शिक्षाप्रद कहानी:- कुणाल की पितृभक्ति
Date : 03-Aug-2024
यह सर्वमान्य बात है की मनुष्य चाहे कैसे भी क्यों न हो , उसमें कुछ न कुछ दुर्बलता अवश्य होती है | प्रियदर्शी अशोक में अपार गुण माने जाते है, लेकिन इसके साथ ही उसमे एक दुर्बलता भी थी | उन्होने वृद्धवस्था में विवाह किया था और वे अपनी उस नई रानी तिष्यरक्षिता के वश में हो गये थे | उधर तिष्यरक्षिता ने महाराज के ज्येष्ट पुत्र कुणाल को जो देखा , तो उसका चित्त उसके वश में नहीं रहा | उसने कुणाल को अपने कक्ष में बुलवाया | राजकुमार कुणाल ने जब विमाता का भाव समझा तो सहसा सहम गये |
राजकुमार कुणाल तिष्यरक्षिता का घृणित प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सके | तिष्यरक्षिता ने उनकी अस्वीकार से क्रोधोन्मत्त होकर पैर पटकते हुए कहा –‘’ तुम्हारे जिन सुंदर नेत्रो ने मुझे व्याकुल किया है , उन्हे ज्योतिहीन न कर दूं तो मेरा नाम तिष्यरक्षिता नहीं|’’
महाराज अशोक तो छोटी रानी के वश में थे ही | उन्ही दिनो तक्षशिल के समीप शत्रुओ ने कुछ उपद्रव किया है, यह समाचार महाराज के पास आया | तिष्यरक्षिता ने महाराज को मंत्रणा दी –‘’ कुणाल अब बड़ा हो गया है , उसे युवराज होना है , अत: उसे राज – कार्य और शत्रुदमन का अनुभव प्राप्त होना चाहिए | आप मेरी बात माने तो , इस समय उसे ही तक्षशिला के मोर्चे पर भेजें|’’
महाराज की आज्ञा से कुणाल सेना के साथ तक्षशिला गये | उनकी पत्नी भी उनके साथ ही गयी | राजकुमार ने अपने नीति कौशल से बिना युद्ध किये ही शत्रुओं को वश में कर लिया |
उनके निरीक्षण से वहाँ सुव्यवस्था स्थापित हो गयी | इधर राजधानी में तिष्यरक्षिता ने महाराज का पूरा विश्वास प्राप्त कर लिया था | यहा तक कि राजकीय मुद्रा भी अब उसके पास ही रहने लगी थी | अवसर पाकर उसने तक्षशिला के मुख्य अधिकारी के पास महाराज की ओर से आज्ञा पत्र लिखा –‘’ कुमार कुणाल ने राज्य का बहुत बड़ा अपराध किया है | आज्ञा पत्र पाते ही उसके नेत्र लौह शलाका डालकर फोड़ दिये जाए और उसका सब धन छीनकर उसे राज्य से बहिष्कार कर दिया जाये |’’ आज्ञा पत्र पर राजकीय मुद्रा लगाकर उसने गुप्त रूप से वह पत्र भेज दिया |
तक्षशिला के सभी अधिकार राजकुमार कुणाल को सच्चरित्रता तथा उदारता के कारण उनसे प्रेम करते थे | महाराज का आज्ञा पत्र पहुचने पर वे चकित रह गये | आज्ञा पत्र कुणाल को दिखाया गया | कुणाल ने पत्र को देखकर कहा –‘’ पत्र किसने लिखा है , यह मै अनुमान कर सकता हूँ | मेरे पिताश्री को यह पता ही नहीं होगा, यह भी मैं जनता हूँ | किन्तु इस पत्र पर महाराज कि मुद्रा है | अत: राजाज्ञा का सम्मान अवश्य होना चाहिए |
इस कार्य को संपन्न करने के लिए कोई भी अधिकारी तत्पर नहीं हुआ और कोई जल्लाद तक इसके लिए तैयार नहीं किया जा सका कि जो कुणाल के नेत्रों में लोहे की शलाका डाल सके | जब कोई उद्धत नही हुआ , तब उस पितृ भक्त राजकुमार ने स्वय अपने नेत्रो में लोहे की कीलें घुसेड दीं | पिता की आज्ञा का सम्मान करने के लिए वह स्वय अंधा हो गया | राज्य से बहिष्कार होने की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी पत्नी को साथ लेकर वह वहाँ से निकल गया |
अब वह राह का भिखारी था | अपनी वीणा बजाकर भीख माँगते हुए वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकने लगा | पाप कब तक छिपा रह सकता है | राजकुमार कुणाल जब भटकता हुआ मगध पहुँचा तो पिता द्वारा पहचान लिया गया | राजा को बड़ा क्रोध आया | वह तिष्यरक्षिता को दंडित करने के उपाय पर विचार करने लगा | कुणाल को जब अपने पिता के मनोभावों का ज्ञान हुआ तो उसने प्राथना की –‘’महाराज ! मेरी विमाता को इस अपराध के लिए क्षमा किया जाए |’’
परंतु अशोक तिष्यरक्षिता को क्षमा नही कर सका और उसे प्राणदंड दिया गया | महाराज अशोक ने कुणाल के पुत्र को राज्यसिहासन का उत्ताधिकारी नियुक्त कर अपने पाप का प्रायश्चित किया |