राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत और बंगाल के नवयुग का जनक कहा जाता हैं. उन्होंने पारम्परिक हिन्दू परम्पराओं को तोड़ते हुए महिलाओं और समाज के हितों में कई सामाजिक कार्य किए. हालांकि भारत के इतिहास में उनकी पहचान देश में सती प्रथा के विरोध करने वाले प्रथम व्यक्ति के रूप दर्ज हैं. लेकिन इसके अतिरिक्त भी कई ऐसे कार्य हैं जिनके कारण राजा राम मोहन राय को आज भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता हैं. राममोहन ना केवल महान शिक्षाविद थे, बल्कि एक विचारक और प्रवर्तक भी थे. वो कलकत्ता के एकेश्वरवादी समाज के संस्थापकों में से भी एक थे. उस समय जब भारतीय संस्कृति और भाषा को ही सम्मान दिया जाता था, तब राम मोहन राय इंग्लिश, विज्ञान, वेस्टर्न मेडिसिन और टेक्नोलॉजी जैसे नवीन विषयों के अध्ययन के पक्षधर बने.
भारतीय समाज सुधारक ब्रह्म समाज (पहले भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों में से एक) के संस्थापक राजा राम मोहन राय एक महान विद्वान और एक स्वतंत्र विचारक थे। वह एक धार्मिक और समाज सुधारक थे और उन्हें 'आधुनिक भारत के पिता' या 'बंगाल पुनर्जागरण के पिता' के रूप में जाना जाता है।
राजा राम मोहन को बंगला , फारसी, अरबी, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, ग्रीक, फ्रैन्च, लेटिन आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। इन भाषाओं में वे अपने भावों को कुशलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते थे। वैष्णव भक्त परिवार के होने के बावजूद राजा राम मोहन राय की आस्था अन्य धर्मों में भी थी। वेद एवं उपनिषदों में प्रतिपादित एकेश्वरवाद में आस्था रखने वाले राजा जी ने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया । मूर्ति पूजा में उनकी आस्था नहीं थी। एक अंग्रेजी पत्र ने लिखा था कि, राजा राम मोहन राय को गवर्नर जनरल बना देना चाहिये क्योंकि वे न हिन्दू हैं न मुसलमान और न ईसाई। ऐसी स्थिति में वे निष्पक्षता से गवर्नर जनरल का कार्यभार संभाल सकते हैं। ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि राजा राम मोहन राय केवल हिन्दू पुनरुत्थान के प्रतीक नहीं थे अपितु सच्चे अर्थ में वे धर्म निरपेक्षता वादी थे। 1802 में उन्होंने एकेश्वरवाद के समर्थन में फारसी भाषा में “टुफरवुल मुवादिन” नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक की भूमिका उन्होंने अरबी भाषा में लिखी। 1816 में उनकी पुस्तक “वेदान्त सार” का प्रकाशन हुआ जिसके माध्यम से उन्होंने ईश्वरवाद और कर्म-काण्ड की घोर आलोचना की। जीविकोपार्जन हेतु रंगपुर में ईस्ट इण्डिया के अधीन नौकरी किये और बाद में रंगपुर की कलक्टरी में दीवान बन गये।
1803 में रॉय ने हिन्दू धर्म और इसमें शामिल विभिन्न मतों में अंध-विश्वासों पर अपनी राय रखी. उन्होंने एकेश्वर वाद के सिद्धांत का अनुमोदन किया, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता हैं, इस मत को वेदों और उपनिषदों द्वारा समझाते हुए उन्होंने इनकी संकृत भाषा को बंगाली और हिंदी और इंग्लिश में अनुवाद किया. इनमें रॉय ने समझाया कि एक महाशक्ति हैं जो कि मानव की जानाकरी से बाहर हैं और इस ब्रह्मांड उन्होंने कलकत्ता में साहूकार के रूप में काम किया और 1809 से 1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व विभाग में काम किया। गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें 'आधुनिक भारत का पिता' कहा। कई इतिहासकार उन्हें भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूतों में से एक मानते हैं।
राजा राम मोहन राय द्वारा धार्मिक योगदान
1803 में प्रकाशित राजा राम मोहन राय की पहली प्रकाशित कृति तुहफत-उल-मुवाहहिद्दीन (देवताओं के लिए एक उपहार) ने तर्कहीन धार्मिक मान्यताओं को उजागर किया।
मूर्तिपूजा और हिंदुओं की भ्रष्ट प्रथाओं का विरोध किया ।
वह हिंदू धर्म के कथित बहुदेववाद के खिलाफ थे। उन्होंने शास्त्रों में दिए गए एकेश्वरवाद की वकालत की।
1814 में, उन्होंने मूर्ति पूजा, जातिगत कठोरता, अर्थहीन कर्मकांडों और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाने के लिए कलकत्ता में आत्मीय सभा की स्थापना की।
उन्होंने ईसाई धर्म के कर्मकांड की आलोचना की और ईसा को ईश्वर के अवतार के रूप में खारिज कर दिया। प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस (1820) में, उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक और दार्शनिक संदेश को अलग करने की कोशिश की, जिसकी उन्होंने प्रशंसा की, इसकी चमत्कारिक कहानियों से।
उन्होंने वेदों और पांच उपनिषदों का बंगाली में अनुवाद किया।
1828 में, राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म सभा की स्थापना की-
ब्रह्म समाज का मुख्य उद्देश्य शाश्वत भगवान की पूजा करना था। यह पुरोहिती, कर्मकांडों और बलिदानों के विरुद्ध था। यह प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों के पढ़ने पर केंद्रित था। मूल रूप से ब्रह्म समाज की शुरुआत धार्मिक पाखंडों को बेनकाब करने के लिए की गई थी।
राजा राममोहन राय द्वारा सामाजिक योगदान
राज राम मोहन राय और सती प्रथा
भारत में उस समय सती प्रथा का प्रचलन था. ऐसे में राजा राम मोहन के अथक प्रयासों से गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने इस प्रथा को रोकने में राम मोहन की सहायता की. उन्होंने ही बंगाल सती रेगुलेशन या रेगुलेशन 17 ईस्वी 1829 के बंगाल कोड को पास किया,जिसके अनुसार बंगाल में सती प्रथा को क़ानूनी अपराध घोषित किया गया. राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का भी खुलकर विरोध किया,और एकेश्वरवाद के पक्ष में अपने तर्क रखे. उन्होंने “ट्रिनीटेरिएस्म” का भी विरोध किया जो कि क्रिश्चयन मान्यता हैं. इसके अनुसार भगवान तीन व्यक्तियों में ही मिलता हैं गॉड,सन(पुत्र) जीसस और होली स्पिरिट. उन्होंने विभिन्न धर्मों के पूजा के तरीकों और बहुदेव वाद का भी विरोध किया. वो एक ही भगवान हैं इस बात के पक्षधर थे. उन्होंने लोगों को अपनी तर्क शक्ति और विवेक को विकसित करने का सुझाव दिया. इस सन्दर्भ में उन्होंने इन शब्दों से अपना पक्ष रखा-
“मैंने पूरे देश के दूरस्थ इलाकों का भ्रमण किया हैं और मैंने देखा कि सभी लोग ये विश्वास करते हैं एक ही भगवान हैं जिससे दुनिया चलती हैं”. इसके बाद उन्होंने आत्मीय सभा बनाई जिसमें उन्होंने धर्म और दर्शन-शास्त्र पर विद्वानों से चर्चा की.
महिलाओ की वैचारिक स्वतन्त्रता
राजा राममोहन रॉय ने महिलाओं की स्वतन्त्रता की वकालत भी की. वो समाज में महिला को उपयुक्त स्थान देने के पक्षधर थे. सती प्रथा के विरोध के साथ ही उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में भी अपनी आवाज़ उठाई. उन्होंने ये भी कहा कि बालिकाओ को भी बालको के समान ही अधिकार मिलने चाहिए. उन्होंने इसके लिए ब्रिटिश सरकार को भी मौजूदा कानून में परिवर्तन करने को कहा. वो महिला शिक्षा के भी पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्र रूप से विचार करने और अपने अधिकारों की रक्षा करने हेतु प्रेरित किया.
उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए अभियान चलाया, जिसमें विधवाओं के पुनर्विवाह का अधिकार और महिलाओं के लिए संपत्ति रखने का अधिकार शामिल था। उनके प्रयासों ने 1829 में भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा सती प्रथा को समाप्त कर दिया और बहुविवाह की प्रथा का विरोध किया।
उन्होंने बाल विवाह, बहुविवाह, महिलाओं की निरक्षरता और विधवाओं की निम्न स्थिति पर प्रहार किया।
उन्होंने तर्कवाद और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर जोर दिया
जातिवाद का विरोध
भारतीय समाज का जातिगत वर्गीकरण उस समय तक पूरी तरह से बिगड़ चूका था. ये कर्म-आधारित ना होकर वर्ण-आधारित हो चला था. जो कि क्रमश: अब तक जारी हैं. लेकिन राजा राममोहन रॉय का नाम उन समाज-प्रवर्तकों में शामिल हैं जिन्होंने जातिवाद के कारण उपजी असमानता का विरोध करने की शुरुआत की. उन्होंने कहा कि हर कोई परम पिता परमेश्वर का पुत्र या पुत्री हैं. ऐसे में मानव में कोई विभेद नहीं हैं. समाज में घृणा और शत्रुता का कोई स्थान नहीं है सबको समान हक मिलना चाहिए. ऐसा करके राजा राम मोहन सवर्णों की आँख में खटकने लगे. राजा राम मोहन राय ने जाति व्यवस्था, छुआछूत, अंधविश्वास और नशीले पदार्थों के इस्तेमाल के खिलाफ अभियान चलाया। उन्होंने उस समय हिंदू समाज की कथित बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।
भारतीय पत्रकारिता के जनक
भारत की पत्रकारिता में उन्होंने बहुत योगदान दिया और वो अपने सम्पादकीय में देश की सामाजिक राजनीतिक,धार्मिक और अन्य समस्याओं पर केन्द्रण करते थे. जिससे जनता में जागरूकता आने लगी. उनका लेखन लोगों पर गहन प्रभाव डालता था. वो अपने विचार बंगाली और हिंदी के समान ही इंग्लिश में भी तीक्ष्णता से रखते थे. जिससे उनकी बात सिर्फ आम जनता तक नहीं बल्कि तब के प्रबुद्ध और अंग्रेजी हुकुमत तक भी पहुच जाती थी.
उनके लेखन की प्रशंसा करते हुए रॉबर्ट रिचर्ड्स ने लिखा “राममोहन का लेखन ऐसा हैं जो उन्हें अमर कर देगा,और भविष्य की जेनेरेशन को ये हमेशा अचम्भित करेगा कि एक ब्राह्मण और ब्रिटेन मूल के ना होते हुए भी वो इतनी अच्छी इंग्लिश में कैसे लिख सकते हैं”
उन्होंने एक बंगाली साप्ताहिक समाचार पत्र संबद कौमुदी शुरू किया, जो नियमित रूप से सती को बर्बर और हिंदू धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ निंदा करता था।
अंतरराष्ट्रीयवाद के चैंपियन
रविन्द्र नाथ टैगो ने भी ये कमेंट किया था कि ”राममोहन ही वो व्यक्ति हैं जो कि आधुनिक युग को समझ सकते हैं. वो जानते थे कि आदर्श समाज की स्थापना स्वतन्त्रता को खत्म कर किसी का शोषण करने से नहीं की जा सकती बल्कि भाईचारे के साथ रहकर एक दुसरे के स्वतन्त्रता की रक्षा करने से ही एक समृद्ध और आदर्श समाज का निर्माण होगा”. वास्तव में राममोहन युनिवर्सल धर्म, मानव सभ्यता के विकास और आधुनिक युग में समानता के पक्षधर थे.
राष्ट्रवाद के जनक
राजा राममोहन व्यक्ति के राजनीतिक स्वतन्त्रता के भी पक्षधर थे. 1821 में उन्होंने जे.एस. बकिंघम को लिखा जो कि कलकता जर्नल के एडिटर थे कि वो यूरोप और एशियन देशों के स्वतन्त्रता में विश्वास रखते हैं. जब चार्ल्स एक्स ने 1830 की जुलाई क्रान्ति में फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया तब राम मोहन बहुत खुश हुए. उन्होंने भारत के स्वतंत्रता और इसके लिए एक्शन लेने के के बारे में सोचने का भी कहा. इस कारण ही उन्होंने 1826 में आये जूरी एक्ट का विरोध भी किया. जूरी एक्ट में धार्मिक विभेदों को कानून बनाया था. उन्होंने इसके लिए जे-क्रावफोर्ड को एक लेटर लिखा उनके एक दोस्त के अनुसार उस लेटर में उन्होंने लिखा कि “भारत जैसे देश में ये सम्भव नहीं कि आयरलैंड के जैसे यहाँ किसी को भी दबाया जाए” इससे ये पता चलता हैं कि उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद का पक्ष रखा. इसके बाद उनका अकबर के लिए लंदन जाना भी राष्ट्रवाद का ही एक उदाहरण हैं.
सामजिक पुनर्गठन
उस समय बंगाली समाज बहुत सी कुरीतियों का समाना कर रहा था. ये सच हैं कि भारत में उस समय सबसे शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज बंगाली वर्ग को ही कहा जा सकता था,क्योंकी तब साहित्य और संस्कृतियों के संगम का दौर था, जिसमें बंगाली वर्ग सबसे आगे रहता था. लेकिन फिर भी वहां कुछ अंधविश्वास और कुरीतियाँ थी जिन्होंने समाज के भीतर गहरी जड़ों तक अपनी जगह बना रखी थी. इन सबसे विचलित होकर ही राजा राममोहन राय ने समाज के सामाजिक-धार्मिक ढांचे को पूरी तरह से बदलने का मन बनाया. और इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने ना केवल ब्रह्मण समाज और एकेश्वरवाद जैसे सिद्धांत की स्थापना की बल्कि सती प्रथा,बाल विवाह,जातिवाद, दहेज़ प्रथा, बिमारी का इलाज और बहुविवाह के खिलाफ भी जन-जागृति की मुहीम चलाई.
राजा राम मोहन राय द्वारा आर्थिक और राजनीतिक योगदान
राजा राम मोहन राय ब्रिटिश संवैधानिक शासन प्रणाली के तहत लोगों को दी जाने वाली नागरिक स्वतंत्रता से प्रभावित थे और उनकी प्रशंसा करते थे। वह सरकार की उस प्रणाली के लाभों को भारतीय लोगों तक पहुंचाना चाहते थे।
करों के लिए सुधार –
उन्होंने बंगाली जमींदारों की दमनकारी प्रथाओं की निंदा की।उन्होंने न्यूनतम किराया निर्धारित करने की मांग की।
उन्होंने विदेशों में भारतीय सामानों पर निर्यात शुल्क में कमी का आह्वान किया और कर-मुक्त भूमि पर करों को समाप्त करने की मांग की। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकारों के उन्मूलन के लिए आवाज उठाई।
प्रेस की स्वतंत्रता: उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ विशेष रूप से प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के खिलाफ बात की। अपने लेखन और गतिविधियों के माध्यम से, उन्होंने भारत में स्वतंत्र प्रेस के आंदोलन का समर्थन किया।
जब 1819 में लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा प्रेस सेंसरशिप में ढील दी गई , तो राम मोहन को तीन पत्रिकाएँ मिलीं- द ब्राह्मणिकल मैगज़ीन (1821); बंगाली साप्ताहिक, संवाद कौमुदी (1821); और फारसी साप्ताहिक, मिरात-उल-अकबर।
प्रशासनिक सुधार: उन्होंने भारतीयों और यूरोपीय लोगों के बीच समानता की मांग की। वह बेहतर सेवाओं का भारतीयकरण और न्यायपालिका से कार्यपालिका को अलग करना चाहते थे।
राजा राममोहन राय द्वारा शैक्षिक योगदान
उन्होंने पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा में भारतीयों को अंग्रेजी में शिक्षित करने के लिए कई स्कूल शुरू किए। उनका मानना था कि अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पारंपरिक भारतीय शिक्षा प्रणाली से बेहतर है। उन्होंने 1817 में हिंदू कॉलेज को खोजने के डेविड हरे के प्रयासों का समर्थन किया, जबकि रॉय के अंग्रेजी स्कूल ने यांत्रिकी और वोल्टेयर के दर्शन को पढ़ाया। 1822 में उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित एक स्कूल की स्थापना की। 1825 में, उन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की जहां भारतीय शिक्षा और पश्चिमी सामाजिक और भौतिक विज्ञान दोनों में पाठ्यक्रम पेश किए जाते थे।
राजा राम मोहन राय को राजा की उपाधि
20 अगस्त, 1828 में उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में दिल्ली के मुग़ल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये। वे उसी कार्य में व्यस्त थे कि ब्रिस्टल में 27 सितंबर, 1833 को उनका देहान्त हो गया। उन्हें मुग़ल सम्राट अकबर द्वितीय की ओर से राजा की उपाधि दी गयी।
म्रुत्यू :
1814 में उन्होंने आत्मीय सभा को आरम्भ किया और 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी |1830 में इंग्लैंड जाकर उन्होंने भारतीय शिक्षा के मशाल जलाई थी | उनके बाद स्वामी विवेकानन्द और अन्य विभूतियों ने पश्चिम में भारत का परचम फहराया था | 1831 से 1834 तक उन्होंने इंग्लैंड में अपने प्रवासकाल के दौरान ब्रिटिश भारत की प्रशाशनिक पद्दति में सुधर के लिए आन्दोलन किया था | ब्रिटिश संसद के द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श लिए जाने वाले वो प्रथम भारतीय थे | 27 सितम्बर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में उनका निधन हो गया |
राजा राम मोहन राय के बारे में कुछ रोचक तथ्य
- राजा राम मोहन राय का जन्मा बंगाल में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
- राजा राम मोहन राय ब्रह्म समाज के संस्थापक थे।
- राजा राम मोहन राय सामाजिक सुधार युग के पिता थे।
- केवल 15 साल की उम्र में ही उन्हें संस्कृत बंगाली अरबी और फारसी का ज्ञान हो गया था।
- राजा राम मोहन राय अपने करियर की शुरुआत की दोर में ” ब्रह्ममैनिकल मैगजीन ” , ” संवाद कौमुदी ” में भी काम किया था।
- राजा राम मोहन राय ने अपना सारा जीवन महिलाओं के हक के लिए संघर्ष करते हुए बिताया था।
- उन्होंने महिलाओं के प्रति एक अलग ही जगह बनाई थी।
- राजा राम मोहन राय को महिलाओं के प्रति दर्द सबसे पहले उस वक्त एहसास हुआ था जब उन्होंने अपने घर की अपनी भाभी को क्षति हुए देखा था।
- राजा राम मोहन राय ने अपने जीवन में कभी भी नहीं सोचा था कि जिस सती प्रथा का विरोध कर रहे थे और जिसे वह समाज में से मिटाना चाहते थे उसी सती प्रथा का सिकार उनकी भाभी हो जाएगी।
- राजा राम मोहन राय जब किसी प्रकार के काम के लिए विदेश गए थे उस समय उनकी भाभी की मृत्यु हो गई थी।
- यह हादसा होने के बाद राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ अपना आंदोलन को तेज कर दिया था।
- सती प्रथा का शिकार होने पर अपनी भाभी को त्याग करने के बाद उन्होंने यह ठान लिया था कि अब ऐसा किसी भी महिलाओं के साथ नहीं होने देंगे।
- फिर उन्होंने समाज के कुरीतियों के खिलाफ गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक के मदद से साल 1929 में सती प्रथा के खिलाफ नया कानून बनवाया था।
- राजा राम मोहन राय मूर्ति पूजा के विरोधी भी थे।
- उनके जीवन में एक ऐसा मोड भी आया था जब राजा राम मोहन राय साधू बनना चाहते थे परंतु उनके माता ने उन्हें रोक दिया था।
- राजा राम मोहन राय स्वतंत्रता चाहते थे।
- बताते थे कि इस देश के नागरिक भी उसकी कीमत पहचाने।
- वर्ष 1816 मैं उन्होंने पहली बार अंग्रेजी भाषा में हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल किया था।
- राजा राम मोहन राय मैं ब्रह्म समाज की शुरुआत की थी।
- जिसके अंदर सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज भी उठाई थी।
- वर्ष 1983 मैं इंग्लैंड ब्रिस्टल की म्यूजियम एंड आर्ट गैलरी में राजा राम मोहन राय की प्रदर्शनी भी हुई थी।
- वर्ष 1830 मैं मुगल साम्राज्य का दूत बन का पैटर्न भी गए थे।
- वहां जाकर सती प्रथा पर रोक लगाने वाले कानून पटाया जाए इसके लिए।
- राजा राम मोहन राय का निधन 27 सितंबर 1833 इंग्लैंड में हुआ था।