पर्दे पर किसानों की ज़िंदगी की सच्चाई को चित्रित करती है फिल्म 'खरीफ़' | The Voice TV

Quote :

कृतज्ञता एक ऐसा फूल है जो महान आत्माओं में खिलता है - पोप फ्रांसिस

Art & Music

पर्दे पर किसानों की ज़िंदगी की सच्चाई को चित्रित करती है फिल्म 'खरीफ़'

Date : 02-Jun-2025

बॉक्स ऑफिस पर ग्लैमर और एक्शन की चकाचौंध के बीच 'खरीफ़' एक सच्ची सांस की तरह आती है। यह फिल्म न तो किसी बड़े सितारे पर टिकी है, न ही इसमें कोई आइटम सॉन्ग है। इसके केंद्र में हैं वो किसान और मज़दूर, जो देश की असली रीढ़ हैं।

जब सिनेमाघरों में ‘एनिमल’ की गोलियां गूंज रही थीं और ‘जाट’ की गालियां ट्रेंड कर रही थीं, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि किसान के सपनों और मज़दूर की थकान को कोई सिनेमाई भाषा दी जा सकती है, लेकिन 'खरीफ़' यह जोखिम मजबूती से उठाती है।

सच्चाई के भरोसे खड़ी एक फिल्म

'खरीफ़' एक रियलिस्टिक फिल्म है, जो भारतीय कृषि जीवन की ज़मीनी हकीकत को पर्दे पर लाने का साहस करती है। इसे न किसी सुपरस्टार का सहारा है, न किसी भारी-भरकम प्रचार का। इसके निर्माता त्रिलोक कोठारी, प्रकाश चौधरी और धीरेंद्र डिमरी ने यह जोखिम उठाया है कि सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, संवेदना भी हो सकता है। फिल्म के लेखक विक्रम सिंह ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि ‘खरीफ़’ कोई प्रचार नहीं, बल्कि एक प्रतिकार है—उस मौन के ख़िलाफ़ जो किसानों की पीड़ा पर छाया रहता है। उनके शब्दों में, "जब किसान आंकड़ा बन जाता है, तब ज़रूरत है ऐसी फ़िल्म की जो कहे—यह भी भारत है!"

गांव की ज़िंदगी से उपजी पटकथा

मनोज कुमार, मनोज पांडे, यामिनी मिश्रा, प्रकाश चौधरी और सम्राट सोनी जैसे कलाकारों ने गांवों में रहकर किसानों की ज़िंदगी को महसूस करते हुए न केवल अपने किरदारों को असरदार बनाया है। राजस्थान की चिलचिलाती गर्मी में, जहां तापमान 40 से 45 डिग्री तक रहा, वहां भी पूरी टीम ने बिना रुके काम किया। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली और मुंबई में शूट हुई इस फिल्म की खूबसूरती यह है कि हर दृश्य किसानों की ज़िंदगी से आत्मसात होकर फिल्माया गया है। फिल्म के कई हिस्सों में नंगे पांव खेतों में दौड़ते बच्चे, थके हुए मज़दूरों के कंधे और औरतों की आंखों में तैरते सपने दिखते हैं, जो मिलकर एक सिनेमाई कविता रचते हैं।

किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में जन्मी आवाज़

जब देश भर में किसान आंदोलन की गूंज संसद से लेकर सोशल मीडिया तक सुनाई दे रही थी, तब भी व्यावसायिक सिनेमा इस विषय पर मौन रहा। 'खरीफ़' उस चुप्पी को तोड़ती है और एक ठोस सिनेमाई दस्तावेज़ बन जाती है। यह फिल्म उन अनगिनत चेहरों की कहानी है, जो बीज बोते समय आसमान की ओर नहीं, बल्कि अपने परिवार की भूख मिटाने की चिंता में रहते हैं।

ग्रामीण भारत की सोंधी ख़ुशबू लिए एक सशक्त कथानक

'खरीफ़' नारे नहीं लगाती, न ही किसी विचारधारा को थोपती है। यह मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू से भीगी कहानी है, जो दर्शकों के दिल को छू जाती है। फिल्म का हर फ्रेम एक गवाही है उस संघर्ष की, जो किसान हर मौसम में जीता है। आज जब सिनेमा बड़े बजट, सितारों और तकनीकी चमक के बीच कहीं अपनी संवेदना खोता जा रहा है, ऐसे में 'खरीफ़' फिल्म यह विश्वास लौटाती है कि भारतीय सिनेमा में अभी भी दिल से लिखी कहानियों की गुंजाइश है।
 

 
RELATED POST

Leave a reply
Click to reload image
Click on the image to reload










Advertisement