है जो सदियों से अपने आराध्य प्रभु श्रीराम को उनकी जन्मभूमि पर प्रतिष्ठित देखने का स्वप्न संजोए बैठे थे। यह मंदिर ‘राम’ से आगे बढ़कर ‘राष्ट्र’ का मंदिर बन गया है, जिसकी भव्यता और दिव्यता भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन चुकी है।
भूतल पर पहले से प्रतिष्ठित रामलला के साथ अब प्रथम तल पर पांच जून को श्रीराम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। इसके साथ ही परकोटे में स्थापित अन्य छह मंदिरों—गणेश, शिव, भगवती, हनुमान, सूर्य, अन्नपूर्णा और शेष अवतारों—की भी प्राण प्रतिष्ठा होगी। यह आयोजन त्रिदिवसीय अनुष्ठान का हिस्सा है, जिसकी पूर्णाहुति गंगा दशहरा के पावन दिन सम्पन्न होगी। इस शुभ अवसर पर मंदिर के शिखरों को स्वर्ण परत से सुसज्जित करने का कार्य भी जारी है, जिससे मंदिर की भव्यता और गौरव और अधिक बढ़ जाएगा।
राम केवल एक देवता नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, आत्मा और पहचान हैं। उनका मंदिर बनना भारत के नवनिर्माण की नींव है। यह यात्रा संघर्षों से भरी रही है, जिसमें 550 वर्षों की प्रतीक्षा, 70 से अधिक संघर्ष और अनेक आंदोलन शामिल हैं। इन आंदोलनों में मुगल आक्रांताओं से लेकर आधुनिक राजनीति तक की चुनौतियाँ सम्मिलित हैं। अनेक विरोधों, उपेक्षाओं और विघ्नों के बावजूद अंततः 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य यजमान बने। यह क्षण भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना का प्रतीक बन गया।
इस आंदोलन में गोरक्षपीठ का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा है। गोरक्षनाथ मठ, जिसके वर्तमान महंत योगी आदित्यनाथ हैं, तीन पीढ़ियों से इस आंदोलन से जुड़ा रहा है। उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ और उनके पूर्वगुरु महंत दिग्विजयनाथ ने राम जन्मभूमि आंदोलन को नई दिशा दी। योगी आदित्यनाथ स्वयं इसे केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि जीवन का मिशन मानते हैं। 5 जून को जब राम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा होगी, उसी दिन योगी आदित्यनाथ का जन्मदिन भी है, और वे इस समारोह में उपस्थित रहेंगे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यदि तत्कालीन सरकार ने सोमनाथ की तरह राम जन्मभूमि का विवाद भी सुलझा लिया होता, तो शायद यह मुद्दा राजनीति का शिकार नहीं बनता। लेकिन कांग्रेस ने इस विषय पर बार-बार ऐसा रुख अपनाया जो आम जनभावनाओं के विरुद्ध था। 2008 में यूपीए सरकार ने राम सेतु के अस्तित्व को नकारते हुए उसे ‘कल्पित’ करार दिया था। आज भी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के नेता राम मंदिर और सनातन धर्म पर विवादास्पद टिप्पणियां करते रहते हैं।
राम मंदिर का विरोध करने वालों ने ही इसे राजनीति का विषय बना दिया, जबकि यह आंदोलन राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक था, जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था। मुस्लिम मतों के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने हिंदुओं की आस्था की उपेक्षा की, लेकिन अंततः न्यायालय के निर्णय के माध्यम से राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण संभव हुआ। यह निर्णय भी वर्षों नहीं, दशकों के संघर्ष के बाद आया। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि इस पूरे विवाद में न केवल कुछ मुस्लिम धर्मगुरु, बल्कि कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हिंदू नेता भी बाबरी ढांचे की वकालत करते रहे।
अब जब मंदिर का निर्माण पूरा हो रहा है, तो यह भारत की सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण है। यह संघर्ष अब मूर्त रूप ले चुका है। राम भारत के हर कण में बसे हैं, और राम दरबार की स्थापना भारत की आत्मा को जागृत करने का कार्य करेगी। यह मंदिर राष्ट्र को जोड़ने वाला केंद्र बन चुका है, जिसने भारत को आंतरिक रूप से सशक्त और एकजुट किया है। इसी आत्मबल के चलते भारत ने हाल ही में 'ऑपरेशन सिन्दूर' में जिस पराक्रम का प्रदर्शन किया, वह केवल सैन्य विजय नहीं बल्कि एक जागरूक, संगठित और आत्मविश्वासी राष्ट्र की पहचान है।
राम मंदिर केवल एक धार्मिक निर्माण नहीं, यह भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे की पुनर्संरचना का केन्द्र है। यह मंदिर राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता और आत्मबोध का तीर्थ बन चुका है। विश्वभर के हिन्दू इसमें सहभागिता महसूस कर रहे हैं और यह तिथि—5 जून—विश्व इतिहास में सदा के लिए दर्ज हो जाएगी। मंदिर के शिखर पर चमकती स्वर्ण परतें केवल स्थापत्य की भव्यता नहीं, बल्कि एक नए युग के आगमन की घोषणा हैं—एक ऐसे युग की, जिसमें भारत पुनः विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर है।
