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बिहार की लोककला का खूबसूरत उदाहरण है मंजूषा यानी झांप

Date : 04-Jul-2023

अनेकता में एकता और सांस्कृतिक परंपरा के बाहक भारत की धरती में एक से एक लोक कलाएं छिपी है। जिस कला का दुनिया में कोई विकल्प नहीं है। सांस्कृतिक परंपरा के बाहक भारत की धरती के महत्वपूर्ण राज्य बिहार की लोक कलाओं का तो दुनिया भर में डंका बज रहा है। चाहे वह मधुबनी पेंटिंग हो या मंजूषा कला।

मधुबनी पेंटिंग दुनिया के कोने-कोने में पहुंच गई है। वहीं, मंजूषा कला का भी हर घर में वह योगदान है जिसके बिना कोई पूजा संपन्न नहीं होता है। चाहे ग्राम देवता की पूजा हो, घर के गोसाईं की पूजा हो या माता विषहरी की। सब जगह आज भी मंजूषा कला से बने झांप की जबरदस्त डिमांड है। इसकी सबसे अधिक मांग सावन में मनाए जाने वाले नाग पंचमी के अवसर पर होती है।

क्या उपयोग है झांप का :

इस वर्ष सात जुलाई को नाग पंचमी मनाया जाना है। इसको लेकर मालाकार समाज द्वारा नागपंचमी के दिन मां विषहरी (नाग देवी) के चढ़ावे के लिए लोककला का खूबसूरत उदाहरण मंजूषा यानी झांप बनाकर तैयारी किया जा रहा है। ऐसी मान्यता है कि झांप के चढ़ावे से भगवान शिव और उनकी मानस पुत्री मनसा देवी प्रसन्न होती है। हर प्रकार का डर, भय, संकट काल का अंत होता है।

नागपंचमी के दिन लोग दूध, खीर, लावा के अलावे झांप को भी नाग देवता को समर्पित करते हैं। मंडपनुमा यह आकृति पर्व-त्योहारों का संकेत होता है। आमतौर पर दुर्गा पूजन स्थान, ब्रह्मस्थान, गहबर, गोसाई स्थान, ग्राम देवता एवं अन्य पूजास्थलों पर देवी-देवताओं के लिए मुकुट-सरीखे चढ़ावा बनाए जाने वाले आकर्षक झांप को बनाने वाले कलाकार अब कमतर होने लगे हैं।

कैसे बनाए जाते हैं झांप :

राजेन्द्र मिलाकर बताते हैं कि पहले सोनई से संठी निकाले जाते थे। कोढ़िला को काटकर सुखाया जाता था। फिर कोढ़िला से तेज धारदार छूरी से कागज निकाला जाता था। कोढ़िला एवं उससे निकला कागज एवं संठी के सहयोग से झांप तैयार किया जाता था। लाल, पीला एवं हरा रंग से झांप में फूल एवं पक्षी का आकर्षक चित्र बनाया जाता था। अब सुखाड़ हो जाने से चौर सुख जाते हैं। कोढ़िला और सोनई की खेती नहीं हो पाती है। जिससे कोढ़िला एवं संठी का उपज बहुत कम हो गया है।
कोढ़िला के अभाव में पहले सादा कागज साटकर नाग, त्रिशूल, हाथी, घोड़ा, फूल और पक्षी का चित्र बनाया जाता था। अब लागत के अनुपात में झांप का मूल्य नहीं मिलने से हमलोग रंगीन कागज ही चिपका देते हैं। लोग पूजा के अवसर पर झांप खरीदकर चढ़ौना के लिए ले जाते थे। बखरी प्रखंड में माली मालाकार जाति की आबादी बहुत कम है।

खत्म होते जा रहा है खानदानी पेशा :

कल तक माली मालाकार जाति के झांप बनाने वाला खानदानी जीवकोपार्जन का मुख्य पेशा अब दिनों-दिन विलीन होता जा रहा है। अब माली जाति के लोग भी अपनी माली हालात को सुधारने के लिए सरकार की उदासीन रवैये को देखकर अपनी खानदानी झांप बनाने वाले पेशा छोड़कर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मुम्बई एवं कोलकता समेत अन्य महानगरों में मजदूरी करने चले जाते हैं।

राजेश मालाकार एवं जवाहर मालाकार से अपने खानदानी मुख्य पेशा झांप बनाने के सवाल पर पूछा तो वे लोग कहने लगे कि मेहनत एवं लागत के अनुपात में लोग पैसा देकर झांप नहीं खरीदना चाहता है। कच्चा माल कोढ़िला एवं संठी नहीं मिलता है, इसलिए लोग इस पेशा से मुंह मोड़ने लगे हैं। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में लग गए हैं।

क्या है झांप चढ़ाने की प्रचलित कथा :

नागपंचमी में विषहरी स्थान पर झांप चढ़ाने के पीछे कई किवदंती है। जिसमें महादेव की मानस पुत्री नागकन्या मनसा एवं पतिव्रता नारी बिहुला की कथा अत्याधिक प्रचलित है। कहा जाता है कि जगत में अपनी पूजा कराने की उतावली मनसा पिता शिव जी को यह बात कहती है। लेकिन, शिवभक्त चंदू सेठ द्वारा शिव के अलावे किसी और की पूजा नहीं करने पर क्रोधित होकर मनसा उसके बेटों को डस लेती है।

बेटों की मृत्यु के बाद शिव जी के आशीर्वाद से पुनः एक पुत्र बाला का जन्म होता है। बड़े होने पर उसकी शादी बिहुला से होती है, सुहागरात के दिन ही मनसा बाला को डस लेती है। लेकिन शिव भक्ति देखकर मनसा बाला का प्राण लौटा देती है। माना जाता है कि बिहुला अपने मृत पति के शरीर को जिस मंडपनुमा आकार पर ले गई थी, उसी को कालांतर में रूप बदलकर झांप का स्थान दिया गया है।

 
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