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अब सावन भर प्रकृति के खुले आंगन में गूंजेगी कजली की सुमधुर स्वर

Date : 04-Jul-2023

 भारत तीज-त्योहारों का देश है। यहां समय-समय पर ऋतुएं बदलती रहती हैं और अपने साथ लाती हैं अनेक विशेषताएं, जो हमारी संस्कृति की प्रतीक हैं। वर्षा आते ही सूखी धरती एकदम से हरी-भरी हो जाती है और सावन के महीने में कजली की सुमधुर ध्वनि गूंजने लगती है।

यह लोकगीत का एक रूप है, जो वर्षा के शुरुआत से ही गाए जाने लगती है। कजली वैसे तो पूरे देश भर में प्रसिद्ध है, पर मुख्यतः यह उत्तर-प्रदेश के मीरजापुर, वाराणसी, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया व आसपास के क्षेत्र में गाई जाती है, पर मीरजापुरी कजली तो पूरे भारत में अत्यधिक लोकप्रिय है।

कजली की जब बात चलती है तो कुछ नाम जेहन में स्वतः ही उभर आते हैं यथा मंगलदास, मोहनलाल, हीरालाल यादव, राम कैलाश के साथ ही मीरजापुर की कजली गायिका उर्मिला श्रीवास्तव, जो आज महिला कजली कलाकारों में शीर्षस्थ गायिका हैं। कजली सामग्री और कोकिला जैसी उपाधियों से विभूषित उर्मिला श्रीवास्तव का कजली गायन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका कहना है कि कजली का असली आनंद प्रकृति के खुले आंगन में ही उठाया जा सकता है। जब तक प्रकृति की हरियाली रहेगी, तब तक कजली जीवित रहेगी।

कजली के संबंध में पूछे जाने पर लोकगीत कजली गायिका उर्मिला श्रीवास्तव ने बताया कि विश्व विख्यात कजली की जन्मभूमि वेदों में वर्णित तपोभूमि व सिद्धपीठ का गौरव प्राप्त करने वाला मीरजापुर है। विंध्यवासिनी देवी का एक नाम कज्जला भी है। उसी से कजली की उत्पत्ति मानी गई है।

परंपरा के अनुसार सावन के महीने में पड़ने वाले त्योहारों में व्याहिता लड़कियां जब ससुराल से मायके वापस आती हैं और रिमझिम बरसात में स्वच्छंद होकर बागिचों में पेड़ों की डालियों पर झूला डालकर झूलते हुए अपने सुमधुर स्वर से कजली गायन करती हैं। तब उनका आनंद दोगुना हो जाता है।

कजली के माध्यम से विरह बेदनाएं प्रस्तुत करती हैं गायिकाएं, हर कोई हो उठता है भाव-विह्वल

भाद्रपद की कृष्ण तृतीया को रात्रि जागरण पर गायिकाएं जब कजली के माध्यम से अपनी विरह बेदनाएं प्रस्तुत करती हैं तो हर कोई भाव-विह्वल हो उठता है। प्रारंभिक रचनाओं और धुनों को मीरजापुर के लोगों ने बड़े यत्न से सहेजकर रखा है। जिस प्रकार कुश्ती की प्रतियोगिता में दूर-दूर से आए पहलवानों के दंगल का आयोजन होता है।

विजयी पहलवान तथा उसके गुरु व अखाड़े का नाम और सम्मान होता है, उसी प्रकार कजली के दंगल की भी परंपरा रही है। कजली के दंगल में मीरजापुर, बनारस सहित कुछ अन्य क्षेत्रों के अखाड़े सम्मलित होते हैं और उनका मुकाबला हजारों नागरिकों के बीच में होता था। यह बात अलग है कि विगत कुछ दशकों से कजली प्रेमियों की संख्या घट जाने से कजली काफी प्रभावित हुई है।

कंतित नरेश की पुत्री के नाम विख्यात हुई कजली

कजली क्या है और कहां से आई। इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिल सका है। साहित्यकारों एवं संगीतकारों ने अपने अनुमान द्वारा ही इसकी विवेचना की है। कोई इसे मां विंध्यवासिनी का नाम तो कोई देवी पार्वती का नाम बताता है क्योंकि इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण करती हैं और कजली गाती हैं एवं माता पार्वती का पूजन कर अपने सुहाग के रक्षा की कामना करती हैं। एक अन्य दंतकथा के अनुसार कंतित नरेश की पुत्री का नाम कजली था। अपने पति के वियोग में उसने जिन गीतों की रचना की, वे कजली के नाम से विख्यात हुईं। कालांतर में इस प्रकार के अन्य वियोग गीत भी कजली कहे जाने लगे।

इन विधाओं में गाई जाती है कजली

कजली गायन में तरह-तरह के प्रयोग किए गए जैसे- अधरबंद, बिना मात्रा, मात्रिक छंद, हलकबंद, ककहरा कैद, ककहरा चबन, शीशापलट, शब्द वंद, गउवंद, नालवंद, घड़ावंद, कगलवंद, दसंग, सोरंग और झुमर- हरे रामा सांवलिया, बलमुआं, रामा रामा, जिअवा, झालरिया, लोय, हरी-हरी, ना, अब रे मयनवा, सुगनवा, झीर-झीर बुनिया आदि कई विधाओं में गाई जाती है।


विस्तृत और प्राचीन है कजली का इतिहास

यूं तो कजली का इतिहास विस्तृत और प्राचीन है। वर्तमान समय में भी इसका सही इतिहास ज्ञात नहीं हो सका है, परंतु कई दशक पूर्व कजली की परंपरा के संबंध में साहित्यकार अमर गोस्वामी ने कजली के छह अखाड़े पंडित शिवदास, राममूरत, जहांगीर, भैरो, बप्फत एवं अक्खड़ का जिक्र किया था। इन अखाड़ों के गुरु अपने शिष्य गायकों से अपने द्वारा लिखी गई रचनाओं का गायन कराते थे। प्रायः अखाड़ों के शिष्य आज भी अपने गुरुओं के अखाड़ों का नाम जिंदा रखे हुए हैं।

 
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